Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Hindi Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019SIR और कानून: SC को केवल प्रक्रिया नहीं बल्कि राजनीतिक असर भी देखना चाहिए

SIR और कानून: SC को केवल प्रक्रिया नहीं बल्कि राजनीतिक असर भी देखना चाहिए

जो संशोधित किया जा रहा है, वह केवल मतदाता सूची नहीं बल्कि राजनीतिक पहचान और इसमें शामिल होने की सीमाएं हैं.

बुरहान मजीद
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>एक सामान्य प्रशासनिक सुरक्षा उपाय के रूप में पेश किया गया, SIR का उद्देश्य यह दिखाना है कि कोई योग्य मतदाता बाहर न रहे और कोई अयोग्य मतदाता सूची में शामिल न हो.</p></div>
i

एक सामान्य प्रशासनिक सुरक्षा उपाय के रूप में पेश किया गया, SIR का उद्देश्य यह दिखाना है कि कोई योग्य मतदाता बाहर न रहे और कोई अयोग्य मतदाता सूची में शामिल न हो.

(Photo: Kamran Akhter/The Quint) 

advertisement

न्यायपालिका का सरकार की मर्जी के आगे झुकने का ताजा उदाहरण मतदाता सूची की विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision - SIR ) के रूप में सामने आया है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा चुनाव आयोग को SIR चलाने का अधिकार देने से एक ऐसी प्रक्रिया को मान्यता मिल गई है, जिसमें “योग्यता की जांच” का नारा राजनीतिक प्रतिनिधित्व को नए सिरे से तय करने के एक पर्दे के रूप में इस्तेमाल हो रहा है.

ऊपर-ऊपर यह एक सामान्य प्रशासनिक प्रक्रिया लगती है, जिसका दावा है कि कोई पात्र वोटर न छूटे और कोई अपात्र शामिल न हो. लेकिन इस तकनीकी तर्क के पीछे राजनीतिक पहचान और नागरिकता की परिभाषा को बदल देने वाला एक बड़ा बदलाव छुपा है.

पहचान पर सवाल: नागरिक हैं या नहीं?

जो प्रक्रिया बिहार में वोटर की पात्रता की नौकरशाही जांच के रूप में शुरू हुई थी, अब वह कई राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों तक फैल गई है. अगर बिहार के अनुभव से कोई सीख मिलती है, तो वह यह है कि असल में कहीं गहरे सवालों पर ध्यान देने की जरूरत है: कौन इस व्यवस्था का हिस्सा माना जाएगा? राज्य किन प्रशासनिक और कानूनी तरीकों से तय करता है कि कौन योग्य है और कौन नहीं?

इन घटनाक्रमों को समझने पर मुझे पांच प्रमुख वजहें दिखाई देती हैं, जिनकी वजह से अदालत का मौजूदा रुख न सिर्फ अपर्याप्त है, बल्कि कई मायनों में नुकसानदेह भी साबित हो सकता है.

पहला, SIR में साबित करने की जिम्मेदारी राज्य से हटकर नागरिक पर डाल दी जाती है.

पहचान से जुड़े दस्तावेजों को चुनावी सूची में शामिल होने की शर्त बना कर, SIR एक ऐसी असमान परीक्षा थोप देता है, जिसे सबसे ज्यादा वही लोग झेलते हैं जो इसे पूरा करने की स्थिति में सबसे कम होते हैं. यह प्रक्रिया कुछ वोटरों को “संदिग्ध वोटर” बना देती है—जिनकी वैधता को मान लेने के बजाय उन्हें हर बार साबित करना पड़ता है. प्रवासी मजदूर, धार्मिक अल्पसंख्यक, अनौपचारिक बस्तियों में रहने वाले लोग, और शहरों की योजना से अलग-थलग पड़े समुदाय—ये सभी इस उलटे पड़े संवैधानिक सिद्धांत की मार सबसे ज्यादा झेलते हैं, जैसा कि हाल की कई रिपोर्टों में सामने आया है.

दूसरा, यह बदलाव नागरिकता की मूल धारणा को ही कमजोर कर देता है और व्यक्ति को एक तरह से संदेह के घेरे में खड़ा कर देता है.

"योग्य" और "अयोग्य" वोटर की सख्त परिभाषाएं तय करके, चुनाव आयोग नागरिकता को एक नए रूप में बदलने की स्थिति में आ गया है. संविधान ने हर वयस्क नागरिक के मताधिकार को एक स्वाभाविक अधिकार माना था, पर अब इसे एक शर्त आधारित जांच प्रक्रिया में बदल दिया गया है. SIR केवल सूची की गलती ठीक नहीं करता, यह लोगो को यह भी बताता है कि वोटर कहलाने का सही तरीका क्या है.

चुनाव आयोग भले ही नागरिकता तय नहीं करता, लेकिन SIR की प्रक्रिया उसे उसी दिशा में ले जाती है. इसमें ऐसे कागज मांगे जाते हैं जो सिर्फ पहचान साबित करने से आगे की बात हैं. सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि नागरिकता का सवाल गृह मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र में आता है, लेकिन SIR की काम करने की प्रकृति इस सीमा को धुंधला कर देती है.

इस तरह यह प्रक्रिया एक तरह के पर्दे के पीछे चलने वाले NRC जैसी महसूस होती है, जिसमें कागज की मांग बढ़ाकर कुछ खास समुदायो पर ज्यादा भार डाल दिया जाता है और प्रशासनिक जांच धीरे धीरे राजनीतिक वर्गीकरण का साधन बन जाती है.

SIR का ढांचा असम में हुए NRC जैसा लगता है, जिसकी निगरानी सुप्रीम कोर्ट ने की थी. जिस तरह NRC ने "असली" और "संदिग्ध" नागरिक की श्रेणियां बनाईं, उसी तरह SIR वोटरो को "योग्य" और "अयोग्य" की श्रेणी में बांट देता है.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

चुनाव की चाल: मतदाताओ को बताना की नियन्त्रण किसका है?

तीसरा, SIR का समय इसके राजनीतिक असर को और ज्यादा बढ़ा देता है.

बिहार में यह प्रक्रिया ठीक चुनाव से पहले शुरू की गई थी, जिससे यह साफ होता है कि सूची में बदलाव को राजनीतिक रणनीति की तरह भी इस्तेमाल किया जा सकता है. चुनाव आयोग के अंतिम मतदाता सूची अपडेट के अनुसार जून से लेकर अंतिम सूची जारी होने तक पंजीकृत वोटरो की संख्या लगभग 7.89 करोड़ से घटकर 7.42 करोड़ रह गई. यानी लगभग 47 लाख नाम हटाए गए, जबकि 21.5 लाख नए वोटर जोड़े गए.

हटाए गए नामो की संख्या और उनका पैटर्न देख कर कई जानकारो और विपक्षी दलो ने गंभीर चिंता जताई है. कई सीटो पर हटाए गए वोटरो की संख्या हाल में हुए विधानसभा चुनाव के जीत हार के अंतर से भी ज्यादा है. प्रशासनिक सफाई बताई गई यह प्रक्रिया असल में चुनावी प्रतिनिधित्व में एक बड़े फेरबदल की तरह काम करती दिखाई देती है. यह भी संयोग नहीं है कि SIR उन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशो में बढ़ा दी गई है जहां चुनाव होने वाले हैं.

चौथा, अदालत ने कुछ छोटे सुरक्षा उपाय जोड़े हैं, लेकिन वे केवल प्रक्रिया से जुड़े हैं, संरचनात्मक स्तर पर कोई बदलाव नहीं करते.

बिहार वाले मामले में अदालत ने चुनाव आयोग से कहा कि आधार को एक अतिरिक्त पहचान पत्र के रूप में स्वीकार किया जाए और जिला तथा बूथ स्तर पर हटाए गए नामो की सूची सार्वजनिक की जाए. लेकिन साथ ही अदालत ने यह भी कहा कि आधार नागरिकता या वोटर बनने की योग्यता साबित नहीं करता.

यानि अदालत केवल प्रक्रिया के किनारे थोड़ा बदलाव करती है, लेकिन इस गहरे सवाल को छूती ही नहीं कि आखिर जांच का दबाव किन लोगो पर डाला जा रहा है और क्यों?

पांचवां, जो काम केवल मतदाता सूची की एक सामान्य समीक्षा होना चाहिए था, वह अब मतदाताओ को नियंत्रित करने की एक सरकारी कवायद बन गया है.

बिहार में छह महीने पहले ही एक संक्षिप्त समीक्षा हो चुकी थी, फिर भी SIR ने इस प्रक्रिया को फिर से शुरू किया ताकि गहन जांच की जा सके. जो तकनीकी या नौकरशाही हस्तक्षेप लगता है, वह वास्तव में मतदान करने वालों को वर्गीकृत करने की एक राजनीतिक तकनीक के रूप में काम करता है. यह उस औपनिवेशिक शासन की याद दिलाता है, जब जनगणना, सर्वेक्षण और पहचान प्रक्रियाओं का इस्तेमाल जाति, नस्ल, जनजाति और धर्म जैसी बनाए गई श्रेणियों को स्थापित करने के लिए किया जाता था.

SIR के जरिए वही तर्क फिर सामने आता है: वोटरों को "योग्य" और "अयोग्य" में, "अंदर" के और "बाहर" के लोगों में, "नागरिक" और "संदिग्ध" लोगों में बांटना.

प्रक्रियात्मक चूक से आगे देखना आवश्यक है

इस प्रकार, जब न्यायिक जांच केवल यह देखती है कि चुनाव आयोग ने कानूनी प्रक्रिया का पालन किया या नहीं, तो यह उसी प्रक्रिया के गहरे राजनीतिक असर को नजरअंदाज कर देती है. मताधिकार से वंचित करना हमेशा खुले तौर पर बहिष्कार के जरिए नहीं होता, बल्कि कभी-कभी तटस्थ लगने वाले प्रशासनिक मानदंडों के माध्यम से भी होता है.

हालांकि SIR चुनावी नियमों के तहत तकनीकी रूप से वैध हो सकता है, उसकी कार्यप्रणाली औपनिवेशिक शासन जैसी लगती है, जहां जाहिर तौर पर निष्पक्ष मानदंडों के पीछे राजनीतिक रूप से प्रेरित वर्गीकरण छुपा होता है.

इसलिए जो संशोधित किया जा रहा है, वह केवल मतदाता सूची नहीं बल्कि राजनीतिक पहचान और संबंधित अधिकारों की सीमाएं भी हैं.

सुप्रीम कोर्ट इसे मानती है या नहीं, यह केवल वर्तमान मामले के नतीजे को ही तय नहीं करेगा, बल्कि भारत में लोकतांत्रिक पहचान और उसमें शामिल होने की भावी रूपरेखा को भी प्रभावित करेगा, खासकर विभाजन के अशांत इतिहास को देखते हुए. कानूनी प्रक्रिया को यह तय करने से बचना चाहिए कि ऐतिहासिक रूप से बनाए गए सामाजिक और राजनीतिक ढांचे को स्वाभाविक माना जाए.

(बुरहान मजीद नई दिल्ली के जामिया हमदर्द के स्कूल ऑफ लॉ में कानूनी और संवैधानिक सिद्धांत पढ़ाते हैं. वह ट्विटर पर @burhanmajid हैं. यह एक ओपिनियन लेख है और इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं। द क्विंट इनकी पुष्टि नहीं करता और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT