एक BLO की मौत और SIR का डरावना सच

लेखिका आरती जेरथ लिखती हैं कि विपक्ष-शासित राज्यों की तुलना में बीजेपी-शासित राज्यों में अधिक BLO की मौतें हुई हैं.

आरती जेरथ
नजरिया
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<div class="paragraphs"><p>मीडिया रिपोर्टस के मुताबिक नवंबर में SIR की प्रक्रिया शुरू होने के बाद से अब तक कम से कम 33 BLO की मौत हो चुकी है.</p></div><div class="paragraphs"></div>
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मीडिया रिपोर्टस के मुताबिक नवंबर में SIR की प्रक्रिया शुरू होने के बाद से अब तक कम से कम 33 BLO की मौत हो चुकी है.

(Photo: Aroop Mishra/The Quint)

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एक लोकतंत्र में अगर सरकारी काम के दबाव में किसी एक कर्मचारी की भी मौत हो जाए, तो यह गहरी चिंता का विषय होना चाहिए. लेकिन लगता है कि भारत का चुनाव आयोग (ईसीआई) और नरेंद्र मोदी सरकार, दोनों ने इस गंभीर मुद्दे पर चुप्पी साध ली है. देश के 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में चल रही मतदाता सूची की विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision - SIR) प्रक्रिया के दौरान अब तक कई ब्लॉक लेवल ऑफिसर (BLO) की रहस्यमयी मौतें हो चुकी हैं.

इन मौतों का कोई आधिकारिक और केंद्रीय आंकड़ा अब तक सामने नहीं आया है. हालांकि एक बड़े टीवी चैनल ने अलग-अलग जगहों से जानकारी जुटाकर एक सूची बनाई है, जिसके मुताबिक नवंबर से अब तक कम से कम 33 BLO की मौत हो चुकी है.

इनमें से कुछ अधिकारियों ने आत्महत्या से पहले चिट्ठी लिखी, जिसमें उन्होंने SIR से जुड़े काम के भारी दबाव को अपनी मौत की वजह बताया. वहीं कई अधिकारी अचानक दिल का दौरा पड़ने या अत्यधिक तनाव के कारण गिर पड़े और उनकी जान चली गई. अव्यावहारिक समय-सीमा और लगातार दबाव भरे माहौल ने इन कर्मचारियों की सेहत पर गंभीर असर डाला.

SIR अब चिंता का कारण बनता जा रहा

इस पूरे मुद्दे पर सरकार की हठधर्मिता साफ दिखाई देती है. संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र में सरकार ने SIR और उससे जुड़ी BLO की मौतों पर किसी भी तरह की चर्चा से सीधे इनकार कर दिया है. विपक्षी सांसदों ने कई दिनों तक इस मुद्दे को लेकर जोरदार हंगामा किया, लेकिन सरकार टालती रही.

आखिरकार सरकार ने इस मुद्दे से सीधे बचते हुए यह प्रस्ताव दिया कि अगले हफ्ते “चुनावी सुधारों” जैसे बड़े विषय पर चर्चा कराई जाएगी, लेकिन उसकी भी शर्त यह रखी गई कि उससे पहले ‘वंदे मातरम् के 150 साल’ पर चर्चा होगी.

यह अभी स्पष्ट नहीं है कि विपक्ष सरकार के इस टालने वाले रवैये से सहमत हुआ है या नहीं. लेकिन विपक्ष ने तय कर लिया है कि वह SIR से जुड़े मुद्दे को बिना जवाब लिए नहीं छोड़ेगा, भले ही इसके लिए संसद में रोज हंगामा ही क्यों न करना पड़े.

सरकार इस मुद्दे पर क्यों बचती फिर रही है, इसके कारण साफ नजर आते हैं. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, जिन राज्यों में बीजेपी की सरकार है, वहां BLO की मौतें विपक्ष-शासित राज्यों की तुलना में ज्यादा हुई हैं. भले ही इस समय पश्चिम बंगाल चर्चा के केंद्र में है, क्योंकि मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुए SIR को अपने अभियान का बड़ा मुद्दा बना लिया है, लेकिन उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में यह प्रक्रिया और भी ज्यादा खतरनाक रूप ले चुकी है.

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मामला सिर्फ पश्चिम बंगाल का नहीं

मध्य प्रदेश में अब तक कम से कम 9 BLO की मौत की खबर है, जबकि उत्तर प्रदेश में यह संख्या 7 बताई जा रही है. इसके मुकाबले पश्चिम बंगाल में यह आंकड़ा 6 है. सिर्फ मौतों की संख्या ही चिंताजनक नहीं है, बल्कि इन दोनों बीजेपी-शासित राज्यों में SIR की प्रक्रिया जमीन पर भारी अव्यवस्था भी पैदा कर रही है. कई टीवी चैनलों ने ऐसे वीडियो दिखाए हैं, जिनमें अफसर रोते हुए कहते नजर आ रहे हैं कि वे अब इस दबाव को और झेल नहीं पा रहे.

इन राज्यों के कुछ इलाकों में तनाव से जूझ रहे BLO खुलकर विरोध पर उतर आए हैं. नोएडा प्रशासन ने कथित लापरवाही और आदेश न मानने के आरोप में 60 BLO और 7 सुपरवाइजर पर FIR दर्ज की है. वहीं बहराइच में दो BLO को कथित बदसलूकी के आरोप में निलंबित कर दिया गया. यूपी के एक अन्य जिले में एक स्कूल शिक्षिका ने भारी मानसिक दबाव और नाराजगी में अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया. उनका कहना था कि वे न तो SIR का काम ठीक से कर पा रही थीं और न ही अपने छात्रों को पूरा समय दे पा रही थीं.

मध्य प्रदेश में बीजेपी सरकार उस वक्त बैकफुट पर आ गई, जब यह सामने आया कि BLO की मदद के लिए लगाए गए चार सहायक बीजेपी के सदस्य थे. इसके बाद जल्दबाजी में उन्हें हटा दिया गया, जिससे उन BLO पर काम का दबाव और बढ़ गया.

बीजेपी-शासित राजस्थान में भी हालात कुछ ऐसे ही हैं. वहां स्कूल शिक्षक SIR का अतिरिक्त काम दिए जाने से नाराज हैं. कई शिक्षकों ने बढ़ते कार्यभार को लेकर औपचारिक शिकायतें दर्ज कराई हैं. उनका कहना है कि चुनाव आयोग की तय की गई कम समय-सीमा में मतदाता सूची का काम पूरा करने के लिए उन्हें रोज 12 से 18 घंटे तक काम करना पड़ रहा है, जबकि साथ ही उन्हें अपने मूल काम यानी पढ़ाने की जिम्मेदारी भी निभानी होती है.

विडंबना यह है कि हाल ही में जब तृणमूल कांग्रेस (TMC) का एक प्रतिनिधिमंडल SIR पर पुनर्विचार की मांग को लेकर चुनाव आयोग के पूरे बेंच से मिला, तो आयोग के अधिकारियों ने ममता बनर्जी सरकार पर ही “बेबुनियाद आरोप” लगाने का आरोप लगा दिया.

TMC के इस तीखे बयान के जवाब में कि “चुनाव आयोग के हाथ खून से सने हैं”, आयोग ने पलटवार करते हुए कहा कि BLO की मौतों के लिए SIR नहीं, बल्कि TMC और राज्य सरकार जिम्मेदार है. बीजेपी भी अब यही लाइन दोहरा रही है.

हाल ही में एक टीवी डिबेट के दौरान पार्टी प्रवक्ता जफर इस्लाम ने सीधे-सीधे तृणमूल कांग्रेस (TMC) पर BLO को डराने, परेशान करने और SIR की प्रक्रिया में बाधा डालने का आरोप लगाया.

अब चुनाव आयोग (EC) ने पश्चिम बंगाल के चुनाव आयोग अधिकारियों और राज्य पुलिस को पत्र लिखकर कहा है कि यह सुनिश्चित किया जाए कि BLO पर किसी भी तरह का राजनीतिक दबाव या धमकियां न डाली जाएं.

असली मुद्दों से ध्यान भटका

पिछले हफ्ते संसद के बाहर बीजेपी नेताओं ने SIR की प्रक्रिया की “पवित्रता” की खूब तारीफ की. लेकिन हकीकत यह है कि इस पूरी प्रक्रिया का एक अंधेरा पक्ष भी है, जिस पर खुलकर बात होना, उस पर चर्चा करना और उसकी गंभीर जांच होना बेहद जरूरी है.

अगर सचमुच BLO इतने भारी दबाव में हैं कि कुछ लोग आत्महत्या जैसा कदम उठा रहे हैं, तो साफ है कि कहीं न कहीं कुछ बहुत गलत हो रहा है. कम से कम इतना तो होना ही चाहिए कि संसद में इस मुद्दे पर एक संवेदनशील और गंभीर चर्चा हो, ताकि पूरे देश का ध्यान BLO की बदहाल स्थिति की ओर जा सके.

जो काम पहले भी कई बार हो चुका है—यानी मतदाता सूची का पुनरीक्षण—वही प्रक्रिया अब आत्महत्याओं और मौतों की वजह कैसे बन गई? यह सवाल बेहद गंभीर है. जनता को इसके जवाब चाहिए और जिन परिवारों ने अपने प्रियजनों को खोया है, उन्हें भी सच्चाई जानने का हक है, ताकि उन्हें मानसिक सुकून मिल सके.

लेकिन इससे पहले जरूरत इस बात की है कि जिन अधिकारियों ने बेहद कम समय में इतना भारी-भरकम काम कराने का फैसला लिया, वे जमीन पर मचे इस हाहाकार की सच्चाई को देखें और समझें.

(आरती आर जेरथ दिल्ली की वरिष्ठ पत्रकार हैं. वह एक्स (ट्विटर) पर @AratiJ नाम से लिखती हैं. यह एक ओपिनियन लेख है और इसमें व्यक्त विचार लेखिका के निजी हैं. द क्विंट इन विचारों का समर्थन नहीं करता और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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