क्या उत्तर प्रदेश के संभल की शाही जामा मस्जिद पहले एक मंदिर थी और फिर उसे तोड़कर मस्जिद बनाई गई?
क्या राम मंदिर पर आए फैसले ने मुगलकाल में बने मॉनूमेंट्स और मस्जिदों के नीचे मंदिर ढूंढ़ने वालों को मौका दे दिया है?
1992 में जब प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट लागू हो गया फिर बार-बार दूसरे धर्म की धार्मिक स्थल निशाने पर क्यों है?
ये वो सवाल हैं जिसके उठते ही उत्तर प्रदेश के संभल (Sambhal) में 5 लोगों की जान चली गई. हां, ये अलग बात है कि अब इस देश में जिंदगी इतनी सस्ती हो गई है कि किसी को किसी की मौत से कोई फर्क नहीं पड़ता. कुछ लोग कहेंगे कि मरने वाले उपद्रवी थे, कुछ लोगों का आरोप है कि पुलिस ने गोली चलाई. लेकिन सवाल यही तो है कि हिंसा या किसी की जान जाए ऐसे हालात क्यों पैदा होने दिए जा रहे हैं?
इस आर्टिकल में आपको बताएंगे कि क्यों मस्जिद को बचाने वाले बार-बार प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट की बात करते हैं और ये है क्या, और किसकी वजह से 'मस्जिद के नीचे मंदिर खोजो' अभियान को हवा मिली है? और इस तरह के हिंसा में हर मौत के बाद पुलिस कौन सी थ्योरी का सहारा लेती है. फिर आप भी पूछिएगा जनाब ऐसे कैसे?
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अब चलते हैं उस सवाल पर जिसके लिए आप ये आर्टिकल पढ़ रहे हैं.
बार-बार मुगल शासकों का नाम लेकर ‘ऐतिहासक गलतियों’ का जिक्र होता है. दावा किया जाता है कि मुगल शासकों ने बहुत से मंदिर तोड़े. और उसकी जगह मस्जिद बनवाए. इसलिए मस्जिद हटाकर मंदिर बनाना चाहिए और इसके लिए पहले सर्वे होना चाहिए. अब यहीं से सवाल उठता है कि अगर यही पैरामीटर है हर मस्जिद या मॉनूमेंट के सर्वे कराने और उसे हासिल करने का तो फिर जिन बौद्ध अवशेषों के ऊपर हिंदू संरचनाओं का निर्माण करने का आरोप है उसका क्या होगा?
मैं नहीं, राष्ट्रवादी इतिहासकार काशी प्रसाद जायसवाल के हवाले से कहा जाता है कि उन्होंने रामेश्वर धाम को बौद्ध मंदिर कहा था.
केरल के सबरीमाला मंदिर को ही ले लीजिए. मला अराया एक आदिवासी समुदाय है, इस समुदाय का दावा है कि वे लोग सन 1900 तक सबरीमाला मंदिर में पूजापाठ करते थे. लेकिन पंडालम के शाही परिवार ने उन्हें सबरीमाला और उसके आसपास की 17 पहाड़ियों से जबरन बेदखल कर दिया गया.
साल 2018 में ऐक्य माला अरया महासभा के संस्थापक महासचिव पीके सजीव ने कहा,
"सरकार को मंदिर हमें वापस देना चाहिए और एक ऐतिहासिक गलती को सुधारना चाहिए. माला अरया को प्रताड़ित किया गया और सबरीमाला छोड़ने के लिए मजबूर किया गया. अब अत्याचारों के लिए प्रायश्चित करने का समय आ गया है."
राज्य में आदिवासी और दलित संगठन लंबे समय से दावा करते रहे हैं कि ब्राह्मणों ने उनके मंदिरों पर नियंत्रण कर लिया है और वहां ब्राह्मणवादी अनुष्ठान लागू कर दिए गए हैं. अब इसपर क्या कहेंगे?
यही नहीं इस संगठन सबरीमाला के अलावा तीन मंदिर के मालिकाना हक का दावा किया है- करीमाला, पोन्नम्बलमेडु और निलक्कल महादेव मंदिर. हो सकता है ये सब पुरानी कहानी और तर्क आपको समझ न आए, तो ठीक है आप ये बयान पढ़िए-
"और ठीक है, प्रतीकात्मक हमारी कुछ श्रद्धा थी, कुछ स्थानों के बारे में हमने कहा लेकिन रोज एक मामला निकालना भी नहीं चाहिए, हमको झगड़ा क्यों बढ़ाना. ज्ञानवापी के बारे में हमारी कुछ श्रद्धा है, परंपरा से चलती आई हैं ठीक है. लेकिन हर मंदिर में शिवलिंग को क्यों देखना. वो भी एक पूजा है ठीक है बाहर से आई है लेकिन जिन्होंने इसे अपनाई है, वो मुसलमान बाहर से संबंध नहीं रखते हैं, ये उन्हें भी समझना चाहिए.''
ये भाषण साल 2022 में नागपुर में संघ शिक्षा वर्ग के समापन समारोह के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत ने दिया था. लेकिन इन बयानों के बावजूद मस्जिदों के नीचे मंदिर तलाशने का अभियान रुका नहीं. तो इसे क्या समझा जाए?
संभल में क्यों भड़की हिंसा?
दरअसल, संभल में शाही जामा मस्जिद के हरि हर मंदिर होने का दावा किया जा रहा है. इस मामले में 19 नवंबर 2024 को संभल के सिविल कोर्ट में 8 लोगों ने याचिका दायर की. ठीक उसी दिन संभल के चंदौसी में सिविल जज (सीनियर डिवीजन) आदित्य सिंह की अदालत ने आदेश दिया कि मस्जिद का सर्वे होगा. फिर क्या था कोर्ट के आदेश के कुछ ही घंटों में एडवोकेट कमिश्नर की टीम मस्जिद का सर्वे करने पहुंच गई. यहां एक बात बता दें कि मस्जिद कमेटी का दावा है कि उन्हें इस फैसले की खबर तक नहीं थी. ऐसा क्यों किया गया? क्यों नहीं इन्हें सर्वे के आदेश के खिलाफ अपर कोर्ट जाने का वक्त दिया गया? इतनी जल्दी क्यों थी?
दो घंटे करीब सर्वे चला और फिर टीम वापस चली गई. लेकिन फिर 24 फरवरी की सुबह एडवोकेट कमिश्नर की टीम दोबारा सर्वे के लिए पहुंची. लोगों में संदेश गया कि मस्जिद में सर्वे के लिए खुदाई हो रही है. फिर क्या था अफवाहों का बाजार गर्म हुआ लोग सड़कों पर आ गए. पुलिस के साथ झड़प, लाठी चार्ज, आंसू गैस के गोले दागे गए, पत्थर चले, गाड़ियों में आग, गोली चली. और फिर कई लोगों की मौत.
अब सवाल यहां यही आता है कि इतने सेंसिटिव मामले में पुलिस और प्रशासन ने इतनी बड़ी लापरवाही कैसे की. जब मालूम है इस देश में धार्मिक जगहों को लेकर सालों से विवाद चलता आ रहा है, इंसानों की जान, अस्पताल, शिक्षा, रोजगार से ज्यादा धार्मिक जगहों के लिए लड़ाई हो रही है वहां पुलिस की तैयारी ऐसी क्यों नहीं थी कि हिंसा को भड़कने से पहले ही रोक लिया जाता?
क्या है हिंदू पक्ष का दावा- हरिहर मंदिर
जिला अदालत में 8 लोगों ने याचिका दी है, उसमें दावा किया गया है कि संभल शहर के बीचों-बीच भगवान कल्कि को समर्पित एक सदियों पुराना श्री हरि हर मंदिर है, जिसका जामा मस्जिद समिति द्वारा जबरन और गैरकानूनी तरीके से इस्तेमाल किया जा रहा है.
साथ ही ये भी कहा गया है कि ये प्रोपर्टी Ancient monuments preservation act, 1958 के तहत प्रोटेक्टेड मॉनूमेंट है और इस एक्ट की धारा 18 के तहत, जनता को “संरक्षित स्मारक तक पहुंच का अधिकार” है.
अब यहां निकलकर आती है दो बात. एक तो ये कि क्या शाही जामी मस्जिद हरिहर मंदिर था. दूसरा कि ये इसे ASI की वेबसाइट पर ‘राष्ट्रीय महत्व’ का स्मारक घोषित किया गया है. तो क्या ASI के प्रोटेक्टेड मॉनूमेंट्स में पूजा या इबादत नहीं कर सकते हैं? और अगर किसी एक धर्म की पूजा होती है तो दूसरे की भी होनी चाहिए या वो पूजा स्थल सबके लिए होगा?
पहले, हम दूसरे सवाल का जबाव ढूंढ़ते हैं.
दिसंबर 2023 में एक संसदीय पैनल ने सरकार को धार्मिक महत्व वाले संरक्षित स्मारक पर पूजा-अर्चना की इजाजत देने की संभावना तलाशने की सिफारिश की थी. इसकी रिपोर्ट संसद के दोनों सदन में रखी भी गई थी. हालांकि ASI के नियमों के मुताबिक कई स्मारकों पर पूजा और अनुष्ठान की इजाजत है, लेकिन ये तब हो सकता है जब ASI ने जब उस प्रोपर्टी का अधिग्रहण किया हो तब उस वक्त वो परंपराएं उस जगह चल रही हों. यही बात अपने जवाब में संस्कृति मंत्रालय ने भी कही थी.
यही वजह है कि आगरा के ताज महल में जुमे को नमा होती है. इसके अलावा जीवित स्मारकों में कन्नौज में मस्जिदें, मेरठ में रोमन कैथोलिक चर्च, दिल्ली के हौज खास गांव में नीला मस्जिद और लद्दाख में कई बौद्ध मठ शामिल हैं.
यहां भी यही सवाल है कि क्या राष्ट्रीय महत्व के धार्मिक स्थल पर भी दूसरे धर्म के लोगों का अधिकार होगा? क्या कोई भी जाकर अपने अनुष्ठान और पूजा कर सकता है? पूरी का जगन्नाथ मंदिर से लेकर वृंदावन का राधा वल्लभ मंदिर जैसे कई राष्ट्रीय महत्व के मंदिर हैं, जिनमें पूजा होती है.. और इनमें दूसरे धर्म के लोगों का कोई हस्तक्षेप नहीं है.
फिलहाल देश में 3,697 प्राचीन स्मारक और पुरातात्विक स्थल हैं जिन्हें राष्ट्रीय महत्व का घोषित किया गया है. इनमें से करीब एक चौथाई से थोड़ा कम 820 में पूजा स्थल हैं, जबकि बाकी को non-living monuments माना जाता है जहां कोई नया धार्मिक अनुष्ठान शुरू या आयोजित नहीं किया जा सकता है. जिन जगहों पर पूजा स्थल हैं उनमें मंदिर, मस्जिद, दरगाह और चर्च शामिल हैं.
क्या शाही जामी मस्जिद हरिहर मंदिर था?
इसके जवाब में मुस्लिम पक्ष का तर्क है - 1991 का प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट.
राम मंदिर आंदोलन को देखते हुए 1991 में प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट पारित किया गया था. तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी.
इस एक्ट के मुताबिक 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता है. और अगर कोई धार्मिक स्थल से छेड़छाड़ कर उसका मूल स्वरूप बदलना चाहे तो उसे तीन साल की कैद और जुर्माना हो सकता है.
लेकिन यहां एक पेंच है. इस एक्ट में एक बात कही गई है कि प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट, प्राचीन और ऐतिहासिक स्मारक या पुरातात्विक स्थल या Ancient Monuments and Archaeological Sites and Remains Act, 1958 के तहत संरक्षित किसी भी धार्मिक संरचना पर लागू नहीं होगा.
अब यहीं सवाल आता है कि फिर देश की निचली अदालतें बार-बार प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट को भुला क्यों रही हैं? जब्कि राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद के फैसले में इस एक्ट को देश को जोड़ने वाला बताया गया था. तब अदालत ने कहा था- पूजा स्थल अधिनियम संविधान के मूलभूत मूल्यों की रक्षा और सुरक्षा करता है. सेक्यूलरिजम की बात हुई थी.
लेकिन राम मंदिर फैसले के कुछ वक्त बाद ही मथुरा, काशी और अब संभल की शाही जामा मस्जिद पर विवाद शुरू हो गया. ऐसा क्यों?
एक जज का बयान और फिर...
इन सबके बातों के पीछे एक नाम है जिसकी चर्चा हो रही है.. वो हैं पूर्व चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़. इन पर आरोप है कि इनकी एक मौखिक टिप्पणी यानी कि फैसला नहीं सिर्फ बात ने बहुत से मुद्दों को हवा दे दी है.
मई 2022 में सुप्रीम कोर्ट में ज्ञानवापी मामले की सुनवाई के दौरान, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने मौखिक रूप से टिप्पणी की कि places of worship act किसी संरचना के धार्मिक चरित्र का पता लगाने पर रोक नहीं लगाता है. मतलब यहां तर्क ये है कि भले ही 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता है. लेकिन वहां पर क्या था ये पता लगाने पर रोक नहीं है.
अब सवाल यहीं पर है कि जब किसी की धार्मिक जगह से कोई छेड़छाड़ या बदलाव कर नहीं सकते तो फिर किसी सर्वे का क्या मकसद है, आखिर पता लगाकर हासिल क्या होगा?
हर हिंसा में पुलिस के पास एक ही कहानी
अब बात संभल में पुलिस और लोगों के बीच झड़प की. यहां आपको एक पैटर्न दिखाते हैं. साल 2020-21 में उत्तर प्रदेश में सिटिजनशिप अमेंडमेंट एक्ट यानी CAA को लेकर विरोध प्रदर्शन हुए थे. प्रोटेस्ट हिंसा में तबदील हुआ. उत्तर प्रदेश में मेरठ से लेकर संभल, फिरोजाबाज, मुजफ्फरनगर में इस दौरान 20 से ज्यादा लोग मारे गए. तब भी पुलिस ने सेम थ्योरी बताई थी कि भीड़ में से ही किसी ने गोली चला दी. ये थ्योरी करीब-करीब हर हिंसा में बताई गई. संभल में भी यही पैटर्न.
और अगर इस थ्योरी को सच मान लें तो यहां दो सवाल है- बार-बार एक समुदाय से जुड़े विरोध प्रदर्शन में लोग आपस में ही गोली कैसे और क्यों मार रहे हैं, और दूसरा कि इतनी सारी घटनाओं के बाद भी पुलिस इस पैटर्न का तोड़ क्यों नहीं निकाल पा रही?
पुलिस, अदालत, आम लोग, प्रशासन, सरकारें सब सवालों के घेरे में है.. कब तक मस्जिद के नीचे मंदिर ढूंढ़ेगे.. और इन मंदिर-मस्जिद के विवाद से असल फायदा किसे हो रहा है? सवाल का जवाब आपको पता है तो आप भी पूछिए जनाब ऐसे कैसे?