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बिहार चुनाव 2025: नीतीश कुमार की सफलता का राज क्या है?

नीतीश कुमार ने खुद को एक सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले नेता के रूप में पेश किया है.

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'पच्चीस से तीस, नरेंद्र और नीतीश' – बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के लिए एनडीए का यह नारा अब हकीकत बनने जा रहा है, क्योंकि गठबंधन राज्य में भारी जीत की ओर बढ़ रहा है.

अब सबके मन में अगला सवाल यही है: क्या नीतीश कुमार एक बार फिर, अब दसवीं बार, मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे?

बीजेपी नेता और निवर्तमान उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी ने बयान दिया है कि नीतीश कुमार ही फिर से मुख्यमंत्री बनेंगे. लेकिन इस बार उनका राजनीतिक दबदबा कुछ कमजोर हो सकता है, क्योंकि बीजेपी की सीटें जेडीयू से ज्यादा हैं. साथ ही, महागठबंधन के पास अब इतने नंबर भी नहीं बचे हैं कि वह 2022 की तरह नीतीश का साथ लेकर सरकार बना सके.

हालांकि एक बात बिलकुल साफ है कि नीतीश कुमार का नाम अब बिहार का पर्याय बन गया है ठीक वैसे ही जैसे 2024 की हार तक नवीन पटनायक ओडिशा के पर्याय माने जाते थे.

तो आखिर नीतीश कुमार की सफलता का राज क्या है? 2005 से अब तक सीधे या परोक्ष रूप से सत्ता में रहने के बावजूद और कई बार पाला बदलने के बाद भी वह लगातार अजेय कैसे बने रहे?

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मजबूत जनाधार

जेडीयू को हमेशा से कुर्मी, कोइरी, अतिपिछड़ा वर्ग और महादलित समुदायों का मजबूत समर्थन मिलता रहा है. सत्ता में रहते हुए नीतीश कुमार ने सबको साथ लेकर चलने की अपनी राजनीति के जरिए इन तबकों की राजनीतिक हिस्सेदारी बढ़ाई, खासकर कोटा के अंदर कोटा लागू करवाने के प्रयासों से.

इन समुदायों के कई लोग उन्हें यादव-प्रधान आरजेडी और सवर्ण-प्रधान बीजेपी की तुलना में एक ज्यादा संतुलित और सहज नेता मानते हैं. कई गैर-यादव ओबीसी और गैर-पासवान दलित समुदायों के लिए नीतीश कुमार वह नेता हैं जो ज्यादा प्रभावी और दबंग जातियों के मुकाबले उनके हितों की सुरक्षा कर सकते हैं.

अलग अलग तबकों के लिए कम बुरा विकल्प

नीतीश कुमार ने राजनीतिक ध्रुवीकरण के दौर में एक तरह की वैचारिक अस्पष्टता बनाए रखी है, या जैसा उनके समर्थक कहते हैं, एक वैचारिक मध्य मार्ग अपनाया है.

उन्होंने खुद को एक सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले नेता के रूप में पेश किया है, जो न तो सवर्णों के खिलाफ हैं और न ही हिंदुत्व के विरोधी.

मुसलमानों के सामने भी उन्होंने खुद को ऐसा बीजेपी सहयोगी दिखाया जो उनके प्रति शत्रुतापूर्ण नहीं है.

इस संतुलन ने उन्हें आपस में प्रतिस्पर्धी सामाजिक समूहों को भी जोड़कर रखने में मदद की है.

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कल्याणकारी योजनाएं 

बिहार में बेरोजगारी संकट और राज्य से बड़े पैमाने पर होने वाला पलायन, नीतीश कुमार के विकास के रिकॉर्ड पर सवाल जरूर उठाते हैं. लेकिन उनकी सरकार ने कल्याणकारी योजनाओं और सामाजिक इंजीनियरिंग के मेल से इस मुद्दे पर जनता के गुस्से से खुद को काफी हद तक बचाए रखा है.

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महिला समर्थक नीतियां

नीतीश कुमार द्वारा शराबबंदी को लागू करना, भले ही इसके लागू होने को लेकर कई सवाल हों, महिलाओं के बीच उन्हें काफी लोकप्रिय बनाता है. शहरों में कई महिलाएं, जिन्होंने पिछली आरजेडी सरकार का समय देखा है, यह भी कहती हैं कि नीतीश कुमार के शासन में कानून व्यवस्था में सुधार हुआ है.

इसके अलावा, महिलाओं को लक्षित कल्याणकारी योजनाएं और सीधे खाते में आने वाली राशि ने भी नीतीश कुमार की छवि को और मजबूत किया है.

ज्यादातर प्री पोल सर्वे के अनुसार, महिलाओं के बीच एनडीए को काफी बढ़त मिली हुई थी.

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व्यक्तिगत रिश्ते

कई बार पाला बदलने के बावजूद नीतीश कुमार अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता बनाए रखने में इसलिए भी सफल रहे हैं क्योंकि उन्होंने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के साथ भी संबंधों को दोस्ताना बनाए रखा.

लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के बीच कड़ी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता रही, लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर दोनों के रिश्ते हमेशा सौहार्दपूर्ण रहे. महागठबंधन में रहते हुए भी नीतीश ने बीजेपी में अपने दोस्त, जैसे दिवंगत सुशील कुमार मोदी और अरुण जेटली, से संबंध बनाए रखे. समय के साथ उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के साथ भी, उतार चढ़ाव के बावजूद, सीधा व्यक्तिगत संवाद विकसित किया.

यह रवैया उनके कई पूर्व सहयोगियों तक भी फैला रहा. 2015 में उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के बाद, नीतीश कुमार ही जीतन राम मांझी को पद से हटाने के फैसले के पीछे थे. मांझी ने जेडीयू छोड़कर हिन्दुस्तान आवाम मोर्चा बनाई. लेकिन 2020 के चुनाव में वही मांझी नीतीश के सबसे मजबूत समर्थकों में शामिल थे. यही हाल उपेंद्र कुशवाहा का भी रहा, जो 2013 में नीतीश के बीजेपी से अलग होने के फैसले से नाराज हो गए थे. बाद में कुशवाहा भी फिर से नीतीश के मजबूत समर्थकों में शामिल हो गए.

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