बिहार में NDA अगर सत्ता में आता है तो क्या बीजेपी नीतीश कुमार को फिर से मुख्यमंत्री बनने देगी? या पार्टी अपना खुद का CM बनाने पर जोर देगी?
ये ऐसे सवाल हैं जिनका सामना बीजेपी नेताओं को न सिर्फ मीडिया से बल्कि अपनी ही पार्टी के समर्थकों से भी करना पड़ रहा है.
इन सवालों का जवाब आसान नहीं है, क्योंकि पार्टी नेतृत्व जो चाहता है और उसके समर्थक व कार्यकर्ता जो चाहते हैं- इन दोनों के बीच स्पष्ट अंतर है.
बीजेपी का नेतृत्व क्या चाहता है?
बीजेपी के अंदरूनी सूत्रों ने द क्विंट को बताया कि पार्टी के लिए लीडरशिप का सवाल जरूरी नहीं है.
पार्टी का नारा "25 से 30, नरेंद्र और नीतीश" (2025 से 2030, नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार) यह साफ करता है कि BJP का नीतीश कुमार को CM पद से हटाने का कोई प्लान नहीं है.
इस बार BJP बिहार में गवर्नेंस पर अपना दबदबा चाहती है.
विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने पहली बार जेडीयू के बराबर सीटों पर चुनाव लड़कर एक बड़ा मुकाम हासिल किया है.
पार्टी अब नीतीश कुमार के साये से बाहर निकलना चाहती है, भले ही इसका मतलब उन्हें एक प्रतीकात्मक चेहरे के रूप में बनाए रखना ही क्यों न हो.
पिछले 20 सालों से नीतीश कुमार ने सीधे या परोक्ष रूप से बिहार पर शासन किया है, जिनमें से 15 साल वे बीजेपी के साथ गठबंधन में रहे हैं.
बिहार में बीजेपी की पॉपुलैरिटी लगातार बढ़ रही है, खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लीडरशिप में. ज्यादातर रिपोर्ट्स के मुताबिक, जमीन पर बीजेपी का बेस अब JD-U से ज्यादा है. 2020 में बीजेपी को जेडीयू के 15.4 परसेंट वोटों के मुकाबले 19.5 परसेंट वोट मिले, जबकि उसने अपने सहयोगी से पांच कम सीटों पर चुनाव लड़ा था.
सरकार में भी बीजेपी का कद बढ़ा है. 2017 से 2020 तक बीजेपी के 14 मंत्री थे, जो 2020-2022 में बढ़कर 16 हो गए और मौजूदा सरकार में पार्टी के 20 से ज्यादा मंत्री हैं.
हालांकि, जब गवर्नेंस की बात आती है, तो नीतीश कुमार ने बड़ी चालाकी से बीजेपी को दो ऐसे मंत्रालयों से दूर रखा है जो उसके आइडियोलॉजिकल एजेंडे के लिए बहुत जरूरी है: गृह और शिक्षा.
चूंकि पुलिस नीतीश कुमार के कंट्रोल में रही है, इसलिए बिहार में उस तरह की मुस्लिम विरोधी हरकतें नहीं हुई हैं जो BJP शासित राज्यों की पहचान बन गई हैं. उदाहरण के लिए, बिहार में नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करने वालों पर उस तरह की कार्रवाई नहीं हुई, जैसी हमने उत्तर प्रदेश या कर्नाटक (तब BJP शासित) में देखी थी. मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के उलट, बिहार में धर्मांतरण विरोधी कानून नहीं है.
हालांकि, हिंदुत्व समर्थक ग्रुप्स ने शिक्षा और पाठ्यक्रम निर्माण के क्षेत्र में अपनी जगह बना ली है, लेकिन यह उस लेवल का नहीं है जो BJP-शासित राज्यों में दिखता है. विचारधारा पर आधारित नीतियों और मुस्लिम विरोधी कदमों की कमी के कारण, बिहार BJP-शासित अन्य राज्यों से बहुत अलग दिखता है, भले ही पार्टी ज्यादातर मंत्रालयों को कंट्रोल करती हो.।
पार्टी लीडरशिप इस स्थिति को बदलना चाहती है.
लेकिन, यह कहना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल. पांच साल पहले के मुकाबले नीतीश कुमार के पास अभी ज्यादा ताकत है. केंद्र में मोदी सरकार सपोर्ट के लिए जेडीयू और तेलुगु देशम पार्टी पर बहुत ज्यादा निर्भर है.
तो, अगर BJP नीतीश कुमार पर उनकी मर्जी से ज्यादा दबाव डालती है, तो उनके पास महागठबंधन के साथ डील करने का ऑप्शन हो सकता है, लेकिन बिहार में BJP के पास नीतीश के अलावा कोई ऑप्शन नहीं है.
बीजेपी के समर्थक क्या चाहते हैं?
BJP के आम कार्यकर्ताओं और पार्टी के ज्यादातर सपोर्ट बेस का मानना है कि बिहार में पार्टी का समय आ गया है. 2020 में BJP ने न सिर्फ जेडीयू से ज्यादा वोट हासिल किए हैं, बल्कि PM मोदी के नेतृत्व में राज्य में लगातार तीन लोकसभा चुनावों में भी दबदबा बनाया है.
2014 में BJP और उसके सहयोगियों ने 31 सीटें जीतीं, जबकि जेडीयू ने अकेले चुनाव लड़कर सिर्फ 2 सीटें जीतीं. 2019 में NDA ने 40 में से 39 सीटें जीतीं, जिसमें BJP ने 17 और जेडीयू ने 16 सीटें जीतीं. और 2024 में, गठबंधन ने 30 सीटें जीतीं, जिसमें BJP और JDU दोनों ने 12-12 सीटें जीतीं.
इसके उलट, नीतीश कुमार के नेतृत्व में लड़ा गया 2020 का विधानसभा चुनाव कहीं ज्यादा कड़ा था.
ये नतीजे BJP कार्यकर्ताओं और कोर समर्थकों के लिए एक स्पष्ट संदेश है कि बिहार ने साफ तौर पर PM मोदी के पक्ष में फैसला किया है. इसलिए उनमें से कई लोग यह सवाल पूछते हैं: बिहार में BJP का CM क्यों नहीं होना चाहिए?
इसमें जाति का एंगल भी है
बिहार में RJD और JDU जैसी सामाजिक न्याय पर आधारित पार्टियों की पकड़ इतनी मज़बूत रही है कि 1990 में कांग्रेस के जगन्नाथ मिश्रा के बाद से कोई सवर्ण मुख्यमंत्री नहीं बना है.
BJP के सवर्ण समर्थक पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश का उदाहरण देखते हैं, जहां योगी आदित्यनाथ के शासन में कुछ मायनों में ऊंची जाति का दबदबा वापस आया है.
हालांकि नीतीश कुमार हमेशा खुद को एक ऐसे सामाजिक न्याय के नेता के रूप में पेश करते रहे हैं जो सवर्ण विरोधी नहीं हैं, लेकिन प्रभावशाली जातियों में अपना खुद का CM बनाने की इच्छा और भी मजबूत हुई है.
कुछ हद तक, ऐसा बिहार में नौकरी के संकट की वजह से भी है, जिसमें अपर कास्ट के युवा भी शामिल हैं.
बीजेपी के भीतर यह चिंता है कि सवर्ण युवाओं का एक छोटा वर्ग प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी की तरफ जा सकता है, क्योंकि वे चुनावी मैदान में एकमात्र सवर्ण मुख्यमंत्री उम्मीदवार हैं.
अपने सवर्ण वोट बैंक में किसी भी तरह की सेंध से बचने के लिए, बीजेपी ने टिकट वितरण में सवर्णों की हिस्सेदारी बढ़ा दी है. हिंदुस्तान टाइम्स के विश्लेषण के मुताबिक, बीजेपी के 100 उम्मीदवारों में से 49 सवर्ण समुदाय से हैं. द प्रिंट के अनुसार, यह हिस्सा 2020 में 44 प्रतिशत था, जो अब बढ़ गया है.
अब आगे क्या?
नीतीश कुमार की मौजूदा ताकत को देखते हुए इस बात की संभावना कम है कि अगर एनडीए फिर से सत्ता में आती है तो बीजेपी कोई ऐसा फार्मूला थोपे जो नीतीश को मंजूर न हो. इसलिए, नीतीश कुमार तभी किसी बीजेपी मुख्यमंत्री के लिए रास्ता छोड़ेंगे, जब उन्हें इसके बदले में कुछ बड़ा राष्ट्रीय पद- जैसे राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति की पेशकश की जाए.
बीजेपी के लिए सबसे अनुकूल स्थिति यह होगी कि वह नीतीश कुमार के साथ ऐसा ट्रांजिशन प्लान तैयार करे, जिसके तहत वे सम्मानजनक तरीके से पद छोड़ें और उनके चुने हुए उत्तराधिकारियों को महत्वपूर्ण भूमिकाएं मिले. इस तरह, धीरे-धीरे सत्ता का हस्तांतरण बीजेपी के मुख्यमंत्री की ओर हो सकेगा.
