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उल्टी पड़ी फडणवीस की चाल! नसीरुद्दीन शाह ने क्यों लिखा भारत में ही हमारा भविष्य?

पढ़ें इस रविवार गिरीश कुबेर, नसीरुद्दीन शाह, अदिति फडणीस, संजय हेगड़े और करन थापर के विचारों का सार.

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उल्टी पड़ी फडणवीस की चाल

गिरीश कुबेर इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि पंडित जवाहरलाल नेहरू और वल्लभ भाई पटेल भाषाई आधार पर राज्य बनाए जाने के खिलाफ थे. आरएसएस का भी रुख यही था. कांग्रेस के खिलाफ विभिन्न दलों का मोर्चा भी पहली बार महाराष्ट्र में ही बना जब संयुक्त महाराष्ट्र समिति अस्तित्व में आयी थी. 1950 में आंध्र प्रदेश की मांग करते हुए भूख हड़ताल कर रहे पोट्टी श्री रामुलु की मौत के बाद नेहरू को अपने रुख में बदलाव करना पड़ा. 1956 में राज्य पुनर्आयोग की अनुशंसा पर द्विभाषी बॉम्बे स्टेट का निर्माण हुआ.

गिरीश लिखते हैं कि मुख्य रूप से उत्तर भारतीय राज्यों में बोली जाने वाली हिंदी, भगवा खेमे के ‘राष्ट्र निर्माण’ के भव्य डिजाइन का केंद्र बनी हुई है, जो एक राष्ट्र, एक धर्म और एक भाषा की वकालत करता है. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने राजनीतिक प्रयोग किया. प्राथमिक स्तर से स्कूल शिक्षा में हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में लाने की कोशिश की. यह कदम उल्टा पड़ गया. लेकिन, इस प्रक्रिया में विपक्ष एकजुट हो गया.

एक बार फिर साठ के दशक की तरह हिंदी का मुद्दा राजनीतिक सीमाओं को पार कर गया है और यह महाराष्ट्र बनाम दिल्ली की ताकत का रूप ले चुका है. साठ के दशक में, संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन का परिणाम कांग्रेस की बाद की चुनावों में हार थी. क्या बीजेपी के साथ भी इतिहास दोहराया जाने वाला है?

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नसीरुद्दीन शाह ने क्यों लिखा भारत में ही हमारा भविष्य?

नसीरुद्दीन शाह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि उनका बचपन रूढ़ीवादी मुस्लिम घर, रोमन कैथोलिक स्कूल और जैसुइट क्रिश्चियन स्कूल के बीच बंटा हुआ बीता है. हर व्यवस्था ने उन्हें वो सबकुछ दिया जो दे सकते थे लेकिन वे स्वयं किसी एक व्यवस्था के प्रति समर्पित नहीं हुए. हिंदी फिल्मों की गुणवत्ता की आलोचना करने पर आप “कृतघ्न” हो जाते हैं, शांति और भाईचारे की अपील करने पर आप “देशद्रोही” कहलाते हैं, यह शिकायत कि भारतीय ट्रैफिक सिग्नल का पालन नहीं करते, आपको सलाह दी जाती है कि आपको कहां जाना चाहिए, किसी सह-कलाकार के लिए बोलना “देश के खिलाफ बोलना” बन जाता है.

नसीरुद्दीन लिखते हैं कि जो कुछ भी थोड़ा सा आलोचनात्मक है, उसे ‘राष्ट्र-विरोधी’ लगने के लिए तोड़-मरोड़ दिया जाता है. टीवी धारावाहिक अनुपमा में मुख्य भूमिका निभाने वाला अभिनेता तीखे ढंग से पूछता है कि क्या पाकिस्तान “भारतीय कलाकारों को वहां प्रदर्शन करने की अनुमति देता है?” यह जाने बिना कि वे न केवल हमें अनुमति देते हैं, बल्कि हमारा स्वागत करते हैं और सम्मान करते हैं. तो क्या भारत में नुसरत फतेह अली खान, मेहदी हसन, या फरीदा खानम को सुनने वाला हर व्यक्ति देशद्रोही है?

जाहिर है, केवल प्रधानमंत्री ही सीमा पार जाकर अपने समकक्ष को गले लगा सकते हैं. हमारे जैसे साधारण लोगों के लिए ऐसा करना पाप है. क्या पाकिस्तान के हर नागरिक को उनकी सरकार (पढ़ें, सेना) के कार्यों के लिए नफरत करना हमारे लिए किसी तरह लाभकारी है? या, यह केवल किसी जंगली प्रवृत्ति को संतुष्ट करता है? नसीरुद्दीन लिखते हैं कि उनके पिता ने पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया, जब उनके भाई चले गए. उन्हें यकीन था कि भारत में हमारे लिए एक भविष्य है, जैसा कि मुझे लगता है कि मेरे बच्चों के लिए है. यह एक ऐसा सपना है जिसे छोड़ा नहीं जा सकता.

कर्नाटक में सत्ता के लिए खुला संघर्ष

अदिति फडणीस ने बिजनेस स्डैंडर्ड में लिखा है कि देश के राजनीतिक इतिहास में ऐसी किसी दूसरी घटना को याद करना मुश्किल है जहां एक उपमुख्यमंत्री ने सार्वजनिक रूप से अपने समर्थकों से कहा हो कि उसके पास मुख्यमंत्री को पद पर बने रहने देने के सिवा कोई विकल्प नहीं है. डीके शिवकुमार ने इस सप्ताह के आरंभ में ऐसा ही किया.

सरकार और पार्टी की प्राथमिक चिंताओं में शासन संबंधी पहलें या अधोसंरचना निर्माण नहीं बल्कि सिद्धरमैया का उत्तराधिकारी तय करना सबसे आगे नजर आ रहा है. फिलहाल सिद्धरमैया के सामने सबसे बड़ी चुनौती येदियुरप्पा नहीं बल्कि डीके शिवकुमार हैं.

अदिति लिखती हैं कि सिद्धरमैया जहां समाजवादी विचारधारा से कांग्रेस में आए वहीं शिवकुमार हमेशा से कांग्रेस में ही रहे हैं. डीके शिवकुमार ने कॉलेज के दिनों में युवा कांग्रेस की सदस्यता ली थी. वह 1983 से 1985 के बीच युवा कांग्रेस के महासचिव भी रहे. 31 साल की उम्र में डीके शिवकुमार राज्य के सबसे युवा मंत्री बने. 1991 से 1992 तक वह एस बंगारप्पा सरकार में वे मंत्री पद पर रहे. परंतु अब तक उनके पास पर्याप्त संसाधन एकत्रित हो चुके थे. रिकॉर्ड बताते हैं कि 2023 में उनके पास 1,400 करोड़ रुपये की संपत्ति थी.

अदिति लिखती हैं कि जहां पैसे से बहुत सारी चीजें खरीदी जा सकती हैं, वहीं इससे हमेशा नेतृत्व नहीं खरीदा जा सकता है. कर्नाटक की राजनीति पर नजर रखने वाले कहते हैं कि जहां शिवकुमार के पास राजनीतिक प्रभाव है, वहीं सिद्धरमैया के पास विधायकों ​के बीच समर्थन है. 
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अमेरिका में आजादी के ढाई सौ साल

संजय हेगड़े ने द हिन्दू में लिखा है कि अमेरिकी की आजादी के करीब ढाई साल 4 जुलाई को पूरे हो गये. अमेरिकी जनता ने यह संकल्प लिया था कि वे राजाओं के अधीन नहीं कानून के अधीन रहेंगे. उन्होंने लोगों के प्रति जवाबदेह सरकार बनाने के लिए संघर्ष किया. लेखक ने अमेरिका के संघीय जज जे माइकल लटिंग को उद्धृत किया है जिन्होंने गंभीर चेतावनी देते हुए लिखा है कि 1776 के आदर्श स्वयं को बनाए नहीं रखते. जज लटिंग के आधुनिक ’27 सत्य’ अमेरिकियों को याद दिलाते हैं कि स्व-शासन की गारंटी न तो कागज पर लिखे शब्दों से होती है और न ही परंपराओं से. इसे हर दिन बचाना होता है.

संजय लिखते हैं कि जज लटिग के “27 सत्य,” स्वतंत्रता की घोषणा में सूचीबद्ध 27 शिकायतों की प्रतिध्वनि हैं जो सतर्कता का स्पष्ट आह्वान करते हैं. लटिंग लिखते हैं कि संविधान कोई अवशेष नहीं है, बल्कि एक जीवंत समझौता है जो सक्रिय संरक्षण की मांग करता है. उनका संदेश स्पष्ट है “1776 के सिद्धांत—स्वतंत्रता, समानता, और जवाबदेही—को बनाए रखने के लिए निरंतर प्रयास की आवश्यकता है.”

स्वतंत्रता की घोषणा केवल निरंकुशता से अलगाव नहीं थी, बल्कि एक ऐसी समाज के लिए एक खाका थी जहां सत्ता लोगों के प्रति जवाबदेह हो. फिर भी, जैसा कि जज लटिंग जोर देते हैं, यह खाका स्वयं निष्पादित नहीं होता. इसके लिए नागरिकों को वोट देने, बोलने, और स्वतंत्रता की रक्षा करने वाली संस्थाओं की रक्षा करने की आवश्यकता है. संस्थापकों की विरासत कोई ऐसा उपहार नहीं है जिसे हल्के में लिया जाए, बल्कि एक जिम्मेदारी है जिसे आज, कल, और आने वाली पीढ़ियों के लिए पूरा करना है.

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विंबलडन शुरू, टेनिस देखने का समय

करन थापर हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखते हैं कि उन्होंने क्रिकेट को पसंद करने की बहुत कोशिश की, लेकिन वे सफल नहीं हुए. यह लंबा चलता है. ज्यादातर समय कुछ भी नहीं होता या बहुत कम होता है. ब्रिटेन के पूर्व उपनिवेशों को छोड़कर कोई भी देश इस खेल को समझता नहीं दिखता. अमेरिका और कनाडा अपवाद हैं. वहीं टेनिस् बहुत अलग है. सर्व से लेकर रैली तक यह लगातार रोमांचक है. एक मैच शायद ही कभी तीन घंटे से अधिक चलता है. जब यह आगे बढ़ता है और पांच घंटे की ओर जाता है तो और भी रोमांचक हो जाता है. न्यूयॉर्क के हार्ड कोर्ट से लेकर रोलां गैरों के क्ले कोर्ट तक टेनिस वैश्विक भाषा बन चुका है.

करन थापर विंबलडन को शानदार टेनिस से इतर सामाजिक आयोजन भी बताते हैं. ब्रिटिश उद्योग पूरा मनोरंज कराता है. अभिजात वर्ग के लोग यहां मिलते हैं, सौदे तय होते हैं और टेनिस एक आकर्षक पृष्ठभूमि के रूप में कार्य करता है. क्रिकेट या फुटबॉल की तुलना में टेनिस टेलीविजन के लिए अधिक बनाया गया लगता है. कैमरा खेल के हर पहलू को कैद करता है. गेंद का घुमाव, खिलाड़ी का तीव्र ध्यान वगैरह-वगैरह. खिलाड़ी के पसीने से तरह चेहरे का क्लोज अप या फोर हैंड का स्लो मोशन रीप्ले टेनिस को भव्य बनाता है.

टेनिस घास, क्ले और हार्ड कोर्ट पर खेल जाता है. प्रत्येक सतह पर लग-अलग कौशल और रणनीतियों की मांग होती है. यह विविधता खेल को ताजा रखती है. लेखक बताते हैं कि क्रिकेट के साथ उनका संघर्ष केवल इसकी गति या जटिलता के बारे में नहीं है. यह जुड़ाव के बारे में है. लेखक भरोसा दिलाते हैं कि वे क्रिकेट को प्यार करने की कोशिश करते रहेंगे लेकिन अभी के लिए कोर्ट के नजदीक अगले ‘एस’ के लिए उत्साह बढ़ाने को तत्पर हैं.

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