उत्तर प्रदेश की उलझन सुलझाने के कुछ ही घंटों के अंदर, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने नितिन नबीन के रूप में अपने नए वर्किंग प्रेसिडेंट का ऐलान कर दिया- इस कदम से दिल्ली में कई लोग हैरान रह गए. इन हलकों में नबीन कोई जाना-पहचाना नाम नहीं हैं और वह प्रचलित छवि में भी फिट नहीं बैठते, जिससे साफ है कि भगवा पार्टी ने रीबूट बटन दबा दिया है. 45 वर्ष की उम्र में नबीन न सिर्फ युवा हैं, बल्कि दिल्ली की “दूषित राजनीतिक हवा” से भी अब तक अछूते रहे हैं.
नितिन नबीन ही क्यों?
1980 में जन्मे नबीन, उसी साल बीजेपी की स्थापना हुई थी, पिता के निधन के बाद कम उम्र में ही राजनीति के भंवर में आ गए. उनके पिता नबीन प्रसाद सिन्हा खुद को सुशील कुमार मोदी की कतार का नेता मानते थे, क्योंकि उन्होंने 1995 में लालू प्रसाद यादव के उभार के चरम दौर में पटना पश्चिम विधानसभा सीट से जीत हासिल की थी. पांच साल बाद उन्होंने फिर से चुनाव जीता. नबीन को अपने पिता से राजनीतिक विरासत मिली, पहले तो वह सहानुभूति लहर में जीते लेकिन बाद में उन्होंने खुद को एक ऐसे नेता के रूप में स्थापित किया जो आसानी से मिल जाता था और अपने इलाके का अच्छे से ख्याल रखता था.
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उनमें एक भरोसेमंद सिपहसालार देखा जो उनके प्रमुख राजनीतिक लक्ष्य- “पूरे राज्य के हर कोने को छह घंटे की सड़क यात्रा में पटना से जोड़ने” को अमल में ला सके. नबीन, नीतीश के लिए एक काबिल स्टूडेंट भी साबित हुए.
नीतीश कैबिनेट में रोड मिनिस्टर के तौर पर, नबीन की इमेज एक ऐसे परफॉर्मर की बनी जिन पर करप्शन के दाग नहीं लगे. इसे प्रशांत किशोर का भी इनडायरेक्ट सपोर्ट मिला, जिन्होंने जब बीजेपी के मंत्रियों पर करप्शन का आरोप लगाया, तो नबीन को टारगेट नहीं किया.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के “बिहार विकास एजेंडे” में सड़कें सबसे अहम आधार हैं. इस मोर्चे पर नबीन पहले ही बीजेपी के उस एक नेता की नजर में अपनी खास पहचान बना चुके थे, जो फिलहाल पार्टी में सबसे ज्यादा मायने रखते हैं.
इसके अलावा, बिहार में बीजेपी युवा मोर्चा का नेतृत्व करते हुए नबीन ने एक प्रभावी टीम खिलाड़ी के रूप में भी अपनी साख बनाई.
RSS ने “बीजेपी रीबूट” योजना पर फिर से विचार किया
कई साल पहले, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) ने “बीजेपी को D3 (दिल्ली के तीन बड़े BJP नेताओं) के ग्रुप से आजाद करने” के लिए एक बड़ा कदम उठाया था. उस समय आरएसएस ने बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व पर दबाव डालकर नितिन गडकरी को पार्टी का अध्यक्ष बनवाया था.
आरएसएस का मानना था कि बीजेपी को ऐसे नेतृत्व की जरूरत है जो दिल्ली की “दूषित राजनीतिक हवा” के संपर्क में न आया हो. उसका तर्क था कि कोई बाहरी नेता बीजेपी पर दिल्ली की पकड़ को ढीला कर सकता है और पार्टी को भविष्य के लिए तैयार कर सकता है.
अपने छोटे से कार्यकाल में गडकरी ने कई तरह के प्रयोग किए, जिनका दायरा आज और भी व्यापक हो चुका है. डिजिटल पहल, प्रवासी भारतीयों से जुड़ाव, थिंक टैंक वाला दृष्टिकोण और कुछ अन्य प्रयास- इन सब पर बीजेपी में गडकरी की छाप साफ दिखाई देती है.
लेकिन आरएसएस को यह आभास होने लगा कि उसका मिशन अधूरा रह गया. पार्टी अध्यक्ष रहते हुए गडकरी पर उनके निजी कारोबार से जुड़े वित्तीय अनियमितताओं के आरोप लगे. आरएसएस को पता चल गया कि उसके प्रयोग को साजिश के तहत विफल किया जा रहा था. अंततः 2013 में गडकरी ने पद छोड़ दिया. इसके बाद दिल्ली का एक जाना-पहचाना चेहरा पार्टी अध्यक्ष बना- वह थे राजनाथ सिंह, जो एलके आडवाणी के शिष्य और बीजेपी में बदलते राजनीतिक हालात के साथ आसानी से अपनी निष्ठा बदलने के लिए जाने जाते हैं.
RSS को एहसास हुआ कि BJP को फिर से खड़ा करने की उसकी कोशिश न सिर्फ नाकाम रही, बल्कि उसके राजनीतिक असर को कम करने की कोशिशें भी शुरू हो गईं- जैसा कि 2024 लोकसभा चुनावों के दौरान हुआ, जो सब जानते हैं.
2024 के नतीजों ने BJP को असलियत का एहसास कराया, और इसके बाद सत्ता संघर्ष का समाधान भी सामने आया- प्रधानमंत्री और आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने एक साझा उद्देश्य पर सहमति जताई: चुनाव जीतकर राजनीतिक और वैचारिक विस्तार करना और बीजेपी को नए सिरे से मजबूत करना.
नबीन अब RSS के नए गडकरी हैं, जिन पर दिल्ली की कोई छाप नहीं है और दिल्ली की सत्ता की राजनीति का कोई असर नहीं है.
यह कहकर कुछ लोग आसानी से नबीन को अमित शाह का आदमी बता सकते हैं कि उन्हें छत्तीसगढ़ में चुनाव प्रभारी बनाकर भेजा गया था, लेकिन असली नजर शायद केंद्रीय गृह मंत्री की उस “किचन कैबिनेट” पर है, जो सालों से बीजेपी के टॉप पोस्ट के लिए तरस रहे थे, लेकिन RSS के टेस्ट में फेल हो गए.
बीजेपी की चुनावी मशीनरी में कई ऐसे नबीन हैं, जिन्हें चुनावों की निगरानी के लिए राज्यों में भेजा जाता है, और उन्हें बहुत आसानी से “अमित शाह का आदमी” करार दे दिया जाता है. लेकिन राजनीतिक दिखावे की इस सुविधा से परे एक कड़वा सच यह है कि मोदी और भागवत बीजेपी को नए सिरे से रीबूट कर रहे हैं और आने वाले सालों में दिल्ली के कई जाने-पहचाने चेहरे गुमनामी में जा सकते हैं.
मोदी नबीन को जानते हैं- क्या भागवत को उनके बारे में पता है?
चुनावी तारीखों की घोषणा से काफी पहले ही प्रधानमंत्री बिहार में चुनावी अभियान शुरू कर चुके थे और तब तक वे राज्य के लगभग पचास दौरे कर चुके थे. इसके बाद वे साप्ताहिक रूप से बिहार आते रहे और फिर तो लगभग रोजाना ही वहां रहने लगे. इस तरह कहा जा सकता है कि मोदी बिहार को बहुत अच्छी तरह जानते हैं- शायद गुजरात के बाद सबसे ज्यादा.
भागवत बिहार को शायद मोदी से भी बेहतर जानते हैं. जब वे “प्रांत प्रचारक (आरएसएस के क्षेत्रीय प्रमुख)” थे, तब उन्होंने बिहार में कई साल बिताए थे. आज भी बिहार दौरे के दौरान भागवत आरएसएस कार्यकर्ताओं से मिलते हैं- जो उस समय बच्चे थे और अब बड़े हो चुके हैं-और उन्हें उनके बचपन के उपनामों से संबोधित करते हैं.
यह तर्क दिया जा सकता है कि भारतीय राजनीति में भागवत की प्रशिक्षण-दीक्षा बिहार की राजनीतिक प्रयोगशाला में ही हुई. इससे यह स्पष्ट होता है कि भागवत नबीन को उनके बचपन के दिनों से जानते होंगे. यह उल्लेख करना भी महत्वपूर्ण है कि भागवत के बिहार कार्यक्षेत्र का केंद्र पटना था.
आरएसएस अगले 20 वर्षों की योजना बनाकर काम करता है. प्रधानमंत्री की राजनीतिक सोच भी दूरगामी भविष्य पर केंद्रित रहती है. नबीन की मुख्य जिम्मेदारी बीजेपी में एक तरह की सर्जरी करना होगी- यानी पार्टी को बोझिल बना रहे अतिरिक्त “फैट” को हटाना.
देश के पूर्वी हिस्से से पहली बार कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर नरेंद्र मोदी और आरएसएस ने साफ कर दिया है कि अब बीजेपी का फोकस पूर्व की ओर विस्तार पर है. बिहार में मिली बड़ी जीत ने बीजेपी को यह आत्मविश्वास दिया है कि वह पश्चिमी क्षेत्रों की तरह पूर्वी भारत में भी वैचारिक बढ़त स्थापित करे- बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और पूर्वोत्तर जैसे राज्यों में. इस तरह मोदी और भागवत ने भविष्य को ध्यान में रखते हुए बीजेपी के रीबूट की पटकथा लिख दी है.
