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"महाबोधि मंदिर पर हिंदुओं का नियंत्रण क्यों"-बौद्ध भिक्षुओं की मांग और कुछ सवाल

बोधगया टेम्पल एक्ट 1949 के विरोध में बौद्ध भिक्षुओं का 12 फरवरी से अनिश्चितकालीन आंदोलन जारी

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"महाबोधि मंदिर पर ब्राह्मणों का कब्जा है और हमारी मांगों को लगातार नजरअंदाज किया जा रहा है. हमारे आंदोलन को भी किनारे लगाने की कोशिश की जा रही है."

ये कहना है बौद्ध भिक्षु आकाश लामा का. आकाश की तरह ही करीब 30 बौद्ध भिक्षु बिहार के बोधगया के दोमुहान में 12 फरवरी से आंदोलन कर रहे हैं. इनके हाथों में तख्तियां है जिनमें लिखा है बोधगया टेंपल एक्ट 1949 खत्म हो. BTMC के सभी मेम्बर बौद्ध हों. बीआर आंबेडकर और भगवान बुद्ध की तस्वीरें लिए ये करीब एक महीने से आंदोलन कर रहे हैं. द क्विंट ग्राउंड पर पहुंचा और बौद्ध भिक्षुओं से बात की. इनकी मांग क्या है और सरकार पूरी क्यों नहीं कर पा रही है? एक महीने से चल रहा आंदोलन किस स्थिति में है?

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"सिर्फ मंदिर की बात नहीं, हमारी पहचान का सवाल है"

पटना से 118 किमी. दूर बोधगया में आंदोलन स्थल पर द क्विंट की टीम 4 मार्च को पहुंची. पहली नजर में यह जगह एक प्रदर्शन स्थल से ज्यादा एक उपेक्षित कोना लगी. धूल भरी हवा, बिखरे हुए प्लेकार्ड्स और कुछ सूखे खाद्य पदार्थों के साथ बैठे ये भिक्षु अपने आंदोलन को जारी रखे हुए हैं. उनके पास पर्याप्त सुविधाएं भी नहीं दिखीं. प्रशासन की तरफ से उपलब्ध कराए गए आंदोलन स्थल से नाराज ऑल इंडिया बुद्धिस्ट फोरम के जनरल सेक्रेटरी आकाश लामा ने कहा,

"यह सिर्फ एक मंदिर का सवाल नहीं है, यह हमारी पहचान और गौरव का सवाल है. हम शांति से अपनी मांग रख रहे हैं. जब तक हमें सरकार की तरफ से कोई लिखित आश्वासन नहीं मिलता, यह प्रदर्शन अनिश्चितकाल तक जारी रहेगा."

"हम महाबोधि मंदिर को गैर-बौद्ध वर्ग के नियंत्रण से मुक्त कराना चाहते हैं"

बौद्ध धर्म के सबसे पवित्र तीर्थ स्थलों में से एक बिहार के बोधगया में महाबोधि मंदिर है. आकाश लामा ने कहा, "हम महाबोधि मंदिर को ब्राह्मणों और गैर-बौद्ध वर्ग के नियंत्रण से मुक्त करने की मांग को लेकर 12 फरवरी से आंदोलन कर रहे हैं."

बता दें कि महाबोधि मंदिर के प्रबंधन के लिए BTMC यानी बोधगया टेंपल मैनेजमेंट कमेटी है. इस वक्त कमेटी में 4 हिंदू और 4 बौद्ध और डीएम अध्यक्ष होते हैं. ये 1949 से चला आ रहा है. इसे ही BT एक्ट कहते हैं, जिसे खत्म कर कमेटी में सिर्फ बौद्धों के रखे जाने की मांग है.

बोधगया टेंपल वेबसाइट के मुताबिक, अभी कमेटी में कुल 7 मेंबर हैं, जिसमें 4 बौद्ध और 3 हिंदू हैं.

बिहार के औरंगाबाद से आए श्रवण आनंद पिछले 15 दिनों से आंदोलन में शामिल हैं. उन्होंने वजह बताई कि कमेटी में सिर्फ बौद्ध को रखने की मांग क्यों है. उन्होंने द क्विंट से कहा,  

"बुद्ध पूरी दुनिया को शांति का संदेश दिए हैं, लेकिन यहां पंडित लोग रात-दिन ढ़ोल-मंजीरा बजा कर हल्ला करते रहते हैं, यह जगह बौद्धों भिक्षुओं के लिए साधना करने लायक नहीं रह गई है. सरकार को बोधगया टेम्पल एक्ट जैसे काले कानून को रद्द कर इसका प्रबंधन बौद्धों को सौंपना चाहिए."

आकाश लामा ने तो महाबोधि मंदिर का ब्राह्मणीकरण करने का आरोप लगाया. उन्होंने कहा, महाबोधि महाविहार का ब्राह्मणीकरण किया जा रहा है. मंदिर के प्रबंधन और अनुष्ठानों में ब्राह्मणवादी प्रथाओं का प्रभाव बढ़ रहा है, जिससे बौद्ध समुदाय की आस्था और विरासत को गहरी ठेस पहुंची है.

"पंडित पर्यटकों को महामाया की मूर्ति को अन्नपूर्णा देवी और बुद्ध की मूर्ति को पांडव बताते हैं. वहीं दीपक रखने की जगह को छेनी से खोद-खोदकर शिवलिंग का आकार दिया जा रहा है."

बोधगया टेंपल मैनेजमेंट कमेटी के मेंबर रहे बौद्ध भिक्षु प्रज्ञाशील कहते हैं, "BTMC में हिंदुओं की मेजॉरिटी है और मंदिर के सारे स्टाफ मेंबर हिंदू हैं जिसकी वजह से हमेशा पूजा-पाठ को लेकर विवाद होते रहता है. मेरे समय में भी कई बार विवाद हुआ."

प्रज्ञाशील आगे कहते हैं, "दरअसल, मंदिर में अपने आप को ब्राह्मण बताने वाले लोगों का मकसद सिर्फ पद और डोनेशन से मिलने वाली संपत्ति हड़पना होता है."

आंदोलनकारियों के आरोपों पर BTMC ने क्या कहा?

"आंदोलनकारी झूठे आरोप लगा रहे हैं. कमेटी में हम (हिंदू) अल्पमत में हैं. BTMC में चार हिंदू और चार बौद्ध होने चाहिए, लेकिन अभी दो ही हिंदू हैं, जबकि सेक्रेटरी समेत कुल चार बौद्ध हैं. ये पहली बार ऐसा हुआ है जब कमेटी में बौद्धों का बहुमत है." आंदोलनकारियों के आरोपों पर BTMC मेंबर अरविंद कुमार सिंह ने द क्विंट को बताया.

बौद्ध मूर्तियों को हिंदू मूर्ति बताने के आरोपों पर अरविंद कहते हैं, "जो भी वहां शिवलिंग या हिंदू देवता की मूर्ति है, सब हजारों साल पहले की हैं. वर्तमान में किसी का दम नहीं है कि कोई किसी मंदिर की मूर्ति को छेड़छाड़ कर सके. वहां एक पुजारी सिर्फ शिवलिंग की पूजा के लिए है."

अरविंद आगे कहते हैं, "बौद्धगया में किसी को कोई मतलब नहीं है. हम सभी BTMC मेंबर का आपस में काफी अच्छा सामंजस्य है. आंदोलन करने वाले सभी लोग दार्जिलिंग और नागपुर के हैं. इन लोगों को मंदिर से कोई मतलब नहीं है. इनका सिर्फ एक ही मकसद है कि आंदोलन को जिंदा रखकर उसके नाम पर चंदा लेना."

आंदोलन पर सरकार क्या कह रही है?

आंदोलनकारियों का कहना है कि उनकी तरफ से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखकर बातचीत के लिए समय मांगा गया. वहीं राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग से तीन बार बातचीत हुई है. 27 फरवरी को बिहार सरकार के गृह मंत्रालय ने आंदोलनकारियों को बातचीत के लिए बुलाया था. बैठक में शामिल ऑल इंडिया बुद्धिस्ट फोरम के जनरल सेक्रेटरी आकाश लामा ने बताया,

"गृह मंत्रालय के एडिश्नल सेक्रेटरी अनिमेश पांडे ने हमसे एक हफ्ते का समय मांगा है. उन्होंने हमसे अनशन खत्म कर बातचीत करने का अनुरोध किया है, लेकिन जबतक हमें कोई लिखित आश्वासन नहीं मिलता, अनशन खत्म नहीं होगा."
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महाबोधि मंदिर आंदोलन का इतिहास

ऐसा नहीं है कि ये मांग पहली बार उठ रही है. ये विवाद 19वीं सदी में ही शुरू हो गया था. हालांकि तब BT एक्ट नहीं था. लेकिन महाबोधि मंदिर में तब भी बौद्ध धर्म के लोगों को पूर्ण अधिकार नहीं था. आकाश लामा ने बताया, श्रीलंका के अनगारिक धर्मपाल नाम के एक बौद्ध भिक्षु ने 1891 में अपनी भारत यात्रा के दौरान पहली बार महाबोधि मंदिर पर बौद्धों के अधिकार की मांग उठाई. उस समय मंदिर पर बोधगया मठ का अधिकार था.

1922 में गया में कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन के दौरान बौद्ध भिक्षुओं ने फिर यह मुद्दा उठाया. आकाश लामा कहते हैं, "महात्मा गांधी ने उस समय कहा कि आजादी के बाद मंदिर बौद्धों को सौंप दिया जाएगा. लेकिन आजादी के बाद 1949 में बोधगया टेंपल एक्ट लागू कर मंदिर का प्रबंधन एक नौ सदस्यीय कमेटी को सौंप दिया गया, जिसमें हिंदुओं का बहुमत है."

1992 में भी अखिल भारतीय महाबोधि महाविहार मुक्ति आंदोलन समिति ने मंदिर का प्रबंधन बौद्धों को सौंपने की मांग उठाई थी. इस आंदोलन में अखिल भारतीय भिक्षु महासंघ और बुद्धिस्ट सोसाइटी ऑफ इंडिया भी शामिल थे. हालांकि यह आंदोलन ज्यादा दिनों तक नहीं चल सका.

1995 में बोधगया में 85 दिनों तक चले प्रदर्शन के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने आंदोलनकारियों को बोधगया टेंपल मैनेजमेंट कमेटी में शामिल कर आंदोलन को शांत कराया. तब उन्होंने आंदोलनकारियों से कहा था कि 'सिस्टम' के अंदर रहकर अपनी मांगों को पूरा करिए. फिलहाल अनशन पर बैठे बौद्ध भिक्षु प्रज्ञाशील उस वक्त BMTC में शामिल हो गए थे. वे समिति में अपने कार्यकाल के दौरान अलग-अलग पदों पर रहे.

प्रज्ञाशील कहते हैं, "1995 में तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने बौद्धों को हक दिलाने की कोशिश तो की थी लेकिन वोट बैंक नाराज न हो जाए इसलिए कानून में बदलाव के बारे में नहीं सोचा."

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