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आजमगढ़: देवरांचल की बाढ़, जब हर साल 3 महीने बांध पर गुजारनी पड़ती है जिंदगी

आजमगढ़ की बाढ़: वह इलाका जहां हर साल लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ता है- ग्राउंड रिपोर्ट

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उत्तर प्रदेश की राजनीति में आज़मगढ़ का नाम एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है. लेकिन यहां एक ऐसा क्षेत्र है जो राजनीति से ज्यादा बाढ़ की वजह से ज्यादा जाना जाता है. नाम है देवारांचल. यहां जीवन का संघर्ष हर साल एक ही चक्र में घूमता है – बाढ़, विस्थापन, और फिर नए सिरे से जीवन की शुरुआत. यहां सरकारों के वादे, नेताओं के दौरे और बदलते राजनीतिक समीकरण कोई मायने नहीं रखते, क्योंकि यहा के लोगों की किस्मत में हर साल सिर्फ पानी और निराशा लिखी है. क्विंट हिंदी की लोकसभा चुनाव 2024 के दौरान यहां से ग्राउंड रिपोर्ट की थी, जो आज़मगढ़ के देवारांचल की उसी कड़वी सच्चाई को उजागर करती है, जहां बाढ़ अब जिदगी का हिस्सा बन गई है. उस ग्राउंड रिपोर्ट को फिर से पब्लिश कर रहे हैं.

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आजमगढ़ का देवारा गांव, जहा हर साल होता है लोगों का विस्थापन

घाघरा नदी के उफान की वजह से आजगमढ़ के देवारा गांव में हर साल तबाही आती है. द क्विंट के रिपोर्टर विकास कुमार बताते हैं कि साल के लगभग चार महीने यह पूरा इलाका पानी में डूबा रहता है. यह कोई सामान्य जलभराव नहीं, बल्कि जीवन को ठप कर देने वाली भीषण बाढ़ है. इस वजह से यहां के घरों की बनावट भी अलग है. यहां घरों को लोग मिट्टी के ऊंचे टीलों पर बनाते हैं.

ग्रामीण विनय मिश्रा बताते हैं कि लोग टीले के ऊपर घर बनाकर रहने को मजबूर हैं. कई घरों में नावें रखी हुई हैं, जो बाढ़ के दिनों में परिवहन का एकमात्र साधन बन जाती हैं.

"बचपन से आज तक सिर्फ बाढ़ ही देखा"

धर्मेंद्र कुमार नाम के एक ग्रामीण का कहना है कि उन्होंने बचपन से लेकर आज तक जब से होश संभाला तब से हर साल बाढ़ देख रहे हैं. बाढ़ का सबसे बड़ा असर यहां की कृषि पर पड़ता है. धर्मेंद्र बताते हैं, "फसल पूरी तरह से बर्बाद हो जाती है". सितंबर से शुरू होकर नवंबर के अंत तक जब पानी कम होना शुरू होता है, तब तक खेतों में बोई गई या तैयार फसलें पूरी तरह से नष्ट हो चुकी होती हैं."

"कुछ खेत तो ऐसे ही खाली रह जाते हैं क्योंकि बाढ़ के कारण बुवाई संभव नहीं हो पाती. यह सीधे तौर पर किसानों की आजीविका पर चोट है, जिससे वे साल-दर-साल गरीबी के दलदल में धंसते चले जाते हैं."

सरकारी वादे और कड़वी हकीकत: "नेता वोट के लिए आते हैं, मरते वक्त कोई नहीं"

बाढ़ सिर्फ घरों और फसलों को ही नहीं डुबोती, बल्कि लोगों के विश्वास को भी डुबो देती है. एक महिला ग्रामीण का कुछ ऐसा ही डूबा हुआ विश्वास झलकत है. उन्होंने कहा, "वोट के लिए सब आ जाते हैं, लेकिन जब हम बाढ़ में तबाह होते हैं. मर रहे होते हैं तो कोई पूछने के लिए नहीं आता."

"अचानक घरों से रातों-रात विस्थापित होना पड़ता है"

देवरा के रहने वाले धर्मेंद्र बताते हैं, अचानक से पानी का लेवल बढ़ता है, 2-3 घंटे में हम लोगों को सामान लेकर निकलना पड़ता है. रातों-रात घाघरा नदी का उफान जीवन को अस्त-व्यस्त कर देता है.

स्थानीय पत्रकार वसीम अकरम कहते हैं, जब नेपाल या अन्य जगहों से नदियों का पानी छोड़ा जाता है, तो घाघरा नदी उफान पर आ जाती है. ऐसी आपात स्थिति में सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जाने वाली सहायता भी नाकाफी होती है.

ग्रामीण धर्मेंद्र बताते हैं कि सरकार कुछ नावें तो उपलब्ध कराती है, लेकिन वे जरूरत के हिसाब से पर्याप्त नहीं होतीं. ऐसे में लोग अपनी जान बचाने के लिए एकमात्र सहारा- ऊंचे बांधों पर शरण लेने को मजबूर हो जाते हैं.

बांधों पर जीवन, 2-3 महीने की खानाबदोशी

ग्रामीण विनय मिश्रा बताते हैं, "लोग 2-3 महीने घर छोड़कर बांध पर ही रहते हैं. यह कोई छोटा-मोटा शिविर नहीं, बल्कि तीन महीने का एक खानाबदोश जीवन होता है. परिवार, बच्चे, और जानवर – सब कुछ लेकर लोग बांधों पर अस्थायी झोपड़ियां डालकर रहते हैं. यहां न पीने के पानी की उचित व्यवस्था होती है, न शौचालय की, और न ही बच्चों की शिक्षा की.

"जब बाढ़ का पानी घटता है, तो लोग अपने घरों को लौटते हैं, जो अक्सर टूट चुके होते हैं."

महिला ग्रामीण बताती है, "घर गिर जाता है, फिर सब अनाज-पानी, जो गिरा पड़ा है, सुखाते हैं. फिर से घर बसाना होता है. यह चक्र हर साल दोहराया जाता है, और इसमें उनकी मेहनत और जीवन भर की बचत बह जाती है.

स्थानीय पत्रकार वसीम अकरम इस बात पर जोर देते हैं कि यहां छोटी जातियों की कोई सुनवाई नहीं होती. सुनवाई बड़े लोगों की होती है. जब प्राकृतिक आपदा आती है, तो सबसे ज़्यादा हाशिए पर पड़े और वंचित समुदाय ही प्रभावित होते हैं, और उनकी आवाज अक्सर अनसुनी रह जाती है.

"पिछली बार की बाढ़ के दौरान पूरा क्षेत्र जलमग्न था. लोग बार-बार अपील कर रहे थे कि उन्हें बाढ़ग्रस्त घोषित किया जाए, लेकिन उनकी यह मांग पूरी नहीं की गई. बाढ़ग्रस्त घोषित होने से उन्हें सरकारी सहायता और पुनर्वास योजनाओं का लाभ मिल सकता था, लेकिन यह भी उनसे छीन लिया गया. यह दर्शाता है कि कैसे प्रशासनिक लापरवाही और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी इन लोगों के जीवन को और भी मुश्किल बना देती है."

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