"हमारी आंखों पर पट्टी बंधी थी और हमारे हाथ बंधे हुए थे. हमें जहाज पर ले जाया गया. उन्होंने कहा कि वे हमें इंडोनेशिया ले जाएंगे, लेकिन हमें नाव पर ले जाया गया और दावेई के पास कहीं छोड़ दिया गया." - ये कहना है सज्जाद का, जोकि एक रोहिंग्या रिफ्यूजी हैं और इन्हें करीब 38 लोगों के साथ भारत से डिपोर्ट किया गया है.
अब आप एक और बयान पढ़िए-
"हमारी वसुधेव कुटुंबकम की धारणा काफी पुरानी है, भारत में सदा से हमारा विश्वास रहा है कि सारा संसार एक परिवार है." - 4 अक्टूबर 1977 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में अटल बिहारी वाजपेयी ने ये बयान दिया था. तब उन्होंने ये भी कहा था, "अंत में हमारी सफलता और असफलता एक ही मापदंड से मापी जानी चाहिए कि क्या हम पूरे मानव समाज, हर नर-नारी और बालक के लिए न्याय और गरिमा की गारंटी देने में प्रयत्नशील हैं."
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"मेरी बहन और उसकी बेटी को बदरपुर पुलिस स्टेशन बुलाया गया था. बताया कि उनका बायोमेट्रिक होना है. तब से वो दोनों नहीं लौटीं. जब बहन का कॉल आया तो पता चला की 38 रोहिंग्या को समुद्र में छोड़ दिया गया है." ये कहना है भारत में रह हे रोहिंग्या रिफ्यूजी मोहम्मद इस्माइल का.
अब सवाल यही तो है कि भारत के संसद की दीवारों से लेकर नेताओं और लोगों की जुबान पर बड़े गुरुर के साथ दौड़ने वाली लाइन वसुधैव कुटुम्बकम् क्या रोहिंग्या रिफ्यूजी के हिस्से में नहीं आती है?
आरोप है कि भारतीय अधिकारियों ने करीब 38 रोहिंग्या शरणार्थियों को हिरासत में लेकर, लाइफ जैकेट पहनाकर कथित तौर पर दक्षिणी म्यांमार के समुद्र में छोड़ दिया. जिसमें 16 साल से लेकर 63 साल के बुजुर्ग भी थे.
ऐसे में सवाल है कि अगर ये बातें सच हैं तो फिर 1977 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में दिए अटल बिहारी वाजपेयी के वसुधैव कुटुम्बकम् के दावों का क्या हुआ? ह्यूमन राइट्स का क्या हुआ? भारत की उस छवि का क्या जहां हम खुद को सूपर पावर की रेस में देखते हैं. क्या भारत अब रिफ्यूजी को लेकर अपना नजरिया बदल रहा है?