"कपड़े और रोटियां मिलीं मगर मसअला अभी भी है मकान का"- शायर इरशाद खान सिकंदर की यह पंक्ति उन परिवारों की कहानी बयान करती है, जिनके मकानों को तोड़ने के लिए नोटिस मिला हो या तोड़फोड़ की कार्रवाई का सामना कर रहे हों.
दिल्ली के जामिया नगर के बटला हाउस में भी हाल कुछ ऐसा ही है. उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग और दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) ने दावा किया है कि बाटला हाउस में कई लोगों ने सरकारी जमीनों का अतिक्रमण कर रखा है.
डीडीए ने बटला हाउस में मुरादी रोड पर करीब तीन एकड़ जमीन पर अपना दावा किया है और 15 दिन के अंदर मकान और दुकानें खाली करने का आदेश दिया था.
उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग ने खसरा नंबर 277 (खिजर बाबा कॉलोनी, मुरादी रोड और सेलिंग क्लब रोड) पर बने लगभग 80 मकानों और दुकानों को अवैध अतिक्रमण बताते हुए 22 मई 2025 को नोटिस जारी किया. इनमें से कई मकानों और दुकानों पर लाल निशान लगाए गए और 5 जून 2025 तक खाली करने का निर्देश दिया गया. विभाग का दावा है कि यह जमीन उनकी है और इस पर अवैध कब्जा किया गया है.
ऐसे में सवाल यह है कि जो लोग यहां सालों से रह रहे थे, उनका निर्माण अवैध कैसे हो गया? यदि यह अवैध था, तो फिर उन्हें यहां बसने क्यों दिया गया? इन्हीं सब सवालों के जवाब जानने के लिए हम बटला हाउस पहुंचे और लोगों से बात की.
मोहम्मद इस्लाम, बटला हाउस के निवासी कहते हैं,
"70-80 साल से हमारे पास जमीन के कागजात हैं, जिन किसानों से हमने यह जमीन खरीदी थी. पूरी कॉलोनी के पास कागजात हैं, बिजली का बिल, हाउस टैक्स, पानी का बिल—सारे दस्तावेज मौजूद हैं."
मोहम्मद इस्लाम अपने शुरुआती दौर की तस्वीरें दिखाते हुए कहते हैं, “यह सिंचाई विभाग की बाउंड्री है और यह हमारा घर है. जब मेरे वालिद साहब इस घर को बना रहे थे, ये उस वक्त की तस्वीरें हैं. करीब 40 साल पहले की ये तस्वीरें हैं.”
बटला हाउस के रहने वाले तमसिल बताते हैं,
“हमें सारी सुविधाएं दिल्ली सरकार दे रही है. सिंचाई विभाग को उनसे जाकर पूछना चाहिए कि ये सुविधाएं क्यों दी जा रही हैं. बिजली विभाग और दिल्ली जल बोर्ड से सवाल करना चाहिए कि जब यह कॉलोनी अवैध थी, तो उन्होंने पानी की लाइन क्यों बिछाई? दिल्ली एमसीडी से भी सवाल होना चाहिए कि उन्होंने अवैध कॉलोनी में सीवर क्यों लगाया? जब हमारा यह मकान बन रहा था, तब प्रशासन कहां था? जब चार मंजिला घर बन गया और लोगों को यहां रहते हुए 50-60 साल हो गए, तब इन्हें याद आया कि यह उनकी जमीन है? आज ये हमें उजाड़ने को तैयार हैं. हमें अपने हाल पर रोना आ रहा है. इस घर के अलावा हमारे पास रहने के लिए कोई दूसरा मकान भी नहीं है.”
तमसील कहते हैं, "पानी का बिल, गैस का बिल, आधार कार्ड, पासपोर्ट जैसे सभी दस्तावेज इसी मकान के पते पर हैं.”
"8 वाय 10 का कमरा 4 लाख रुपए में लिया था, अब क्या करें?"
8 बाय 10 के मकान में सिलाई का काम करने वाले एक निवासी कहते हैं, “मैंने यह जमीन तीन साल पहले 4 लाख रुपये में खरीदी थी, जिसकी कीमत आज 8 लाख रुपये है. कपड़े सिलकर मैं अपना गुजारा कर रहा हूं, क्योंकि अब मैं कहीं आ-जा नहीं सकता. इसी जगह को मैंने अपना घर और दुकान बना रखा है. अब इस पर भी नोटिस आ गया है. पता नहीं, अब यहां से कहां जाएं. हमारा तो छोटा-सा नुकसान है; हम मजदूर लोग हैं, सोच लेंगे. लेकिन उनका क्या होगा, जिन्होंने करोड़ों रुपये लगाकर घर बनाया है?”
इस मामले पर सचिदानंद सिन्हा, JNU के भूगोल एवं क्षेत्रीय विकास योजना के पूर्व प्रोफेसर कहते हैं, “ओखला के 250-300 परिवारों को निष्कासन का जो नोटिस मिला है, उससे बेहतर यह होता कि जन कल्याणकारी भावना के आधार पर राज्य सरकार इनके लिए ग्रुप हाउसिंग सोसाइटी बनाने की व्यवस्था करती. अगर हम इसे सकारात्मक दृष्टिकोण से देखें, तो इनका पुनर्वास किया जा सकता है. जब तक इन 250-300 परिवारों का पुनर्वास नहीं हो जाता, तब तक इन्हें वहां से नहीं हटाना चाहिए. इनके लिए एक स्थायी व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि ये अपने बच्चों के साथ सुरक्षित रह सकें.”