जिस भाषा (Language) को ‘देवताओं की भाषा’ कहा गया, वही आज बिहार में अपने अस्तित्व की जंग लड़ रही है. चुनावी मंचों से संस्कृत को “भारत की पहचान” कहने वाले नेता शायद ही जानते हों कि दरभंगा और बिहार के कई जिलों में संस्कृत विद्यालय अब शिक्षा के नहीं, बल्कि खंडहरों के प्रतीक बन चुके हैं.
द क्विंट की टीम ने बिहार के दरभंगा और उसके आस-पास के जिलों के संस्कृत विद्यालयों का दौरा किया, जहां शिक्षा की नहीं, बल्कि घोर उपेक्षा की कहानी सामने आई.
विद्यालय नहीं, खंडहर का डेरा
स्कूल के गेट से अंदर जाते ही दिखता है—टूटी छतें, गिरी दीवारें और बरामदे में बंधी बकरियां. कभी जहां मंत्रोच्चार की आवाज गूंजती होगी, वहां अब सन्नाटा और सीलन की बदबू फैली है.
स्कूल की पुरानी इमारत पूरी तरह खंडहर बन चुकी है. दीवारों से ईंटें झड़ रही हैं और परिसर में घास-झाड़ियां ने कब्जा कर लिया है.
पास में ही बाबा साहेब राम संस्कृत कॉलेज है, जिसके कॉमन रूम पर ताला लटक रहा है. कॉमन रूम के बाहर कुछ बकरियां बंधी हैं—जिन्हें देखकर साफ लगता है कि यह अब शिक्षा का नहीं, पशुओं का ठिकाना बन चुका है.
कॉलेज की लाइब्रेरी बेडरूम है. पुरानी संस्कृत की किताबें मकड़ी के जालों और धूल की मोटी परतों में दब चुकी हैं. वहीं रहने वाले केयरटेकर राजकुमार मंडल बताते हैं,
“अब मुश्किल से दस-बारह छात्र आते हैं. कई बार तो कोई आता ही नहीं.”
छात्रावास बंद
कॉलेज का महिला छात्रावास, जो छात्राओं के रहने के लिए बना था, सालों से बंद है. सुरक्षा गार्ड नहीं हैं, इमारत जर्जर है. कॉलेज के पूर्व चपरासी राम परीक्षण मंडल बताते हैं,
“लगभग दस साल से यही हाल है. न मरम्मत हुई, न कोई देखने आया. बस नाम के लिए कॉलेज चल रहा है.”
‘टॉप 10’ से बर्बादी तक
दरभंगा के पछाढ़ी में स्थित संस्कृत स्कूल कभी बिहार के शीर्ष 10 संस्कृत स्कूलों में गिना जाता था. स्कूल के पहले हेडमास्टर के पोते और दरभंगा के एमएलएसएम कॉलेज के पूर्व प्रिंसिपल डॉ. विद्यानाथ झा बताते हैं,
“कांग्रेस के समय संस्कृत शिक्षा को सहारा मिलता था. अब सरकारें इसे गिरने दे रही हैं. आधुनिक शिक्षा के नाम पर संस्कृत को हाशिए पर धकेल दिया गया है.”
संस्कृत स्कूलों का हाल समझने के लिए हमने मधुबनी और सारण जिले के संस्कृत विद्यालयों के शिक्षकों से संपर्क किया. मधुबनी के शिक्षक राजेंद्र झा का कहना है, “सरकार को अब ऐसे शिक्षक चाहिए, जिन्हें वेतन न देना पड़े.”
सारण जिले के संस्कृत विद्यालय के शिक्षक उदय नारायण बताते हैं, “संस्कृत विद्यालयों को कोई अनुदान नहीं मिलता. 2016 के बाद से न नई भर्ती हुई, न किसी रिटायर हुए शिक्षक की जगह भरी गई.”
शिक्षकों के मुताबिक, पहले जहां एक जिले में 300-400 संस्कृत शिक्षक थे, अब मुश्किल से 100 बचे हैं. वेतन महीनों तक अटकता है, और मरम्मत या बुनियादी सुविधाओं के लिए कोई फंड नहीं.
आंकड़े भी बताते हैं बदहाली की कहानी
बिहार सरकार के आंकड़ों के अनुसार, राज्य में 531 से अधिक संस्कृत विद्यालय हैं, लेकिन शिक्षकों की कमी, जर्जर इंफ्रास्ट्रक्चर और फंड की कमी के चलते ये संस्थान शिक्षा देने की बजाय अपनी पहचान बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
संस्कृत सिर्फ 'चुनावी भाषा' बनकर रह गई?
नेताओं ने संस्कृत को "देवताओं की भाषा" और "भारत की पहचान" बताकर एक चुनावी भाषा बनाया, लेकिन जमीन पर इस भाषा और इससे जुड़े संस्थानों के प्रति उनकी गंभीरता शून्य है.