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"जाति में जन्म लेना बुरा है क्या? मैं क्षत्रिय कुल में पैदा हुआ हूं इसमें क्या बुरा है. अजय सिंह बिष्ट मेरा पूरा नाम था. मुझे गर्व होता है इस बात पर कि मैं एक उत्तम कुल में पैदा हुआ हूं."- योगी आदित्यनाथ (फरवरी 2022)
"बीजेपी एक अलग प्रकार की पार्टी है. जाति के नाम पर नेतृत्व मिलता है, लेकिन बीजेपी राष्ट्रवादी है और एक विचार के लिए काम करते है."- स्वतंत्र देव सिंह, मंत्री (लखनऊ में बीजेपी द्वारा आयोजित यादव सम्मेलन, अक्टूबर 2021)
ये बयान यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ और यूपी सरकार में कैबिनेट मंत्री स्वतंत्र देव सिंह के हैं. कोई अपने आप को उत्तम कुल का बता रहा है तो कोई जाति के नाम पर नेतृत्व की बात कर रहा है.
अब उत्तर प्रदेश में जाति के नाम पर पॉलिटिकल रैली करने पर बैन लगा दिया गया है. यूपी सरकार ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्देशों पर अमल करते हुए ये फैसला किया. तर्क है कि राजनीतिक उद्देश्यों से की गई जाति आधारित रैलियां समाज में जातीय संघर्ष को बढ़ावा देती हैं, जो लोक व्यवस्था और राष्ट्रीय एकता के खिलाफ है.
ऐसे में बताते हैं कि यूपी सरकार ने जाति से जुड़े कौन से 10 बड़े फैसले लिए और इन फैसलों से जातीय राजनीति से उपजी राजनीतिक पार्टियों पर क्या असर पड़ेगा?
21 सितंबर को यूपी के चीफ सेक्रेटरी दीपक कुमार ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए दस निर्देश जारी किए.
जाति आधारित रैलियों पर पूर्ण प्रतिबंध: राजनीतिक उद्देश्यों से होने वाली जातिगत रैलियों पर प्रदेशभर में पूर्ण रोक रहेगी.
जातिगत बोर्ड्स पर रोक: कस्बों और जिलों में लगे जातिगत गौरव वाले बोर्ड्स या साइनबोर्ड तुरंत हटाए जाएंगे और भविष्य में लगाने पर पाबंदी होगी.
गाड़ियों पर जाति आधारित स्टिकर/स्लोगन बैन: सार्वजनिक स्थानों या वाहनों पर जाति का नाम या महिमामंडन करने वाले स्लोगन लगाने पर मोटर वाहन अधिनियम के तहत चालान किया जाएगा.
सोशल मीडिया पर सख्ती: किसी जाति का महिमामंडन या निंदा करने वाली पोस्ट/मैसेज पर कड़ी निगरानी रखी जाएगी और दोषियों पर सख्त कार्रवाई होगी.
CCTNS पोर्टल पर बदलाव: अभियुक्त की जाति दर्ज करने वाले कॉलम हटाने और पिता के नाम के साथ माता का नाम भी दर्ज करने की व्यवस्था के लिए NCRB को पत्र लिखा जाएगा.
डेटा एंट्री पर निर्देश: जब तक NCRB यह बदलाव नहीं करता, तब तक पोर्टल पर जाति संबंधी कॉलम को खाली छोड़ा जाए.
थानों में नोटिस बोर्ड: अभियुक्तों के नाम के साथ उनकी जाति का उल्लेख थानों के नोटिस बोर्डों पर नहीं होगा.
अभिलेखों में बदलाव: बरामदगी पंचनामा, गिरफ्तारी मेमो और तलाशी मेमो आदि में अभियुक्तों की जाति का उल्लेख नहीं किया जाएगा.
पिता और माता दोनों का नाम अनिवार्य: पुलिस रिकॉर्ड में अभियुक्त के पिता के नाम के साथ माता का नाम भी दर्ज करना अनिवार्य होगा.
कानूनी अपवाद: केवल उन्हीं मामलों में जाति का उल्लेख किया जाएगा, जहां कानून इसकी अनुमति देता है, जैसे SC/ST अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत दर्ज मामलों में.
अब आपके जहन में सवाल आ रहा होगा कि आखिर इलाहाबाद हाईकोर्ट किस मामले की सुनवाई कर रहा था जो ऐसे निर्देश जारी हुए. दरअसल, मामला शराब तस्करी से जुड़ा हुआ है.
सुनवाई के दौरान जस्टिस विनोद दिवाकर ने पाया कि पुलिस ने FIR और मेमो में आरोपी की जाति का जिक्र किया है. कोर्ट ने इस प्रेक्टिस को रिग्रेसिव और मॉडर्न-यूनिफाइट इंडिया के खिलाफ पाते हुए यूपी के डीजीपी को एफिडेविट देने का निर्देश दिया, जिसमें बताया गया हो कि किसी सस्पेक्ट की जाति को मेंशन करना कितना जरूरी है उसका क्या रिलिवेंस है?
कोर्ट में सुनवाई हुई. पिटीशनर प्रवीण छेत्री की याचिका तो खारिज कर दी गई, लेकिन जाति के मुद्दे पर कोर्ट ने यूपी सरकार को कुछ निर्देश दिए. लेकिन निर्देशों में जाति आधारित रैलियों का जिक्र नहीं था. हां, सुनवाई के दौरान जरूर जाति-आधारित राजनीतिक रैलियों की निंदा की गई. कोर्ट ने कहा,
अब वापस इस फैसले के राजनीतिक पहलू पर आते हैं. जाति आधारित रैलियों पर बैन लगने के बाद सबसे बड़ा सवाल उठ रहा है कि उन दलों का क्या होगा जिनकी पहचान जाति आधारित राजनीति से है और अभी इसमें कुछ दल तो बीजेपी के साथ भी हैं. इन दलों के नेता योगी सरकार में मंत्री भी हैं.
मसलन, निषाद पार्टी, जो निषाद समुदाय का राजनीतिक मंच माना जाता है. इसके अध्यक्ष हैं संजय निषाद. जो यूपी सरकार में मंत्री भी हैं. साल 2018 में गोरखपुर उपचुनाव में निषाद पार्टी ने SP के साथ गठबंधन कर बीजेपी को हराया था, लेकिन 2019 में NDA के साथ चली गई.
एक और नाम है सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी. यह पार्टी राजभर जाति के राजनीतिक प्रतिनिधित्व के तौर पर जानी जाती है. इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर हैं. ये भी यूपी सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं. पहले समाजवादी पार्टी के साथ थे, लेकिन बाद में NDA में शामिल हो गए.
ऐसे में समझना जरूरी हो जाता है कि आखिर बीजेपी सरकार ने ये फैसला सिर्फ कोर्ट के निर्दशों का पालन करते हुए लिया या कुछ और भी वजह है? इसे उत्तर प्रदेश में बीजेपी के राजनीतिक उत्थान से समझा जा सकता है.
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक जानकार सिद्धार्थ कालहंस कहते हैं, "शुरुआत में बीजेपी ने गैर यादव पिछड़ी जातियों और गैर जाटव दलितों की गोलबंद की. लोगों में मैसेज पहुंचाया कि यादव और जाटव आपका हक मार रहे हैं. इस अभियान में बीजेपी काफी हद तक कामयाब भी रही."
साल 2019 के दौरान और उसके बाद के सालों में बीजेपी ने यूपी में जाति अस्मिता से जुड़ी पार्टियों को अपने साथ मिला लिया. चाहे कुर्मी समुदाय से जुड़ी पार्टी अपना दल हो, निषाद समुदाय का राजनीतिक मंच कही जाने वाली पार्टी निषाद पार्टी हो या फिर ओम प्रकाश राजभर की पार्टी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी. इन सभी पार्टियों को बीजेपी ने अपने साथ मिला लिया.
सिद्धार्थ कालहंस कहते हैं, "एक समय के बाद बीजेपी से जुड़ी जातियां उससे ही दूर होने लगी. नतीजा साल 2024 के चुनाव में दिखा. वजह बना अखिलेश यादव की पीडीए की राजनीति. शुरू में लगा कि पीडीए सिर्फ लोकसभा चुनाव तक ही है लेकिन उसके बाद पीडीए की राजनीति और गहरी होती गई. गांव-गांव तक पहुंचने लगी. गांव-गांव जाति के आधार पर गोलबंदी शुरू होने लगी."
"पिछड़े लामबंद होने शुरू हो गए और बीजेपी से छिटकने लगे. 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को बड़े नुकसान की बड़ी वजह यही रही. जिन जातियों ने पिछले चुनावों में जीत दिलाई थी वह जातियां बीजेपी से छिटकने लगीं. बीजेपी को इन जातियों से नुकसान होने लगा, शायद यही वजह है कि फिर से बीजेपी ने नए फैसले के जरिए पीडीए की राजनीति को डेंट पहुंचाने की कोशिश की है. हालांकि ये बीजेपी के लिए बैक फायर भी कर सकता है. इस फैसले के जरिए समाजवादी पार्टी नैरेटिव सेट कर सकती है कि बीजेपी जातियों के खिलाफ है.
यूपी सरकार के फैसले पर अखिलेश यादव ने घर धुलवाने का वाकया याद दिलाया और सवाल किए कि किसी का घर धुलवाने की जातिगत भेदभाव की सोच का अंत करने के लिए क्या उपाय किया जाएगा?
बीजेपी के सहयोगी संजय निषाद ने भी कहा कि जातियां अगर अपनी बात नहीं कहेंगी तो सताई जाती रही हैं, सताई जाती रहेंगी. सरकार को अपने फैसले पर फिर से सोचना चाहिए.
इन बयानों के बीच समाजवादी पार्टी के नेता और एसपी प्रवक्ता राजकुमार भाटी ने गुर्जर चौपाल का नाम बदलकर पीडीए चौपाल रख दिया है.
अब देखना होगा कि खुले मंचों से और साइन बोर्ड पर जाति का जिक्र नहीं करने से जाति से जुड़ी समस्याओं का अंत होता है या उत्तम कुल और निम्न जाति जैसी सोच को खत्म करने के लिए फिर से नए विकल्प की तलाश करनी होती है.