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छात्रों की आत्महत्याओं में 2019 के बाद 34% बढ़ोतरी, संस्थागत सहयोग की मांग तेज

2019-23 के बीच 18 साल से कम उम्र के 14,831 बच्चों की आत्महत्या से मौत हुई, जिसकी मुख्य वजह घरेलू परेशानियां रहीं.

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6 दिसंबर को ग्रेटर नोएडा के एक हॉस्टल में झारखंड के रहने वाले 25 साल के एक कंप्यूटर साइंस स्टूडेंट ने जान दे दी. बताया जा रहा है कि वह अपनी सेहत को लेकर परेशान था. सिर्फ नवंबर में छात्रों की खुदकुशी के 5 मामले सामने आए हैं.

  • जयपुर में चौथी क्लास की एक बच्ची ने इसलिए सुसाइड कर लिया क्योंकि डेढ़ साल से उसकी बुलिंग (परेशान किए जाने) की शिकायतों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया.

  • टीचर्स की प्रताड़ना से तंग आकर एक 16 साल के लड़के ने दिल्ली मेट्रो के आगे कूदकर जान दे दी.

  • मध्य प्रदेश के रीवा में 11वीं के एक छात्र ने अपने साथ हुए गलत बर्ताव का आरोप लगाते हुए घर पर अपनी जान दे दी.

  • राजस्थान के एक गांव में 14 साल का एक बच्चा पेड़ से लटका हुआ मिला.

  • वहीं महाराष्ट्र के चंद्रपुर में एक 20 साल के मेडिकल स्टूडेंट ने अपने कमरे में फांसी लगा ली.

NCRB के आंकड़ों (सोर्स- Dataful by Factly) के मुताबिक, साल 2019 से 2023 के बीच भारत में 62,886 छात्रों ने खुदकुशी की. इन मामलों में 34.4% की भारी बढ़ोतरी देखी गई है. जहां 2019 में यह संख्या 10,335 थी, वहीं 2023 में बढ़कर 13,892 हो गई.

पिछले एक महीने में हुई ये दिल दहला देने वाली घटनाएं दिखाती हैं कि देश में छात्रों की आत्महत्या के मामले कितनी तेजी से बढ़ रहे हैं, और साथ ही यह भी कि उन्हें संस्थानों (स्कूलों-कॉलेजों) से कोई खास मदद नहीं मिल पा रही है.

'द क्विंट' ने 2019 से 2023 के बीच के आंकड़ों पर नजर डाली ताकि यह समझा जा सके कि ऐसे मामले क्यों बढ़ रहे हैं, इनके पीछे की वजह क्या है और देश में किस उम्र के बच्चे इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं.

आंकड़े क्या कहते हैं?

2019 से 2023 के बीच भारत में 62,886 छात्रों की सुसाइड से मौत हुई, जो कि 34.4% की एक बड़ी बढ़ोतरी है. देश में 2019 में सबसे कम मामले दर्ज किए गए (10,335), जबकि 2023 में सबसे अधिक मामले सामने आए (13,892).

2019 से 2023 के बीच छात्रों की खुदकुशी के मामलों में महाराष्ट्र और तमिलनाडु की हालत सबसे खराब रही. इस दौरान महाराष्ट्र में 8,779 और तमिलनाडु में 5,845 मामले दर्ज किए गए. यही नहीं, इस दौरान महाराष्ट्र लगातार छात्र आत्महत्याओं के मामले में सबसे ऊपर रहा.

2019 से 2023 के बीच छात्रों की खुदकुशी के मामलों में जो अन्य राज्य सबसे ज्यादा प्रभावित रहे और 'टॉप 5' की लिस्ट में आए, वे हैं उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक और ओडिशा.

(पाठक मैप पर कर्सर ले जाकर या किसी राज्य का नाम सर्च करके वहां के आंकड़े देख सकते हैं.)

इसके अलावा, 2023 में 18 साल से कम उम्र के कुल 10,785 बच्चों ने आत्महत्या की. अगर पिछले सालों पर नजर डालें, तो 2022 में यह संख्या 10,205 थी; 2021 में 10,732; 2020 में 11,396; और 2019 में 9,613. हैरानी की बात यह है कि हर साल होने वाली कुल आत्महत्याओं में 70% से भी ज्यादा मामले इसी उम्र के बच्चों के थे.

हमने अपनी पड़ताल में यह भी पाया कि इन पांचों सालों में, 18 साल से कम उम्र के बच्चों में खुदकुशी की सबसे बड़ी वजह "पारिवारिक समस्याएं" (घर की परेशानियां) रही. 2019 से 2023 के बीच इस वजह से कुल 14,831 मामले दर्ज किए गए.

"परीक्षा का डर" सुसाइड की एक बड़ी वजह सिर्फ 2019 और 2023 में ही खुलकर सामने आई, जिसमें 18 साल से कम उम्र के 2,880 बच्चों ने अपनी जान दे दी.

NCRB की रिपोर्ट के मुताबिक, इस उम्र के बच्चों में खुदकुशी की कुछ और वजहें "प्रेम संबंध" (लव अफेयर्स) और "बीमारी" भी बताई गई हैं.

18 साल से कम उम्र के बच्चों द्वारा अपनी जान देने के हालिया संकट पर बात करते हुए, लखनऊ (उत्तर प्रदेश) की एक को-ऑर्डिनेटर और टीचर ट्रेनर रशिका मेहरोत्रा ने कहा:

"यह बात दिल तोड़ देने वाली है कि बच्चे अपनी उम्र से कहीं ज्यादा भावनात्मक बोझ (दुख और तनाव) उठा रहे हैं. यह भी दिखाता है कि बड़े होने के नाते माता-पिता, शिक्षक और पूरा सिस्टम उनकी खामोश लड़ाइयों को नहीं देख पा रहा है. यह एक सबक है कि बच्चों को हमारे साथ की ज्यादा और दबाव की कम जरूरत है."

इसके अलावा, 2019 से 2023 के आंकड़ों से लगातार यह पता चला है कि आत्महत्या के मामले में 'सबसे संवेदनशील उम्र' 18 से 30 साल के युवाओं और व्यस्कों की रही. इसके बाद दूसरे नंबर पर 30 से 45 साल की उम्र के लोग सबसे ज्यादा प्रभावित पाए गए.

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छात्रों के लिए 'सुरक्षित' नहीं रह गए स्कूल

नवंबर में, जयपुर की नौ साल की बच्ची का दिल दहला देने वाला एक ऑडियो सामने आया, जिससे पता चलता है कि उसे स्कूल में बार-बार परेशान (बुलिंग) किया जा रहा था. परिवार ने कई बार शिकायत भी की, लेकिन कहा जा रहा है कि स्कूल प्रशासन ने उसकी तकलीफ को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया.

उसी महीने, दिल्ली के रहने वाले 16 साल के एक छात्र ने जान देने से पहले एक सुसाइड नोट छोड़ा, जिसमें उसने अपने टीचर्स पर लगातार प्रताड़ित करने का आरोप लगाया. हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, नोट में लिखा था, "मेरी आखिरी इच्छा यही है कि उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाए ताकि कोई और स्टूडेंट यह कदम न उठाए जो मैंने उठाया है."

कई मामलों से यह पता चलता है कि छात्र लगातार मानसिक और शारीरिक शोषण झेल रहे हैं, और अक्सर उन्हें परेशान करने वाले उनके अपने टीचर्स ही होते हैं. अफसोस की बात यह है कि मदद के लिए उनकी चीखें अक्सर अनसुनी रह जाती हैं.

रशिका मेहरोत्रा ने यह भी बताया कि बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य में स्कूल की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है. वे कहती हैं,

"एक बच्चा अपना ज्यादातर समय स्कूल में बिताता है, इसलिए वहां का माहौल, टीचर्स का व्यवहार और जो जगह हम उन्हें देते हैं, उसका उनके आत्मविश्वास और सुरक्षा के अहसास पर गहरा असर पड़ता है. एक शांत और साथ देने वाला स्कूल बच्चे का मानसिक संतुलन बनाने में वाकई बहुत मदद कर सकता है."

जुलाई में, सुप्रीम कोर्ट ने छात्र आत्महत्याओं के बढ़ते मामलों को 'सिस्टम की नाकामी' (Systemic Failure) बताया. कोर्ट ने स्कूल, कॉलेजों और कोचिंग सेंटरों को छात्रों की मानसिक सेहत का ख्याल रखने के लिए सख्त निर्देश जारी किए.

देश की सबसे बड़ी अदालत ने चेतावनी दी कि हमारा एजुकेशन मॉडल केवल रैंकिंग और एग्जाम के नतीजों के पीछे भागता है, न कि बच्चे के पूरे विकास के पीछे. इस वजह से पढ़ाई की खुशी खत्म हो गई है और उसकी जगह लगातार बढ़ते दबाव ने ले ली है, जिससे छात्रों में निराशा और दुख बढ़ रहा है.

इस विषय पर अपनी राय देते हुए मेहरोत्रा कहती हैं,

"आजकल कई सिलेबस में मानसिक स्वास्थ्य को शामिल करने की कोशिश तो की जा रही है, लेकिन अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है. हम माइंडफुलनेस और मिल-जुलकर बैठने (Circle Time) जैसी कोशिशें तो देखते हैं, लेकिन असली बदलाव तब आएगा जब टीचर्स इन चीजों को केवल एक 'चेकलिस्ट' की तरह पूरा करने के बजाय सहानुभूति और प्यार के साथ अपनाएंगे."

पिछड़े वर्ग के छात्रों की आत्महत्या से जुड़े आंकड़ों की कमी

2023 में लोकसभा में दिए गए एक जवाब से पता चला कि भारत में आत्महत्या करने वाले छात्रों की जाति (Caste Identity) को लेकर सरकार के पास कोई अलग डेटा या आंकड़ा मौजूद नहीं हैं.

हालांकि, पिछले कुछ सालों में आईआईटी (IIT) और एनआईटी (NIT) जैसे बड़े संस्थानों में Marginalised Background से आने वाले छात्रों की आत्महत्या के कई मामले सामने आए हैं. सबसे ताजा मामला इसी साल जुलाई में आईआईटी खड़गपुर के छात्र रिथम मंडल की मौत का है. हैरानी की बात यह है कि अकेले 2025 में ही खड़गपुर कैंपस में सुसाइड का यह चौथा मामला है.

इसके अलावा, 2021 में केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने लोकसभा में बताया था कि 2014 से 2021 के बीच केंद्र के बड़े शिक्षण संस्थानों (जैसे IITs, IIMs आदि) में 122 छात्रों की सुसाइड से मौत हुई. इन 122 छात्रों में से 24 छात्र अनुसूचित जाति (SC), 3 अनुसूचित जनजाति (ST), 41 अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) और 3 अल्पसंख्यक समुदाय से थे.

2023 में संसद में दिए गए एक और जवाब से पता चलता है कि 2019 से 2021 के बीच देश की सेंट्रल यूनिवर्सिटीज, IITs, NITs, IIITs, IIMs और IISERs जैसे बड़े संस्थानों में 98 छात्रों की सुसाइड से मौत हुई.

सरकार ने इन आत्महत्याओं की वजह पारिवारिक समस्याओं या मानसिक बीमारियों को बताया. हालांकि, सरकार की तरफ से इन संस्थानों के कैंपस में होने वाले सामाजिक या जातिगत भेदभाव (Caste Discrimination) का कहीं कोई जिक्र नहीं किया गया और न ही इसे स्वीकार किया गया.

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भेदभाव वाले कैंपस जातिवाद को और बढ़ावा देते हैं: भारत के उच्च शिक्षण संस्थानों (कॉलेजों) में खान-पान और भाषा के नाम पर छात्रों को अलग-थलग करने वाली बातें बार-बार सामने आती रही हैं. 'आर्टिकल 14' की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछड़े वर्ग से आने वाले छात्रों को भाषा की समस्या, प्रोफेसरों से मदद न मिलना और सामाजिक रूप से घुलने-मिलने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. रिपोर्ट में बताया गया है कि दूर-दराज के गांवों से आने वाले छात्रों को अंग्रेजी के साथ तालमेल बिठाने में मुश्किल होती है, जिसकी वजह से वे कैंपस लाइफ में खुद को अकेला महसूस करने लगते हैं.

"अभी भी संस्थानों को वाकई में सबके लिए एक जैसा (Inclusive) बनाने के लिए बहुत काम करना बाकी है. पिछड़े समुदायों के लोग आज भी भेदभाव झेलते हैं, और अक्सर छोटे-मोटे अपमान या भेदभाव की घटनाएं हमारे सामने आती रहती हैं. हालांकि, एक अच्छी बात यह है कि अब शिक्षण संस्थान एंटी-बुलिंग कैंपेन और विविधता को बढ़ावा देकर सबको साथ लेकर चलने की कोशिश कर रहे हैं."
अनुना बोरदोलोई, फोर्टिस हेल्थकेयर में कंसल्टेंट क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट

मेहरोत्रा ने कहा कि नई शिक्षा नीति (NEP) 2020 में हर सामाजिक पृष्ठभूमि के छात्रों को साथ लेकर चलने और उनके सर्वांगीण विकास पर काफी जोर दिया गया है. हालांकि, उन्होंने यह भी साफ किया कि इन विचारों को हकीकत में बदलने के लिए शिक्षण संस्थानों का सुरक्षित होना और छात्रों को खुले दिल से अपनाना बहुत जरूरी है.

बातचीत को आगे बढ़ाते हुए, बोरदोलोई ने इस बात पर जोर दिया कि हमें सामाजिक रूप से और संवेदनशील होने की जरूरत है. उन्होंने कहा कि जानकारी या सूचनाओं का इस्तेमाल समझदारी से करना चाहिए और माता-पिता को बच्चों के सामने अपना व्यवहार सम्मानजनक रखना चाहिए.

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आगे का रास्ता- सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षण संस्थानों के लिए क्या निर्देश दिए हैं?

जुलाई में देश की सबसे बड़ी अदालत (सुप्रीम कोर्ट) ने यह अनिवार्य कर दिया है कि हर संस्थान में प्रोफेशनल काउंसलर या मनोवैज्ञानिक होने चाहिए. कोर्ट ने यह भी कहा कि नंबरों या पढ़ाई में प्रदर्शन के आधार पर बच्चों के अलग-अलग बैच बनाना बंद किया जाए. इसके अलावा, स्कूल-कॉलेज के सभी शिक्षकों और बाकी स्टाफ के लिए समय-समय पर मेंटल हेल्थ ट्रेनिंग कराना भी जरूरी कर दिया गया है.

स्कूलों में काउंसलिंग को लेकर हिचकिचाहट और डर पर बात करते हुए दिल्ली की क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट संस्कृति सिंह ने कहा,

"मैं इस बात की गवाह रही हूं कि कई छात्र स्कूल काउंसलर के पास जाने से कतराते हैं. इसकी शुरुआत अक्सर इस डर से होती है कि लोग उन्हें जज करेंगे या उन पर कोई 'लेबल' लगा देंगे. उन्हें चिंता रहती है कि अगर वे मदद मांगेंगे, तो उनके क्लासमेट्स या टीचर्स उनके बारे में क्या सोचेंगे. कुछ बच्चों को यह भी डर रहता है कि उनकी बातें गुप्त (Confidential) नहीं रखी जाएंगी और उनकी मर्जी के बिना माता-पिता या प्रिंसिपल को बता दी जाएंगी."

सिंह ने यह भी बताया कि छात्र अक्सर काउंसलिंग से इसलिए बचते हैं क्योंकि उन्हें ये सेशन दिखावटी या बनावटी लगते हैं. साथ ही, कम अनुभव वाले काउंसलर बच्चों का भरोसा नहीं जीत पाते और वे मदद करने वाले दोस्त के बजाय स्कूल के किसी कड़क अधिकारी की तरह बर्ताव करते हैं.

अदालत ने शिक्षण संस्थानों को निर्देश दिया है कि वे अपने सभी कर्मचारियों को ट्रेनिंग दें ताकि वे कमजोर और पिछड़े वर्गों से आने वाले छात्रों के साथ संवेदनशीलता और प्यार से पेश आएं. इसके अलावा, कोर्ट ने राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से कहा है कि वे प्राइवेट कोचिंग सेंटरों के लिए भी नियम बनाएं, जिसमें उनका रजिस्ट्रेशन और शिकायतों को दूर करने का एक सिस्टम (Grievance-redressal mechanism) शामिल हो.

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सुसाइड रोकने वाली हेल्पलाइन: तुरंत मदद का वादा- लेकिन क्या ये वाकई काम करती हैं?

'द क्विंट' ने भारत की कुछ सुसाइड-प्रिवेंशन हेल्पलाइन की पड़ताल की कि वे कितनी सक्रिय हैं. जब हमने नेशनल 'टेली-मानस' (TeleManas) हेल्पलाइन पर कॉल किया, तो एक रिकॉर्डेड मैसेज ने हमें राज्य और भाषा चुनने को कहा, लेकिन किसी भी भाषा में किसी प्रोफेशनल (विशेषज्ञ) ने फोन नहीं उठाया.

हमने 'आसरा' 24×7 हेल्पलाइन पर भी संपर्क किया, जिसका मकसद डिप्रेशन या खुदकुशी के विचार आने वाले लोगों को बिना पहचान उजागर किए प्रोफेशनल मदद देना है, लेकिन वहां से भी कोई जवाब नहीं मिला. इस हेल्पलाइन में पिछली वाली की तरह कोई रिकॉर्डेड मैसेज भी नहीं था.

इसके उलट, फोर्टिस स्ट्रेस हेल्पलाइन (Fortis Stress Helpline) ने कुछ ही सेकंड में फोन उठा लिया और हमारे रिपोर्टर के साथ हुई छोटी सी बातचीत के दौरान वहां मौजूद प्रोफेशनल की आवाज काफी भरोसेमंद और राहत देने वाली लगी.

साल 2017 में भी 'द क्विंट' ने इसी तरह की एक कोशिश की थी, जिसमें भारत भर की 11 सुसाइड-प्रिवेंशन हेल्पलाइन को कॉल किया गया था. तब 11 में से सिर्फ तीन हेल्पलाइन ने फोन उठाया था, और उनमें से भी केवल एक ही मददगार साबित हुई थी.

'टाइम्स ऑफ इंडिया' ने एक व्यक्ति की सच्ची कहानी छापी थी, जिसने 2018 में अपनी जिंदगी के एक मुश्किल दौर (क्राइसिस) में ऑनलाइन मौजूद कई सुसाइड-प्रिवेंशन हेल्पलाइन पर कॉल किया, लेकिन उसे कहीं से कोई मदद नहीं मिली. इस स्थिति की हकीकत जानने के लिए जब उस अखबार ने खुद पहले 20 हेल्पलाइन नंबरों पर फोन किया, तो सच्चाई बहुत डरावनी निकली: ज्यादातर कॉल उठाए ही नहीं गए, कुछ नंबर बंद थे और सिर्फ तीन नंबरों पर फोन उठा.

बोरदोलोई ने कहा, "किसी संकट की घड़ी में सुसाइड-प्रिवेंशन हेल्पलाइन बहुत कारगर साबित होती हैं. ये हमदर्दी भरी और भरोसेमंद बातचीत के जरिए सुसाइड के ख्यालों, जल्दबाजी में उठाए जाने वाले कदमों और खुद को नुकसान पहुंचाने की कोशिशों को कम करने में मदद करती हैं. लेकिन, इनकी सफलता इस बात पर टिकी है कि वहां काम करने वाला स्टाफ संवेदनशील हो, उन्हें मनोवैज्ञानिक प्राथमिक उपचार (psychological first-aid) का सही तरीका पता हो, उनकी शिफ्ट छोटी हो, उन पर सही निगरानी रखी जाए और वे भारत की अलग-अलग भाषाओं में बात करने में सक्षम हों."

(आंकड़ों का स्रोत: नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB). भारत में आकस्मिक मौतें एवं आत्महत्याएं, और भारत में आत्महत्याएं: पीड़ितों के पेशे के अनुसार साल, राज्य और लिंग के हिसाब से आत्महत्याओं की संख्या [डेटा सेट]. डेटाफुल.)

हिंदी अनुवाद: नौशाद मलूक

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