कोरोना(corona) आया तो जैसे दुनिया थम सी गई. इसमें कला भी शामिल थी. सिनेमा तो ओटीटी(OTT) में सिमट गई पर रंगमंच और उसके कलाकार कहीं खो से गए, ये अब भी नही दिखते. रंगमंच के कलाकारों का भी पेट होता है और उसे भरने के लिए ये कोई अन्य काम करने पर मजबूर हो गए.
पियाली दासगुप्ता सतीश इन सबसे अलग निकलीं, उन्होंने यह ठान लिया था कि फीके पड़ते रंगमंच के रंग में वह फिर से रंग भरेंगी. इसके लिए उन्होंने कोरोना के दौरान हुए 'समुद्रमंथन' से प्राप्त 'ज़ूम मीटिंग एप' को एक ज़रिए के तौर पर चुना.
ओटीटी में अश्लीलता और हिंसा से भरी सामग्री के बीच जल, जंगल, जमीन की समस्या को रंगमंच के ज़रिए जनता तक पहुंचाने के लिए उन्होंने एक अनूठा प्रयोग किया. पियाली ने अपने निर्देशन में बनाए नाटक का नाम रखा 'माई पीस (peace) इज़ नॉट योर पीस (piece)' और इसे दर्शकों तक पहुंचाने के लिए उन्होंने 'ज़ूम एप' को एक ज़रिए के तौर पर चुना.
इसकी नाटक की कहानी जलवायु न्याय और समानता के इर्दगिर्द बुनी गई है. इस नाटक में बढ़ते तापमान, बाढ़, सूखे जैसी समस्याओं से जूझ रही पृथ्वी की वर्तमान हालत समझाने का प्रयास किया गया है.
नाटक में कोरोना बीमारी से गरीबों का रिश्ता इस रूप में दिखाया है कि उनके लिए कोरोना अब भी एक अंजान बीमारी ही है
इस कहानी के मुख्य पात्र आठ युवा हैं जिनका नाम सेम, गोपाल, सोना, मोनिषा, जेपी, ललया, एलिना और कमला है.
एक ही अभिनेता ने दो-दो पात्रों को बखूबी निभाया है, जैसे कमला और एलिना बनी अरुंधति बनर्जी अपने अभिनय में हाव-भावों का उतार-चढ़ाव दिखाते एक तरफ कोयला खदान से जुड़े मज़दूर परिवारों का दर्द दिखाती हैं तो दूसरी तरफ वह एलिना के रूप में ऐसी आधुनिक लड़की बनी हैं जो सिर्फ लोकप्रिय होना चाहती है.
नाटक की शुरुआत में 'एक्ट वन' के सदस्य रहे चरित्र अभिनेता अरुण कुमार कालरा दिखते हैं. अरुण ने जिस तरह फॉग और स्मॉग के बीच अंतर बता नाटक को शुरु किया है, वह शुरुआत में ही आपका ध्यान नाटक पर लगा देगा. पीछे बजता बैकग्राउंड साउंड और अरुण कुमार कालरा द्वारा बोली गई कविता
'पेड़ से छाया नही, लकड़ी चाहिए'
'ज़ूम' पर रंगमंच का रंग जमा देती है. बैकग्राउंड में अंधेरा और कविता गाते अरुण के हावभाव, साबित करते हैं कि रंगमंच अपने में अनूठा अनुभव देता है
लैपटॉप के सामने बैठ अभिनय को अंजाम देना बड़ा मुश्किल काम है. लेकिन इन कलाकारों ने अपना काम बेहतरीन तरीके से पूरा किया है. ललया और जेपी बने श्रेयन सारास्वत अकेले दो काल्पनिक लोगों से जिस तरीके से बात करते हैं, वह अद्भुत है.
कलाकारों की वेशभूषा उनके द्वारा निभाए गए पात्र की कहानी समझाने में अहम है, जैसे अरुंधति बनर्जी एक तरफ तो बालों की दो चुटिया बना कमला के रूप हमारे सामने है तो दूसरी तरफ हैंगर में चमकदार कपड़े लटका दिखा वह एलिना बनी हैं.
रंगमंच में बैकग्राउंड का बड़ा महत्व होता है और यही मंच में रंग भरने के काम आते हैं, कुछ यही कहानी इस नाटक में भी है. पानी की कमी से जूझ रही सोना के सामने रखे बर्तन किसी फिल्म की आला छायांकन भी फेल करते हैं. पीछे लगे काले पर्दे सिर्फ कलाकारों पर ध्यान रखवाने में अहम साबित होते हैं.
ललया के पीछे बाल्टी में रखा झाड़ू तो दर्शकों को लंबे समय तक याद रहेगा.
बैकग्राउंड सांउड ने दर्शकों पर गहरा प्रभाव डालने का काम किया है. पानी की किल्लत से जूझ रही सोना के स्क्रीन पर आते ही बैकग्राउंड में नदी की आवाज़ आती है, कई जगह सिर्फ गिटार और सांसों की आवाज़ से ही दर्शक प्रभावित होते हैं.
नाटक के संवाद सीधे गरीबों की दशा और पर्यावरण की पतली होती हालत की कलई खोल देते हैं. ललया के द्वारा कहा गया संवाद 'इट्स इज़ी टू प्रोटेस्ट, वेन यू हैव नथिंग टू लुज़' उन आंदोलनकारियों पर व्यंग्य है जो सिर्फ नाम के लिए आंदोलन करते हैं. कमला द्वारा बोला गया संवाद 'अब तो कोयला ही मेरा शरीर है' कोयला खदानों के मजदूरों की पूरी कहानी है
नाटक की स्क्रिप्ट ऐसे लिखी गई है कि पुरानी कहानी आपके पास लौट-लौट कर आएगी. कलाकारों ने इस लाइव चलते नाटक में खूब मेहनत की है, यही रंगमंच की खूबी भी है. सिनेमा में दर्शकों को पर्दे के पीछे लिए गए समय के बारे में कोई अनुभव नही होता पर रंगमंच में एक दृश्य पूरा करने के बाद कलाकारों को अगले की तैयारी के लिए सीमित समय में पर्दे के पीछे जाना है
दर्शक भी नाटक का एक हिस्सा ही बन जाते हैं, इसमें कलाकारों के द्वारा के गलती करने पर सब कुछ खत्म हो सकता है क्योंकि यहां निर्देशक कट-रीटेक मंच के सामने नही होता.
ज़ूम में रंगमंच जमाते दो दिक्कतें पेश आती हैं, पहली तो सर्वविदित ही है नेटवर्क और दूसरी यह कि सिर्फ संगीत बजने से ही स्क्रीन पर आने वाला कलाकार मुख्य स्क्रीन पर सामने नही आता. इसके लिए उसका बोलना ज़रूरी है, यह बात थोड़े अभ्यास के बाद ठीक की जा सकी.
मुझे उत्तराखंड के पहाड़ों में लग रही आग हमेशा चुभती रहती है पर यह दिल्ली , गुजरात वालों के लिए समाचार पत्रों की एक खबर भर है. इस आग को बुझाने के लिए अगर कोई फ़िल्म बनाई जाए तब वह इतना असर नही छोड़ेगी जितना इस पर दर्शकों के सामने किया गया रंगमंच. इसलिए रंगमंच को बढ़ावा मिलना चाहिए, पियाली जैसे निर्देशकों और श्रेयन जैसे कलाकारों का आर्थिक रूप से मज़बूत बनना भी जरूरी है क्योंकि इतनी मेहनत और समय देकर पूरा किए गए रंगमंच के साथ इनके पास एक पेट भी है. दर्शकों के लिए भी बेहतर है कि वो वाट्सएप यूनिवर्सिटी में पढ़ने की जगह इन काले पर्दों के आगे चल रहे मंचन को देखें-समझें और इनकी आर्थिक मदद करें.
निर्देशक- पियाली दासगुप्ता सतीश
मॉडरेटर- अरुण कुमार कालरा