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पंगे मत लो : जुबैर को जेल, पत्रकारों को सबक?

पत्रकार केंद्र सरकार/राज्य सरकारों से पंगा लेने की कीमत चुका रहे हैं.

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ये जो इंडिया है ना.. यहां पत्रकारों को सबक सिखाया जा रहा है. आप मोहम्मद जुबैर हो सकते हैं, आप रोहित रंजन हो सकते हैं, आप सिद्दिकी कप्पन हो सकते हैं, आप सना इरशाद मट्टो, अर्णब गोस्वामी, राणा अय्यूब, आकार पटेल, आसिफ सुल्तान, फहाद शाह, सज्जाद गुल, अजीत ओझा, दिग्विजय सिंह या मनोज गुप्ता हो सकते हैं. लेकिन केंद्र सरकार से, कई राज्य सरकारों से, जांच एजेंसियों, पुलिस और अकसर अदालतों से भी, संदेश यही है - पंगे मत लो !!

इन सभी पत्रकारों में कॉमन कड़ी है - इन्होंने पंगे लिए और और अब कीमत चुका रहे हैं.

मोहम्मद जुबैर 27 जून से हिरासत में हैं. ''गुनाह" क्या है? उन्होंने 4 साल पहले, 40 साल पुरानी एक फिल्म का एक टुकड़ा शेयर किया था, एक ऐसी फिल्म जिसे देश के सेंसर बोर्ड ने पास किया था. दूसरा ''गुनाह'' - जुबैर ने मुस्लिम महिलाओं को रेप की धमकी देने वाले बजरंग मुनि की आलोचना की. लेकिन किसी की नफरत की आलोचना करना जुर्म क्यों है? और खासकर एक पत्रकार के लिए? ये तो उसका काम है. लेकिन चूंकि जुबैर ने अपना काम किया, वो पुलिस कस्टडी में हैं, न्यायिक हिरासत में हैं, हम उन्हें अदालतों के चक्कर लगाते देख रहे हैं, हम उन्हें जमानत के लिए बार-बार अर्जियां देते देख रहे हैं.

गोदी मीडिया उन्हें शैतान बनाने पर तुला है. विडंबना है कि जिन्होंने नफरती भाषण दिए उनके खिलाफ FIR तो हुई, उन्हें गिरफ्तार तो किया गया लेकिन उन्हें रिहा भी कर दिया गया, जबकि जिन पत्रकारों ने इन नफरती भाषणों की कहानी दुनिया के सामने रखी , वो अब गिरफ्तार हैं. जुबैर को फैक्ट चेकिंग के लिए जाना जाता है. उन्होंने कई सियासी दलों के झूठ का पर्दाफाश किया है , बिना भेदभाव के.

लेकिन उनका काम चूंकि कुछ लोगों को परेशान करता है, उन्हें बेपर्दा करता है, झूठ और गलत सूचनाओं को उजागर करता है, उन्हें सबक सिखाया गया है.

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लेकिन अरुण यादव गिरफ्तार नहीं किए जाते, कोई पुलिस कस्टडी नहीं, कोर्ट के चक्कर नहीं. अरुण यादव हरियाणा बीजेपी आईटी सेल के हेड थे. उनके ट्विटर पर 6 लाख फॉलोअर हैं. 2017 में उन्होंने हजरत मोहम्मद का अपमान करते हुए एक ट्वीट किया था. अब जाकर उन्हें पद से तो हटाया गया है, वो भी बिना वजह बताए, लेकिन वो आजाद घूम रहे हैं. पुलिस ने उन्हें क्यों बख्श दिया है? एक गिरफ्तार, तो दूसरा आजाद क्यों? ये पूछने के लिए माफी चाहता हूं, लेकिन ये तो नाइंसाफी हुई ना माइ लॉर्ड!

पर चलिए, अगला केस उठाते हैं - सना इरशाद मट्टू भले ही पुलित्जर अवॉर्ड विनर हों, लेकिन कश्मीर की फोटो जर्नलिस्ट होने के लिए, आतंकवाद से लेकर 'लॉकडाउन' को दिखाने के लिए, जनाजों से लेकर हर तरफ पहरा दिखाने के लिए, घाटी के लोगों की तकलीफों को सामने लाने के लिए, घाटी के कड़वे सच को बाहर लाने के लिए, उन्हें भी सबक सिखाया जा रहा है. जुलाई में उन्हें दिल्ली एयरपोर्ट पर रोक दिया गया. एक फोटो प्रदर्शनी के लिए उन्हें फ्रांस नहीं जाने दिया गया. उनके पास मान्य वीजा था, लेकिन बिना कारण बताए उन्हें रोक दिया गया. क्या उन्हें सिर्फ सेब, शिकारा और सुंदर वादियों की फोटो लेनी चाहिए?

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कश्मीर में पत्रकार होना वैसे भी आसान नहीं है. एक तरफ सुरक्षा बल हैं तो दूसरी तरफ आतंकवादी और फिर हर तरह की विचारधारा वाले सियासी दल. पत्रकार आसिफ सुल्तान 2018 से, फहाद शाह और सज्जाद गुल 2022 की शुरुआत से, जेल में हैं, क्योंकि प्रशासन उनकी रिपोर्टिंग से खुश नहीं था. इन सभी मामलों में पत्रकारों को बेल मिलते ही , या मिलने से ठीक पहले , उनपर सख्त PSA लगा दिया गया, ताकि जमानत मिलनी नामुमकिन हो जाए. देखा जाए तो सना खुशकिस्मत हैं कि उन्हें जेल नहीं हुई, सिर्फ फ्रांस जाने से रोका गया.

अब , अजीत ओझा, दिग्विजय सिंह और मनोज गुप्ता के केस देखिए. इन्होंने 28 दिन जेल में बिताए..पूछिए क्यों? क्योंकि उन्होंने यूपी बोर्ड के दो पेपर लीक होने की खबर छापी. लेकिन इन्होंने जिस सरकार की कमियां दिखाईं, उसे ये बर्दाश्त नहीं हुआ. पुलिस ने इन पत्रकारों को ही पेपर लीक करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया. जज को ये यकीन दिलाने में 28 दिन लग गए कि पुलिस के पास इनके खिलाफ कोई सबूत नहीं है. लेकिन इन 28 दिनों में सभी लोकल पत्रकारों को सबक मिल चुका था कि भाई पंगे मत लो!

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असल में अब कानूनी प्रक्रिया ही सजा बना दी गई है... सबूतों की किसे जरूरत है, सुनवाई का क्या करना, अपराध साबित करना भी क्यों जरूरी है. फोकस इस बात पर है कि हैरेस करो, इतना हैरेस करो कि पत्रकार का मनोबल टूट जाए, ताकि वो ऐसी खबरें ना कर पाए, जो करना जरूरी है, ताकि वो ऐसी खबरें न कर पाए जिनसे हुकूमत को परेशानी होती हो. ताकि वो तथ्यों, डेटा और दस्तावेजों के बूते सख्त सवाल न पूछ पाए. ताकि कलम कुंद हो जाए.

यही हथकंडा हर पार्टी के नेता इस्तेमाल करना चाहते हैं. हमने कुछ दिन पहले देखा कि राहुल गांधी के बारे में एक भ्रामक वीडियो क्लिप चलाने के आरोप में, छत्तीसगढ़ पुलिस जी न्यूज के एंकर रोहित रंजन को गिरफ्तार करने पहुंची, जबकि रोहित रंजन चैनल पर उस बात की माफी मांग चुके थे. यूपी पुलिस ने रोहित रंजन को रायपुर ले जाने से बचाने के लिए किसी दूसरे मामले में उन्हें गिरफ्तार कर लिया.

2021 में रिपब्लिक टीवी के एडिटर अर्णब गोस्वामी को मुंबई पुलिस ने इसी तरह उठाया था. इन सभी मामलों में पुलिस अपने सियासी आकाओं का हुक्म बजा रही थी. लेकिन ये गलत है. मैं अर्णब छाप पत्रकारिता से असहमत हो सकता हूं, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि उन्हें हैरस किया जाए या किसी भी पत्रकार के साथ ऐसा सलूक हो.

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लेकिन ये जो इंडिया है ना, यहां क्लियर है, कि अब प्रक्रिया ही पनिशमेंट हो गई है. जब भी किसी पत्रकार को प्रताड़ित किया जाता है, जेल में डाला डाला जाता है, सताया जाता है, तो सौ दूसरे पत्रकार सत्ता से सवाल पूछने से पहले दोबारा सोचने पर मजबूर हो जाते हैं. इसे कहते हैं - चिलिंग इफ़ेक्ट.. एक डर के माहौल का बन जाना. अब यह पत्रकारों पर है कि वो कौन सा रास्ता चुनते हैं - सरेंडर का, या डट कर अपना काम करने का.

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