75 वर्षीय कमला एक थैले में कुछ कागजात के साथ दिल्ली के जंगपुरा स्थित मद्रासी कैंप में चक्कर लगा रही हैं, लोगों से पूछ रही हैं कि उन्हें सरकारी मकान कैसे मिलेगा? द क्विंट से बातचीत में कहती हैं, "मैं इंदिरा गांधी के जमाने से यहां रह रही थी. उन्हीं लोगों ने मुझे यहां रहने दिया था. पहले यहां 10 झुग्गियां थी, जो धीरे-धीरे बढ़ती गई और 300 के पार पहुंच गई."
वे बताती हैं कि उनके पति इस झुग्गी के प्रधान हुआ करते थे. उनके पति को गुजरे 40 साल हो गए हैं. उसके बाद भी वे यहीं रह रही थी.
जंगपुरा इलाके में बारापुला नाले से सटे मद्रासी कैंप में 1 जून को बुलडोजर एक्शन हुआ. 370 झुग्गी-झोपड़ियों को तोड़ने की कार्रवाई दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश पर हुई है. मॉनसून से पहले बारापुला नाले की सफाई, चौड़ीकरण और जलभराव की समस्या से बचने के लिए ये कार्रवाई की गई है.
बता दें कि दिल्ली में मद्रासी कैंप की पहचान तमिल समुदाय के लोगों के इलाके के तौर पर है. लोगों का कहना है कि ये कई पीढ़ियों से यहां रह रहे हैं.
मद्रासी कैंप में ही रहने वाली 60 वर्षीय कुलम्मा ध्वस्तीकरण की कार्रवाई से काफी दुखी और गुस्से में हैं. वे बताती हैं कि 15 साल की उम्र में वे यहां आई थीं. यहां आकर बसने के कारणों पर बात करते हुए कहती हैं, "रोजी-रोजगार के चक्कर में हम लोग यहां आए थे. यहीं मेरे बच्चे पैदा हुए, उनकी शादी हुई. अब तो पोता-पोती तक की शादी हो गई है." वे आगे कहती हैं, "अब हम लोग सड़क पर आ गए हैं. अब क्या करें, हम कहां जाएं.
"हम बांग्लादेशी नहीं, इंडियन हैं"
कई दशकों से मद्रासी कैंप में रह रहे लोग कहते हैं कि चुनाव के दौरान उनसे 'जहां झुग्गी, वहीं मकान' का वादा किया गया था. अब वे दिल्ली की बीजेपी सरकार पर वादाखिलाफी का आरोप लगाते हुए नाराजगी जता रहे हैं.
द क्विंट से बातचीत में मद्रासी कैंप के रहने वाले एक शख्स कहते हैं, "हमें भगाया जा रहा है. हम बांग्लादेशी थोड़ी हैं, हम तो इंडियन हैं. हम तो मद्रासी हैं. हमें क्यों भगाया जा रहा है."
वे आगे कहते हैं, "जहां झुग्गी-वहीं मकान- ऐसा झूठ क्यों बोला. 27 साल से किसी ने हमें हटाने के लिए नहीं बोला. गरीब लोगों ने उनकी बात मानकर वोट डाल दिया. अब चुनाव जीतने के बाद बोल रहे हैं कि तोड़ो. उनकी बात का कुछ वैल्यू नहीं है."
यहीं के शिवा कहते हैं, "सरकार कहां से बनी है. ये झुग्गी वालों के वोट से तो सरकार बनी है. अब देखिए यहां 370 फैमिली खत्म हो गई. उनकी पूरी जिंदगी खराब हो गई है. अब हम क्या करेंगे? अब तमिलनाडु से बोल रहे हैं कि वे हमारी मदद करेंगे. वे क्या हमारी मदद करेंगे? अब तक कहां थे?"
बुलडोजर एक्शन के बाद पड़े मलबे से अपना जरूरी सामान ढूंढ रही एक महिला बताती हैं कि उनके पति अब इस दुनिया में नहीं हैं. घर चलाने वाली वे अकेली हैं. आस-पास के घरों में साफ-सफाई का काम करके वे अपनी बेटियों का पालन-पोषण कर रही हैं. वे कहती हैं,
"मैं 50 साल से यहां रही हूं. अब नरेला का बोल रहे हैं, लेकिन हमें वहां घर नहीं मिला. आज देंगे, कल देंगे- बस झूठ बोल रहे हैं ये लोग. हमारा घर तो तोड़ दिया, अब कहां जाएंगे- आप ही बताओ."
उनकी बेटी तान्या कहती हैं, "हमने कई लोगों को बोला. लोग आते थे और देखकर चले जाते थे. कोई कुछ नहीं बोलता था. उन लोगों ने ये भी नहीं सोचा कि यहां कई सारे बच्चे भी हैं, जो पढ़ने वाले हैं. कुछ भी नहीं सोचा बस उन लोगों ने तोड़ दिया."
तान्या 9वीं क्लास में पढ़ाई करती हैं और बड़ा होकर फैशन डिजाइनर बनना चाहती हैं. वे बताती हैं कि घर टूटने के बाद से वे किराये के मकान में रहने को मजबूर हैं.
"7 लाख में यहां घर खरीदा"
पिछले 10 सालों से मद्रासी कैंप में रहने वाली अनिता के घर पर भी बुलडोजर चला है. मलबे से अपना जरूरी सामान ढूढ़ते हुए वे कहती हैं, "मैंने 7 लाख रुपये में छोटा झुग्गी खरीदा था. बाद में हमने उसे तोड़कर एक मंजिला मकान बनाया था."
ये जमीन अवैध है और यहां पर बुलडोजर एक्शन हो सकता है? इस सवाल पर वे कहती हैं,
"ये मुद्दा बहुत बार उठा है कि यहां की झुग्गियां टूट जाएगी. आज नहीं तो कल तोड़ दिया जाएगा. जब भी चुनाव होता है, मुद्दा उठता है. लेकिन कभी ऐसा कुछ नहीं हुआ."
वे आगे कहती हैं, "चुनाव के वक्त बीजेपी वाले हमें प्लास्टिक का कार्ड देकर गए थे, उसपर लिखा था- 'जहां झुग्गी, वहीं मकान'. आपका जहां झुग्गी है, वहीं पर मकान हो जाएगा- आप हमको वोट करो. इसके साथ ही कई और वादे भी किए गए थे. लेकिन देखिए अब कुछ नहीं है. सब खत्म हो गया है."
370 में से सिर्फ 189 लोगों को मिला घर
दिल्ली हाई कोर्ट ने आदेश में कहा था कि अतिक्रमण हटाने की कार्यवाही व्यवस्थित तरीके से की जानी चाहिए. कोर्ट ने कहा था कि निवासियों का पुनर्वास भी जरूरी है.
मीडिया से बातचीत में दक्षिण-पूर्वी दिल्ली के जिला मजिस्ट्रेट अनिल बंगा कहते हैं, "जो भी पात्र लोग हैं उनको डीडीए की तरफ से नरेला में मकान आवंटित करवाए गए हैं."
370 में से 189 परिवारों को नरेला में फ्लैट आवंटित किए गए हैं, लेकिन वे खुश नहीं हैं. द क्विंट से बातचीत में एक महिला कहती हैं, "घर तो मिला है, लेकिन वो जगह अच्छी नहीं है. यहां से 50 किलोमीटर दूर है. कोर्ट ने कहा कि जहां झुग्गी टूटेगी, वहां से 5 किलोमीटर के अंदर जगह देनी है. लेकिन नहीं दिया. 50 किलोमीटर दूर जगह दिया है, लेकिन हम यहां काम करते हैं. इतनी दूर से यहां काम करने कैसे आएंगे. यहां आने के लिए बस भी नहीं है."
"वहां बहुत दिक्कत है. कोई बाथरूम साफ नहीं है. गंदा पानी आता है. सामान चोरी हो रहा है. प्रशासन ने सामान ले जाने के लिए ट्रक तो भेज दिया, लेकिन वहां चोरी हो रही है. मैंने तो घर लेने से मना कर दिया है. अभी 17 हजार रुपये किराया देकर रहा हूं."शंकर, मद्रासी कैंप निवासी
45 सालों से मद्रासी कैंप में रहने वाले एम सुब्रह्मण्यम दिव्यांग हैं. बुलडोजर एक्शन में उनका घर भी टूटा है. वे सफाई का काम करते हैं और उनकी पत्नी हाउस हेल्पर के रूम में काम करती हैं. सुब्रह्मणयम अपने बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित हैं और कहते हैं, "हमें रोजगार चाहिए. जब तक मैं नहीं कमाऊंगा, मेरे बच्चे कैसे पढ़ेंगे. क्या मैं अपने बच्चे को भी झाड़ू लगाने भेज दूं."
वहीं जिन लोगों को पुनर्वास योजना के तहत घर नहीं मिला है, उनके भी अपने कई सवाल हैं. शिवा कहते हैं, "मेरे पास वोटर आईडी कार्ड, आधार कार्ड है, लेकिन मुझे अभी घर नहीं मिला है?"
ये लोग किराये पर मकान लेकर रह रहे हैं. उनका कहना कि डिमोलिशन के बाद से रेंट भी बढ़ा दिया गया है. अनिता बताती हैं, "अभी हमें 15-16 हजार रुपये रेंट देना पड़ रहा है. ऐसे वहां 9-10 हजार रुपये रेंट है. कार्रवाई के बाद से रेंट पर कमरों के लिए मारा-मारी होने लगी, जिसके बाद से किराया बढ़ गया है."
तैमूर नगर में एक महीने पहले चला था बुलडोजर
मद्रासी कॉलोनी से करीब 4 किलोमीटर दूर तैमूर नगर इलाके में एक महीने पहले हाईकोर्ट के आदेश के बाद बुलडोजर चला था. नाले की सफाई और चौड़ीकरण का हवाला देते हुए कार्रवाई की गई थी. करीब 100 घर तोड़े गए हैं. यहां रहने वाले ज्यादातर लोग रेंट पर दूसरे मकानों में शिफ्ट हो गए हैं.
घर के मलबे पर बैठी रानी कहती हैं, "1 मई को नोटिस लगाया गया और 5 तारीख को लोग तोड़ने के लिए आए थे. बोले कि ये जगह डीडीए की है." वे आगे कहती हैं, "हमसे 50 साल पहले भी तो कहा जा सकता था कि यहां झुग्गी मत बनाओ, ये डीडीए की जमीन है. हमारा आधार कार्ड, पहचान पत्र, राशन कार्ड, बिजली का बिल सब यहीं का है. ये भी तो सरकार ही बनाकर देती है और अब देखिए ये क्या कर दिया हमारे साथ."
प्रशासन की कार्रवाई में ज्योति का भी घर टूटा है. वे बताती हैं कि एक साल पहले ही उनका घर बना था, "बहन की शादी हुई थी और उसके बाद घर बनावाया था. मेरा कहना तो यही है कि टूटना है तो सबका टूटना चाहिए." सरकार की ओर से किसी तरह की मदद के सवाल पर वे कहती हैं, "लोग कह रहे हैं कि मिलेगा, लेकिन अभी तक कुछ मिला नहीं है."
दिल्ली में मद्रासी कैंप से लेकर तैमूर नगर तक कहानी एक ही है. मॉनसून से पहले नाले की सफाई, बाढ़ से बचाव और चौड़ीकरण का हवाला देकर डिमोलिशन तो हो गया लेकिन इस तोड़फोड़ ने कई सवाल खड़े किए हैं.
यहां रहने वाले सभी लोगों को रिहैबिलिटेशन के जरिए घर नहीं मिला, वे अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं, जिन्हें मकान मिला उनके भी कई सवाल और परेशानियां हैं. सवाल ये भी है कि जब ये बस्तियां अवैध थीं तो फिर चुनाव से पहले नेता और राजनीतिक दल यहां वोट मांगने क्यों आते थे? क्या इन अवैध बस्तियों के बसने और फिर फैलने के जानकारी अधिकारियों को नहीं थी? कौन जिम्मेदार हैं इन सब के लिए? सिर्फ यहां बसने वाले लोग या सरकारें?