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इस देश में जाटव भोजनालय,खटिक कैंटीन और पासी रेस्टोरेंट क्यों नहीं?

भारतीय समाज में अभी तक मानव को मानव समझने की समझदारी विकसित नहीं हुई है

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कुछ साल पहले कैलाश चंद्र चौहान की एक कहानी आई थी- हाइवे पर संजीव का ढाबा. इसमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश का दलित समुदाय का एक युवक गांव की जाति की जकड़न से थक-हार कर हाइवे पर ढाबा खोलता है और सफलतापूर्वक उसे चलाता है. उसने खाना बनाने और परोसने के काम पर गांव के दलितों को रखा है. कहानी बताती है कि ब्राह्मण समेत हर जाति के लोग उसके ढाबे पर खाना खाते हैं, जबकि गांव में वही लोग संजीव का छू जाना भी पसंद नहीं करते.

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ऐसा ही एक वास्तविक वाकया स्पेन से आया है. इसकी जानकारी डॉक्टर कौशल पंवार ने शेयर की है. डॉ. कौशल पंवार दिल्ली यूनिवर्सिटी में संस्कृत की असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. उन्होंने भारतीय धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया है. इसी विषय पर उन्होंने जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी से पीएचडी की है. वो देश और दुनिया के दर्जनों यूनिवर्सिटी में पेपर प्रेजेंट कर चुकी हैं. आमिर खान ने सत्यमेव जयते कार्यक्रम में जब जातिवाद का मुद्दा उठाया तो उनकी गेस्ट डॉ. कौशल पंवार थीं. हाल ही में उनकी मां का परिनिर्वाण हुआ है और वो इस समय शोक में है.

पिछले दिनों उनकी लिखी एक फेसबुक पोस्ट पर अचानक नजर ठहर गई. उन्होंने लिखा- “वाल्मीकि समाज का रेस्टोरेंट बार्सिलोना स्पेन में. झाड़ू से ऊपर उठकर सबको खाना खिला रहे हैं जितेंदर (बिल्ला) और उसकी स्पेनिश पत्नी. दोनों मिलकर शानदार होटल चला रहे है. बहुत बहुत बधाई. आज अपने समाज के होटल में खाना खाया.”

डॉ. पंवार दरअसल स्पेन के बार्सिलोना में स्थित अबाट ओलीवा यूनिवर्सिटी में धर्मशास्त्रों में जाति व्यवस्था विषय पर भाषण देनी गई थीं और फुरसत के क्षणों में वे जितेंदर के रेस्टोरेंट में पहुंच गईं. इस रेस्टोरेंट का नाम वेज वर्ल्ड इंडिया है और ये बार्सिलोना में इंडियन फूड का लोकप्रिय सेंटर है, जहां आने वालों में बड़ी संख्या में यूरोपीय लोग हैं. इस होटल का मैन्यू बहुत इंटरेस्टिंग है और यहां बैठकर आपको ये फीलिंग आ सकती है कि आप दिल्ली या जयपुर या लखनऊ के किसी रेस्टोरेंट में बैठे हैं. हालांकि इसकी साजसज्जा अंतरराष्ट्रीय स्तर की है.

क्या ये कोई खास बात है कि वाल्मीकि समाज का एक व्यक्ति देश से हजारों किलोमीटर दूर स्पेन के बार्सिलोना में अपना रेस्टोरेंट चला रहा है? इस बारे में चर्चा क्यों होनी चाहिए? आखिर इसमें ऐसा क्या खास है कि डॉ. कौशल पंवार इस बात का अलग से जिक्र कर रही हैं कि आज अपने समाज के होटल में खाना खाया? या कि जितेंदर किस तरह झाड़ू से ऊपर उठकर आज हजारों लोगों को खाना खिला रहे हैं?

दुर्लभ है खाना बनाने और खिलाने के बिजनेस में दलितों का होना

हम सभी जानते हैं कि ये कितनी खास बात है. भारत में 2018 में भी ऐसे इटिंग ज्वायंट शायद ही होंगे जिनका मालिक दलित, और उसमें भी वाल्मीकि समुदाय के हों और उन्होंने ये बात छिपाई न हो, और हर समुदाय के लोग वहां खाना खाते हों. खाना बनाने और खिलाने के बिजनेस में दलितों का होना एक दुर्लभ बात है.

परंपरागत भारतीय समाज व्यवस्था शुद्ध और अशुद्ध के द्वैत यानी बाइनरी में चलती है. कौन किसको छू सकता है, कौन किसका छुआ खा सकता है, किसका दिया हुआ कच्चा खाना शुद्ध है और किसके हाथ का बना पका खाना शुद्ध है, इसके बारे में बेहद पक्के और स्थिर नियम हैं, जिन्हें धर्मशास्त्रों की मान्यता प्राप्त है. वाल्मीकि समाज को सीढ़ीदार हिंदू समाज व्यवस्था में सबसे नीचे के पायदान पर रखा गया है और इसलिए वाल्मीकि जाति के किसी युवक का रेस्टोरेंट चलाना इस समाज व्यवस्था को बहुत बड़ी चुनौती है. अफसोस की बात है कि ऐसी चुनौती देने का माहौल अब तक देश के अंदर नहीं बन पाया है.

आदिम युग में जी रहा है समाज

भारत ने संविधान लागू होने के दिन से बेशक छुआछूत का कानूनी तौर पर अंत कर दिया है और छुआछूत रोकने के लिए बेशक देश में सिविल राइट्स एक्ट है, लेकिन एक्ट बनाकर किसी को किसी के रेस्टोरेंट में खाने को मजबूर तो नहीं किया जा सकता! मानव को मानव के बराबर समझने की चेतना और समझदारी तो समाज को खुद विकसित करनी होगी. अफसोस की बात है कि ये समझदारी अब तक विकसित नहीं हुई है.

भारतीय समाज कई मामलों में आदिम युग में ही जी रहा है. अभी भी कई मंदिरों के दरवाजे दलितों के लिए नहीं खुले हैं. किसी भी मंदिर का गर्भगृह दलितों के लिए नहीं खुला है. कर्मकांड कराने का उनका अधिकार नहीं है. शादी के समय घोड़ी चढ़ने पर हिंसा की घटनाएं अब भी हो रही हैं. रतलाम में एक दलित दूल्हे को हेलमेट पहनकर घोड़ी पर सवार होना पड़ा तो यूपी के कासगंज में जब एक दलित युवक की बारात घोड़ी पर निकली तो गांव के सवर्ण अपने घर बंद करके चले गए. ऐसी घटनाओं पर रोक नहीं लग पा रही है क्योंकि समाज ऐसी धारणाओं से मुक्त नहीं हो पा रहा है कि कुछ लोग शुद्ध हैं और कुछ अशुद्ध हैं.

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दलितों के लिए विदेश में रास्ता आसान

सवाल ये भी है कि जितेंदर ने जो रेस्टोरेंट बार्सिलोना में खोला है और जहां वे एक सफल उद्यमी है, क्या वे अपनी पहचान बताकर ऐसा ही रेस्टोरेंट दिल्ली, बेंगलुरू, मुंबई या जयपुर जैसे किसी शहर में चला सकते हैं?अगर वे अपनी गांव में चाय की दुकान चलाना चाहते तो क्या हर जाति और समाज के लोग उनकी दुकान में चाय पीने आते? शायद नहीं. इसलिए आप देश में अमूमन हर जाति सरनेम का भोजनालय पाएंगे. शुक्ला भोजनालय से लेकर यादव भोजनालय और तोमर ढाबा तक. लेकिन आपको जाटव भोजनालय, खटिक कैंटीन, पासी रेस्टोरेंट नहीं मिलेगा. यही भारतीय समाज की कड़वी सच्चाई है. भारतीय संविधान हर व्यक्ति को पसंद का रोजगार करने की आजादी देता है. लेकिन भारतीय समाज ऐसी छूट देने के लिए आज भी तैयार नहीं है.

जितेंदर जैसे लोग जब भारत में वाल्मीकि रेस्टोरेंट चलाएं और हर जाति के लोग सहजता से वहां जाएं और खाएं, तभी भारतीय समाज को आधुनिक माना जाएगा. ये सफर बहुत लंबा है. इसकी तुलना में जितेंदर का स्पेन पहुंचना और वहां रेस्टोरेंट चलाने का सफर आसान और सहज साबित हुआ. इसलिए जितेंदर का रेस्टोरेंट बार्सिलोना में है, दिल्ली में नहीं.

(दिलीप मंडल सीनियर जर्नलिस्‍ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है. आर्टिकल की कुछ सूचनाएं लेखक के अपने ब्लॉग पर छपी हैं.)

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