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लालू प्रसाद यादव से आखिर BJP इतना क्यों डरती है?

सीबीआई नहीं चाहती कि लालू प्रसाद कभी भी जेल से बाहर आएं, वरना...

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लालू प्रसाद बीमार हैं. उनकी दो बार हार्ट सर्जरी हो चुकी है. ह्रदय का एक वाल्व बदला गया है. उन्हें फिस्टुला है, जिसका इनफेक्शन डॉक्टरों को डरा रहा है. वे किडनी के मरीज हैं और हाइपरटेंशिव भी. उनका शुगर लेवल हाई है. वे लगातार डॉक्टरी देखरेख में हैं. उनसे मिलने गए लोग बता रहे हैं कि उन्हें चलने-फिरने और खड़े होने में दिक्कत आ रही है.

इलाज के लिए उन्हें पहले भी जमानत मिल चुकी है. लेकिन इस दौरान उन्हें राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहने का आदेश भी साथ में दिया गया. वे अगस्त से जेल में हैं क्योंकि अदालत ने उनकी जमानत को और बढ़ाने से इनकार कर दिया.

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लालू यादव के खिलाफ एक के बाद एक करके चार जिला ट्रेजरी से पैसे निकाले जाने के मामलों में सीबीआई अदालत सजा सुना चुकी है. ये सजाएं कुल मिलाकर 29 साल की हो चुकी हैं. इन मामलों में लालू प्रसाद पर रिश्वत लेने का आरोप नहीं था. आय से अधिक संपत्ति के मामले में वे सुप्रीम कोर्ट से बेदाग बरी हो चुके हैं. मुख्यमंत्री होने के नाते वे प्रशासन के मुखिया थे और अदालत ने माना कि वे उस आपराधिक षड्यंत्र में शामिल थे, जिसके तहत ट्रेजरी का पैसा निकालकर चारा सप्लायर्स को दिया गया.

सीबीआई की अपील पर सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने मई 2017 में ये आदेश दिया कि हर ट्रेजरी से पैसा निकाला जाना अलग अपराध है, इसलिए उनके मुकदमे अलग चलेंगे, जबकि हाई कोर्ट ने फैसला दिया था कि संविधान के अनुच्छेद 20(2) के तहत किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार सजा नहीं दी जा सकती.

सीबीआई नहीं चाहती कि लालू प्रसाद कभी भी जेल से बाहर आएं. वरना किसी बीमार व्यक्ति की जमानत की अर्जी का विरोध करने का कोई अर्थ नहीं है. थोड़ा पीछे देखने पर जवाब मिल जाता है.

पिछले पांच साल में बीजेपी ने राजस्थान से लेकर बिहार तक फैली विशाल हिंदी पट्टी में किसी भी बड़ी हार का सामना नहीं किया है. बीजेपी ने पूरी हिंदी पट्टी और आसपास के कई इलाके जीत लिए. राजस्थान, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ सब बीजेपी के झंडे तले आ गए. खासकर 2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद तो मानो बीजेपी का अश्वमेध का घोड़ा इस इलाके में कहीं रुकता नहीं दिखा.

इस दौरान, अकेला बिहार ऐसा हिंदी भाषी राज्य है, जहां विधानसभा चुनाव में बीजेपी की जीत के सिलसिले को ब्रेक लगा. दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी हारी, लेकिन ये एक महानगर में सिमटा राज्य है और केंद्र सरकार उसकी नगर निगम से ज्यादा हैसियत मान नहीं रही है.

2015 के बिहार विधानसभा की 243 सीटों के लिए मतदान हुए. देश और राज्य में बीजेपी और नरेंद्र मोदी की तथाकथित लहर जारी थी. बीजेपी को भारी जीत की उम्मीद थी. लेकिन, जब नतीजे आए तो बीजेपी को सिर्फ 53 सीटें मिलीं और वह प्रदेश में तीसरे नंबर की पार्टी बन गई.

लालू प्रसाद की आरजेडी को 81 और उनके साथ बीजेपी-विरोधी गठबंधन बना कर चुनाव लड़ रहे नीतीश कुमार की जेडीयू को 70 सीटें मिलीं. 2015 की यह बीजेपी की बहुत बड़ी हार थी क्योंकि एक साल पहले लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने बिहार में अकेले ही आधी से ज्यादा सीटें जीती थीं और विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने राज्य में बेहद सघन प्रचार किया था.

2015 का बिहार विधानसभा का चुनाव दरअसल लालू प्रसाद यादव का चुनाव था. केंद्र की सत्ता में आने के बाद बीजेपी बहुत जोश में थी. नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में वह एक अजेय चुनाव मशीनरी की तरह नजर आ रही थी. बीजेपी और संघ ने अपने बेशुमार कार्यकर्ता और संसाधन बिहार में झोंक दिए थे. लेकिन उसी दौरान संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत का एक बयान आरक्षण की समीक्षा के बारे में आया. इस बयान के बाद लालू प्रसाद रंग में आ गए. उन्होंने मोहन भागवत को ललकार लगाते हुए कहा-

तुम आरक्षण खत्म करने की कहते हो, हम इसे आबादी के अनुपात में बढ़ायेंगे. माई का दूध पिया है तो खत्म करके दिखाओ? किसकी कितनी ताकत है पता लग जायेगा.”उन्होंने एक और ट्वीट में कहा- “आरएसएस, बीजेपी आरक्षण खत्म करने का कितना भी सुनियोजित माहौल बना ले देश के 80 फीसदी दलित, पिछड़ा इनका मुंहतोड़ करारा जवाब देंगे.

इस तरह, लालू प्रसाद ने बीजेपी और संघ की कमजोर नस को जोर से दबा दिया. बीजेपी और संघ का विराट हिंदू का नारा, जाति की हकीकत के आगे खंड-खंड हो जाता है. जिस चुनाव में गोहत्या और सांप्रदायिकता को मुद्दा बनाने की कोशिश हो रही थी, उसकी धार को लालू प्रसाद ने मोड़ दिया और चुनाव सामाजिक न्याय के मुद्दे पर लड़ा गया. ये बीजेपी की कमजोर जमीन है. इस अखाड़े के उस्ताद लालू प्रसाद के मुकाबले नरेंद्र मोदी-अमित शाह और मोहन भागवत कमजोर पड़ गए.

सांप्रदायिकता विरोधी व्यापक गठबंधन बनाने की लालू प्रसाद की रणनीति की काट भी बीजेपी नहीं निकाल पाई. लालू प्रसाद ने इसके लिए अपनी पार्टी के राजनीतिक हितों को दांव पर लगा दिया और जूनियर पार्टनर जेडीयू के नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बना दिया. इतना ही नहीं, विधानसभा अध्यक्ष पद भी जेडीयू को दे दिया. नीतीश कुमार बाद में फिर से बीजेपी के पास चले गए. लेकिन यह एक और किस्सा है.

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जब लालू ने दोबारा बीजेपी पर लगाम कसना चाहा

बीजेपी की लगाम कसने का कारनामा लालू प्रसाद ने दूसरी बार किया था. 1990 में जब लालकृष्ण आडवाणी रथ लेकर देशभर में घूम रहे थे और पीछे-पीछे दंगों की कतार चल रही थी तो उन्हें रोकने का साहस सिर्फ लालू प्रसाद यादव ने दिखाया. वे उस समय बिहार के मुख्यमंत्री थे. आडवाणी 30 अक्टूबर को अयोध्या पहुंचकर राममंदिर का निर्माण शुरू करना चाहते थे. लेकिन लालू प्रसाद की पुलिस ने उन्हें 23 अक्टूबर को ही समस्तीपुर में गिरफ्तार कर लिया और नजरबंद करके मसानजोर गेस्ट हाउस में डाल दिया. इस गिरफ्तारी से पहले एक रैली में लालू प्रसाद कहते हैं-

चाहे सरकार रहे कि राज चला जाए, हम अपने राज्य में दंगा-फसाद को फैलने नहीं देंगे. जहां बवाल खड़ा करने की कोशिश हुई, तो सख्ती से निपटा जाएगा. 24 घंटे नजर रखे हुए हूं. जितना एक प्रधानमंत्री की जान की कीमत है, उतनी ही एक आम इंसान की जान की कीमत है.

1992 के अंत में अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिरा दी गई. उसके बाद देशभर में दंगे हुए, लेकिन बिहार आम तौर पर सांप्रदायिक हिंसा से बचा रहा. दो साल बाद हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी को बिहार में करारा झटका लगा. 1995 के विधानसभा चुनाव में अविभाजित बिहार की 324 सीटों में से लालू प्रसाद के नेतृत्व में जनता दल ने अकेले 167 सीटें जीत लीं. बीजेपी को सिर्फ 41 सीटों पर संतोष करना पड़ा.

लालू प्रसाद की दो खासियत संघ और बीजेपी को परेशान करती हैं. एक तो, लालू प्रसाद सांप्रदायिकता के मुकाबले सामाजिक न्याय के एजेंडे को मुख्य सवाल बनाने की क्षमता रखते हैं. और दो, लालू प्रसाद सांप्रदायिकता के खिलाफ कई दलों को मिलाकर गठबंधन बनाने में अक्सर कामयाब हो जाते हैं. लालू यादव अगर आज जेल से बाहर होते तो सांप्रदायिकता के खिलाफ महागठबंधन बनाने की कोशिशों के केंद्र में होते. सांप्रदायिकता से सीधे भिड़ने के मामले में उनका रेकॉर्ड न सिर्फ बेदाग, बल्कि शानदार है.

लेकिन इतना तो तय है कि बीजेपी खुश होगी कि इस समय उसके सामने आजाद लालू यादव नहीं हैं.

(दिलीप मंडल सीनियर जर्नलिस्‍ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है. आर्टिकल की कुछ सूचनाएं लेखक के अपने ब्लॉग पर छपी हैं.)

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