ADVERTISEMENTREMOVE AD

70 साल का भारतीय गणतंत्र: नेहरूवादी से ‘नीरोवादी सर्वसम्मति’ तक?

‘आइडिया ऑफ इंडिया’ या ‘भारत की सोच’ केवल नेहरू की सोच नहीं थी, बल्कि इस पर व्यापक सहमति रही थी

story-hero-img
i
Aa
Aa
Small
Aa
Medium
Aa
Large

“हम लाए हैं तूफान से किश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों सम्भाल के.”- प्रदीप का लिखा और मोहम्मद रफी का गाया हुआ यह प्रतिष्ठित गीत है. 1954 में बनी सत्येन बोस की निर्देशित फिल्म ‘जागृति’ के इस गीत से करोड़ों लोग जरूर परिचित होंगे.

मेरी पीढ़ी के स्कूली जमाने में (मेरा जन्म 1955 में हुआ) यह बेहद लोकप्रिय गीतों में एक था. बेहद लोकप्रिय और मार्मिक गीत, क्योंकि इसने हमारे राष्ट्रीय आंदोलन की यादों को जीवंत बनाया. इसके साथ-साथ एक ज़िम्मेदारी का भाव भी पैदा किया. इसकी यह खूबी अब भी बरकरार है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

‘आइडिया ऑफ इंडिया’ के 70 साल

हमारा गणतंत्र 70 साल का हो रहा है और इस गीत में दी गयी चेतावनी का औचित्य इतना ज्यादा पहले कभी नहीं था. हम लोकतांत्रिक गणतंत्र में इसलिए रह सके हैं, क्योंकि विश्वव्यापी तानाशाही विचार लोगों की आकांक्षा को दबाने में कामयाब नहीं हो सकी.

यहां तक कि आपातकाल के समर्थकों ने भी इसे अपवाद के तौर पर स्वीकार किया था न कि आदर्श के तौर पर. ‘70 साल बर्बाद हो जाने’ जैसे अनर्गल प्रलाप के विपरीत भारत ने जो सफर तय किया है वह प्रेरणादायी है.

उपनिवेशकाल में दोहन का शिकार होने के बाद दरिद्र हो चुका यह देश आज सुपर पावर की शक्ति लिए खड़ा है. विकास की यह उपलब्धि और भी बड़ी हो जाती है, अगर सभी गलतियों और कमियों को हम जोड़कर देखते हैं.

भारतीय लोकतंत्र ने दो ध्रुवों में बंटी दुनिया के बीच खुद को गुटनिरपेक्ष बनाए रखा और नये सामाजिक व राजनीतिक संसाधनों के लिए अवसर पैदा किए.

देश की अखंडता को बरकरार रखते हुए वास्तव में जटिल भारतीय सामाजिक संरचना को लोकतांत्रिक बनाने की राह कभी आसान नहीं रही. ऐसी मुश्किलें अब भी बनी हुई हैं. कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि हमारे संविधान में निहित आदर्शों को संतोषजनक तरीके से लागू किया गया है. समस्याओं के प्रति संवेदना से दूर चंद लोग ही इन उपलब्धियों को खारिज कर सकते हैं.

यह सब सम्भव इसलिए हो पाया है क्योंकि हमारे राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े नेताओं ने एक सोच के तहत आधुनिक भारत की नींव रखी. इसका आधार विविधता में एकता, असंतोष और वैचारिक भिन्नता को लेकर सहिष्णुता से जुड़ी पारम्परिक भारतीय मूल्य रहे.

तथाकथित ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ या ‘भारत की सोच’ केवल नेहरू की सोच नहीं थी, बल्कि इस पर व्यापक सहमति रही थी. नीरोवियन सर्वसम्मति के आने तक इसमें कोई बुराई नहीं थी. नीरो- रोमन साम्राज्य का शासक, जो तब भी बंसी बजा रहा था जब रोम जल रहा था.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

नीरोवियन सर्वसम्मति जैसी चीज वास्तव है?

दुर्भाग्य से ‘हां’.70 सालों में यह पहला अवसर है जब इस किस्म की पाखंडी व्यवस्था देश में चल रही है. डीके बरुआ बहुत पुराना किस्सा नहीं हैं जिन्होंने कहा था, “इंदिरा ही इंडिया हैं और इंडिया ही इंदिरा है.” और इसका खामियाजा उनकी पार्टी इंडियन नेशनल कांग्रेस भुगती, जिसे 1977 में सही सबक सिखा दिया गया.

लेकिन आज इस दौर का कोई भी आलोचक तुरंत ही राष्ट्र विरोधी करार दिया जाता है, उन्हें पाकिस्तान चले जाने की सलाह दे दी जाती है. मुख्यमंत्री ‘बदला लेने’ जैसी भाषा बोलते हैं. पूरे एक समुदाय का अपमान किया जाता है और उन्हें दोयम दर्जे के नागरिकों में बदलने की कोशिश की जा रही है.

सबसे बड़ी पार्टी न सिर्फ सीएए विरोधी प्रदर्शनों को, बल्कि अपने ही सहयोगी दलों की आशंकाओं को भी खारिज कर रही है. इसकी आईटी सेल और दूसरी सहयोगी संस्थाएं हर तरह की भ्रामक खबरें सुनियोजित तरीके से फैलाने के लिए बाहर निकल आए हैं. नोटबंदी जैसी आपदाओं की पेशेवर आलोचनाओं को भी ‘हार्ड वर्क’ यानी कठिन परिश्रम पर ‘हॉर्वर्ड की ईर्ष्या’ बता दिया गया. लोकतांत्रिक संस्थाओं और परम्पराओं की अनदेखी की गयी और बुद्धिजीवियों को खलनायक बना दिया गया.

अर्थव्यवस्था रसातल में जा रही है, बेरोजगारी सबसे ऊंचे स्तर पर है, करीब 63 फीसदी शिक्षित युवा इसकी चपेट में हैं. और, तब भी सरकार इसे स्वीकार करती नहीं दिख रही है और अपनी ही एजेंसियों के उपलब्ध कराये आंकड़ों को नजरअंदाज कर रही है.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

क्या भारतीय गणतंत्र संकट में है ?

मुझे यह याद करते हुए बहुत दुख हो रहा है कि 2015 में हुई एक टीवी डिबेट में मैंने भविष्यवाणी की थी, “वर्तमान व्यवस्था से आपातकाल के दौर वाले नेताओं जैसी जमात पैदा होगी और यहां तक कि औपचारिक रूप से आपातकाल की घोषणा नहीं होने के बावजूद भय का वातावरण बनेगा.”

वास्तव में हमारे समाज में हमेशा से सत्तावादी और बहुमतवादी सोच रही है. फर्क यह आया है कि इन दिनों ऐसी सोच और इससे जुड़ा आक्रामक स्वभाव समाज का साझा अहसास बनता जा रहा है. माना यह जाता है कि हम ज्ञान की क्रांति के दौर में हैं. फिर भी हर तरह की मूर्खतापूर्ण बकवास लगातार परोसी जा रही है और यह ‘हमारे गौरवपूर्ण अतीत’ के नाम पर हो रहा है. इसे उत्साह के साथ ऐसे लोग आगे बढ़ा रहे हैं जो ‘सबसे ज्यादा पढ़े लिखे’ (या हम कहें शायद अप्रशिक्षित) प्रबंधक और तकनीक के जानकार हैं. मीडिया के बड़े हिस्सा ने कर्त्तव्यनिष्ठा दिखलायी है और इस भयानक मार्ग पर चलने में सतत बड़ी भूमिका निभाई है.

70 साल का भारतीय गणतंत्र अभूतपूर्व चहुमुखी संकट का सामना कर रहा है. हिन्दी भाषी क्षेत्र, गुजरात और बंगाल व उत्तर पूर्व के हिस्से बहुमतवादी बुखार की चपेट में हैं. विपक्षी दलों में सच्चाई देखने की बेचैनी नजर नहीं आ रही. सौभाग्य से हाल की घटनाओं से संकेत मिलता है कि कुछ असंतोष है. लेकिन क्या यह असंतोष उभरते ‘नीरोवादी सर्वसम्मति’ का मुकाबला कर सकता है?

70 साल की उम्र में भारतीय लोकतांत्रिक गणतंत्र के सामने यही चुनौती है.

(लेखक पुरुषोत्तम अग्रवाल क्विंट हिंदी के कंट्रीब्‍यूटिंग एडिटर हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

Published: 
Speaking truth to power requires allies like you.
Become a Member
Monthly
6-Monthly
Annual
Check Member Benefits
×
×