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ताकि फेल-पास, परीक्षा के भय से दूर ही रहें बच्चे

क्या एग्जाम में पास होने की होड़ ने बच्चों के अंदर से सीखने क्षमता को कम कर दिया?

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एक दोस्त ने फोन पर हड़बड़ाई हुई आवाज में कहा कि उसका बाहर जाने का प्लान कैंसिल हो गया, क्योंकि उसकी बच्ची की एग्जाम की डेटशीट आ गई है. मेरे लिए अब यह हैरत की नहीं, दुःख की बात हो चली है. जानते हैं उस बच्ची की उम्र क्या है, सिर्फ सात बरस और वो अपर केजी में पढ़ती है.

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शहर के सबसे अच्छे स्कूल में पढ़ने वाली इस बच्ची के अभिभावक भी खासे पढ़े-लिखे समझदार हैं. बावजूद अपनी तमाम समझदारी और संवेदनशीलता के, वो भी परीक्षा जैसे भारी-भरकम शब्द के बोझ से अपनी बच्ची को बचा नहीं पा रहे. इन शब्दों के अलावा एक और शब्द है, जिसका आतंक खाए जा रहा है. बच्चों के ‘फेल’ होने का डर.

आखिर क्या होता है ‘फेल’ होना और क्या होता है ‘पास’ होना? यह सवाल मेरे लिए हर दिन बड़ा ही होता जा रहा है. सरकार इस पर अलग-अलग तरह से प्रयोग कर रही है. लेकिन अभिभावक के तौर पर, शिक्षक के तौर पर, क्या हम यह सब समझ पा रहे हैं या झोंके दे रहे हैं बच्चों को परीक्षाओं और फेल-पास के भंवर में.

पहले जब सरकार यह कानून लाई कि बच्चे अब फेल नहीं होंगे, तो जैसे लोगों की नींद ही उड़ गयी. इन लोगों में शिक्षक भी थे, अभिभावक भी. बच्चे फेल नहीं होंगे, तो पढ़ेंगे क्यों. सबको पता है कि पास हो ही जाना है, तो क्यों पढ़ेंगे.

जब सरकार ने कह ही दिया कि फेल नहीं होंगे बच्चे, तो हम भी क्या करें. पढ़ें न पढ़ें, प्रमोट करते जाओ. न बच्चों को हम मार सकते हैं, न फेल कर सकते हैं, तो भला कैसे और क्यों पढ़ेंगे बच्चे? ऐसी ही न जाने कितनी बातें अक्सर स्कूलों के गलियारों में सुनाई देती रहती थीं.

सीसीई खत्म होते ही एक शिक्षिका ने बच्चों को ताना मारा, '‘अब देखती हूं तुम लोगों को, अभी तक सीसीई के चक्कर में सब निकल जा रहे थे.’'

मानो शिक्षकों में कोई बेचैनी थी कि उनके पास कोई हथियार ही नहीं डराने का, तो बच्चों को कैसे सिखायेंगे वो. शायद यही वो दबाव रहा होगा, जिसके चलते राज्यसभा में बच्चों के दोबारा फेल होने का प्रस्ताव पास हो चुका है. हालांकि राज्यों को स्वायत्ता है कि वो इसे लागू करने न करने को लेकर स्वतंत्र होंगे.

मेरे लिए यह राज्यों की इच्छा, विधेयकों के पास होने न होने से परे की बात है कि हम खुद अपने बच्चों को लेकर कितने संवेदनशील हैं. बच्चे का स्कूल जाने का अर्थ क्या है आखिर, उद्देश्य क्या है, सीखना क्या है आखिर? क्या है इस बात का अर्थ कि ‘बच्चा कभी फेल नहीं होता, समूची व्यस्था फेल होती है.’

जब बच्चे फेल नहीं हो रहे थे, तब क्या वो सीख भी नहीं रहे थे, सोचकर देखिये. बस कि कुछ तय मानदंडों पर वो खरे नहीं उतर रहे थे और इसलिए उन पर फेल का ठप्पा लगना चाहिए था, जो कि नहीं लग पा रहा था और अब वो लग सकेगा.

फिर क्या होगा? सब ठीक हो जाएगा. एक ही कक्षा में एक बच्चा कई-कई साल पढ़ेगा, फिर स्कूल छोड़कर भाग जाएगा. फिर वो तितलियों के पीछे भागता फिरेगा, मछलियां पकड़ेगा, आम तोड़ेगा, खेतों में काम करेगा, पगडंडियों पर बांसुरी बजाएगा.

वो इस धरती के सारे सुखों को जिएगा और खूब प्रेम करेगा, सबसे क्योंकि वो कभी फेल हुआ था. बस उसके मन में स्कूल के नाम पर एक कसक रहेगी. हालांकि जो रिपोर्ट कार्ड में पास हुए, उनके जिन्दगी में पास होने को लेकर कई सवाल बने ही रहेंगे, बने ही हैं.
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जब यह कहा जाता है कि हर बच्चा सीख सकता है, तो फिर आखिर किस आधार पर बच्चों को फेल करके हम बच्चे की सीखने की क्षमता पर सवालिया निशान उठाने वाले हैं.

बच्चों को फेल न करने की नीति का अर्थ बच्चों के सीखने में किसी भी तरह की गिरावट आने देना तो नहीं था. उसका मकसद था कि चूंकि हर बच्चा अलग गति से सीखता है, अलग तरह से सीखता है, तो जरूरी नहीं कि एक जैसी परीक्षा नीति उसके अनुकूल हो.

हो सकता है वो इम्तिहानों में कॉपियो में ज्यादा अच्छा न लिख पाया हो, लेकिन असल में वो खूब जानता हो. तो उस जानने का सम्मान बचा रहे. अगर उनके जानने में कोई कमी रह गयी हो, तो भी किसी किस्म की कुंठा न रहे उनमें और उनके आगे अवसर हों बार-बार सीखने के.

सीखना महत्वपूर्ण है, सीखने को जज किया जाना शुरुआती स्तर पर तो जरूरी नहीं ही होना चाहिए. न पहले की नीति, जब बच्चे फेल नहीं होते थे, बच्चों के सीखने के विरोध में थी और न ही अब यह कि बच्चे फेल होंगे. क्योंकि यहां भी बच्चे को दोबारा परीक्षा देने का अवसर मिलेगा.

सवाल बच्चों का या फेल पास का कम है, सवाल हम सबका है कि हम सीखने, आगे बढ़ने को देखते किस तरह हैं. कितने संवेदनशील हैं हम अपने बच्चों के लिए कि उन्हें पीटकर और फेल होने के भय के साथ सिखाना चाहते हैं. या इन तमाम भय से इतर उन्हें मुक्त होकर खिलखिलाते हुए सीखने देना चाहते हैं. उन्हें गलतियां करते और गलतियां करते हुए सीखते देख खुश होते हैं.

मेरा जी तो चाहता है कि 'परीक्षा' और 'फेल' जैसे शब्द बच्चों के जीवन से हमेशा के लिए मिटा दिए जाएं. वो स्कूल आयें, खेलते-कूदते सीखने का आनंद लेते हुए बड़े हों, एक-दूसरे का हाथ थामकर, एक-दूसरे को पछाड़ देने की होड़ से परे.

चूंकि नीतियां कोई भी हों, हर हाल में फेल हमें ही होना है, बच्चों को नहीं. असल में इस मामले को ठीक से समझ लेना अपने ही पास होने की तैयारी है, क्योंकि बच्चे तो हर हाल में पास ही हैं.

(प्रतिभा कटियार जर्नलिस्‍ट और राइटर हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार लेखिका के हैं. इसमें क्‍विंट की सहमति जरूरी नहीं है)

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