तटीय गांवों से लेकर वन क्षेत्रों तक, द क्विंट बता रहा है कि कैसे जलवायु परिवर्तन भारत में जीवन और पारिस्थितिकी तंत्र को नया रूप दे रहा है. हम आप तक जलवायु परिवर्तन से जुड़ी खबरें इसी तरह पहुंचाते रहे, इसमें आप हमारी मदद द क्विंट का मेंबर बनकर कर सकते हैं.
उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में मंगलवार, 5 अगस्त को बादल फटने से आई विनाशकारी बाढ़ में कम से कम चार लोगों की मौत हो गई और कई लोगों के लापता होने की आशंका है. मूसलाधार बारिश के कारण आई इस बाढ़ के कारण खीर गंगा नदी उफान पर आ गई.
आपदा की जो तस्वीरें सामने आई है, उसमें देखा जा सकता है कि पानी की विशाल लहरें तेजी से आबादी वाले क्षेत्र की ओर बढ़ती है और अपने रास्ते में आने वाली हर चीज को बहा ले जाती है, जिसमें घर और लोग भी शामिल हैं.
यह सिर्फ एक त्रासदी नहीं है, बल्कि यह एक पैटर्न का हिस्सा है.
हिमालयी क्षेत्र में अत्यधिक बारिश की घटनाएं लगातार और तीव्र होती जा रही हैं, जिससे एक समय पूर्वानुमानित मानसूनी प्रवाह घातक बाढ़ में बदल रहा है, जिसके सबसे विनाशकारी परिणाम अचानक आने वाली बाढ़ यानी फ्लैश फ्लड्स हैं.
प्रत्येक बाढ़ की अपनी हृदय विदारक कहानी होती है, लेकिन इन आपदाओं की बढ़ती आवृत्ति और तीव्रता स्पष्ट रूप से जलवायु परिवर्तन को इसके मूल कारण के रूप में इंगित करती है.
कई सालों तक जलवायु पैटर्न, जल-जलवायु मॉडल और क्षेत्रीय वर्षा का व्यक्तिगत रूप से अध्ययन करने के बाद, मैं पुष्टि कर सकता हूं कि यह केवल एक व्यक्तिगत राय नहीं है, बल्कि मजबूत वैज्ञानिक अवलोकनों पर आधारित वास्तविकता है.
हिमालय से टेक्सास तक: जलवायु परिवर्तन ने कैसे विनाशकारी फ्लैस फ्लड्स को बढ़ावा दिया
चाहे वह हाल ही में टेक्सास में अचानक आई विनाशकारी बाढ़ हो या कुछ सप्ताह पहले हिमाचल प्रदेश में आई बाढ़, वैज्ञानिक लंबे समय से चेतावनी देते रहे हैं कि गर्म होती जलवायु, पिघलते ग्लेशियर और नाजुक पर्वतीय पारिस्थितिकी तंत्र में अनियंत्रित विकास इस प्रकार की आपदाओं के लिए आधार तैयार कर रहे हैं.
भारत में, मानसून हमारे जीवन का अभिन्न अंग है. कृषि इसकी प्रचुरता पर बहुत अधिक निर्भर करती है, और हमारी भूमि इसके जल से पोषित होती है. फिर भी, यही वर्षा कभी-कभी विनाशकारी शक्ति में बदल जाती है, जो गांवों को नष्ट कर देती है.
दशकों के अनुभव के बावजूद, हाल के मानसून के मौसम में खासकर हिमालय में, जो कुछ देखा गया है वह बेहद चिंताजनक रहा है. बारिश का पैटर्न लगातार अनियमित होता जा रहा है, बादल फटने और अत्यधिक बारिश की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं.
जो नदियां कभी धीरे-धीरे बहती थीं, अब कुछ ही मिनटों में उफान पर आ जाती हैं, जिससे अचानक बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएं होती हैं. पारंपरिक चेतावनी सिस्टम अक्सर इतनी तेज और बड़े पैमाने पर आने वाली घटनाओं के साथ कदम नहीं मिला पाते, जिससे लोग खतरे में पड़ जाते हैं और बचाव टीमों को दिक्कतों को सामना करना पड़ता है.
जलवायु परिवर्तन का असर सिर्फ ध्रुवीय क्षेत्रों या हिमालय तक ही सीमित नहीं है.
अमेरिका के टेक्सास राज्य का "हिल कंट्री" क्षेत्र अक्सर "फ्लैश फ्लड एली" (अचानक बाढ़ के गलियारा) के नाम से जाना जाता है. यह नाम उसे उसकी खास भौगोलिक बनावट, चट्टानी और मिट्टी में चिकनाई (क्ले) की अधिकता, और बार-बार होने वाली तेज बारिश की घटनाओं की वजह से मिला है. ये सभी कारण मिलकर वहां फ्लैश फ्लड यानी अचानक आने वाली बाढ़ को और भी खतरनाक बना देते हैं.
टेक्सास में हाल ही में आई विनाशकारी बाढ़, अत्यधिक बारिश, अस्थिर भू-भाग और जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभावों के खतरनाक मेल का नतीजा थी.
पहाड़ी या चट्टानी इलाकों में मिट्टी की पानी सोखने की क्षमता बहुत कम होती है, जिससे बारिश का पानी जल्दी बहकर नदियों और नालों में चला जाता है और कुछ ही मिनटों में खतरनाक फ्लैश फ्लड पैदा कर देता है.
हालांकि इस क्षेत्र में बाढ़ कोई नई बात नहीं है, लेकिन इस बार बाढ़ की तीव्रता और पैमाना अभूतपूर्व रहा — जो एक चिंताजनक नए पैटर्न की ओर इशारा करता है, जिसमें जलवायु परिवर्तन एक स्पष्ट और साझा कारण के रूप में सामने आ रहा है.
हाल की इस आपदा में 130 से ज्यादा लोगों की जान चली गई और 170 से अधिक लोग अब भी लापता हैं.
कैसे जलवायु परिवर्तन से बदल रहे बारिश और तूफानों के नियम
हर आपदा के लिए सिर्फ जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार ठहराना भले ही पूरी तरह सही न हो, लेकिन इसके बढ़ते और साफ असर को नजरअंदाज करना उससे भी ज्यादा गलत है.
तूफान, बाढ़ और बादल फटने की घटनाओं के पीछे कई कारण हो सकते हैं, लेकिन वैज्ञानिक प्रमाण दर्शाते हैं कि वैश्विक तापमान और वायुमंडलीय नमी में बढ़ोतरी के कारण ये घटनाएं लगातार, तीव्र और अप्रत्याशित होती जा रही हैं.
जैसा कि क्लॉसियस-क्लापेरॉन सिद्धांत में समझाया गया है, गर्म हवा में ज्यादा नमी होती है- हर 1°C तापमान बढ़ने पर हवा लगभग 7% ज्यादा नमी पकड़ सकती है. यह अतिरिक्त नमी वायुमंडल में अधिक ऊर्जा जमा करती है, जो सही परिस्थितियों में- जैसे कि जब गर्म, आर्द्र हवा किसी ठंडी हवा से टकराती है, तो अचानक तेज बारिश के रूप में बाहर निकलती है.
इससे अचानक और बेहद तेज बारिश होती है.
ठंडी, सामान्य परिस्थितियों में जो बारिश मध्यम स्तर की हो सकती है, वह अब बढ़ते तापमान के कारण अत्यधिक वर्षा में बदल रही है.
जलवायु परिवर्तन सिर्फ तापमान नहीं बढ़ाता, बल्कि बारिश के पैटर्न भी पूरी तरह से बदल देता है. जो लंबे समय तक सूखा लाता है, जिसके बीच-बीच में भारी वर्षा होती है, जिससे मौसम चक्र लगातार अनियमित होते जाते हैं और उनका पूर्वानुमान लगाना मुश्किल होता जाता है.
टेक्सास में आई भीषण फ्लैश फ्लड्स से लेकर यूरोप में रिकॉर्ड तोड़ गर्मी और भारत व अन्य देशों में बढ़ती जंगल की आग तक — ये सभी घटनाएं एक तेजी से गर्म होती दुनिया के संकट की ओर इशारा करती हैं.
उदाहरण के लिए, मैक्सिको की खाड़ी का गर्म होता पानी अब और भी ताकतवर तूफानों को बढ़ावा दे रहा है. यूरोप में ग्रीस, स्पेन और फ्रांस जैसे देश भयंकर गर्मी और लगातार बढ़ती जंगल की आग का सामना कर रहे हैं. ये न केवल मानव जीवन और पर्यावरण के लिए खतरा हैं, बल्कि इनसे भारी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड भी निकलती है, जो ग्लोबल वार्मिंग को और बढ़ा देती है.
'अप्राकृतिक आपदाएं'
हम अक्सर इन घटनाओं को 'प्राकृतिक आपदाएं' कहकर टाल देते हैं, थोड़ी चर्चा करते हैं और फिर अस्थायी मरम्मत या उपायों में लग जाते हैं. लेकिन असल में, यह स्थिति कहीं ज्यादा जटिल और खतरनाक है.
बेकाबू शहरीकरण, असंतुलित भूमि उपयोग, तेजी से बढ़ता औद्योगिक प्रदूषण और अनियंत्रित ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन- ये सभी मिलकर इन आपदाओं को और ज्यादा भीषण, अनिश्चित और समझ से परे बना रहे हैं. यह संकट सिर्फ विकसित देशों तक सीमित नहीं है.
जलवायु परिवर्तन का असर पूरी दुनिया में महसूस किया जा रहा है, लेकिन इसका सबसे बड़ा भार विकासशील देशों पर पड़ रहा है.
इन देशों ने वैश्विक प्रदूषण में सबसे कम योगदान दिया है, फिर भी उनके पास जलवायु आपदाओं से निपटने के लिए ना पर्याप्त पैसे हैं और ना ही तकनीकी संसाधन.
28 मई को नाइजीरिया के मोक्वा क्षेत्र में भारी बारिश के बाद एक बांध टूट गया, जिसमें 700 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई. यहां तक कि यूएई जैसे रेगिस्तानी देश, जहां महीनों तक बारिश नहीं होती, अब अचानक और बहुत तेज बारिश का सामना कर रहे हैं जिससे सड़कें और शहर जलमग्न हो जाते हैं.
साथ ही चीन जैसे संपन्न देश भी बाढ़ और खराब मौसम की बढ़ती जटिलता को संभालने में संघर्ष कर रहे हैं. इन घटनाओं से एक बात साफ है कि जलवायु परिवर्तन अब कोई दूर का खतरा नहीं, बल्कि वर्तमान का संकट बन चुका है.
इन भयावह घटनाओं से, खासकर हिमालय जैसे नाजुक क्षेत्रों में, यह चेतावनी मिलती है कि जब भारी बारिश और अस्थिर भौगोलिक स्थिति मिलती है, तो विनाश कितना भयानक हो सकता है.
यह कारगर और समय पर प्रारंभिक चेतावनी देने वाली प्रणाली की आवश्यकता को रेखांकित करता है.
IPCC (इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज) जैसे वैज्ञानिक संगठनों ने यह साफ़ कहा है कि मानव गतिविधियां ही जलवायु परिवर्तन की सबसे बड़ी वजह हैं.
पेरिस समझौता इस संकट से निपटने के लिए पूरी दुनिया का एक साझा प्रयास था.
इस समझौते में जो 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा तय की गई है, वह केवल एक वैज्ञानिक संख्या नहीं है. यह एक बहुत महत्वपूर्ण चेतावनी सीमा है. अगर हम इससे ऊपर जाते हैं, तो पृथ्वी में ऐसे बदलाव शुरू हो सकते हैं जिन्हें वापस लाना नामुमकिन होगा — जलवायु आपदाएं और ज्यादा गंभीर, व्यापक और नियंत्रण से बाहर हो जाएंगी.
लेकिन अफसोस की बात है कि दुनिया के कई नेता इस बढ़ते संकट की अनदेखी कर रहे हैं.
टेक्सास और हिमालय में आई फ्लैश फ्लड्स सिर्फ कुछ समय की सहानुभूति पाने वाली घटनाएं नहीं हैं — ये निकट भविष्य के खतरे की सख्त चेतावनी हैं.
हिमनद झीलों के फटने से आई अचानक बाढ़ से कई गांव तबाह हो गए हैं. भीषण बाढ़, तेजी से बढ़ती जंगल की आग और गंभीर सूखा तेजी के साथ लगातार देखने मिल रही हैं.
अगर हम जलवायु परिवर्तन से उसकी मांग के अनुसार गंभीरता से और समय रहते निपटने में नाकाम रहे, तो हमारा भविष्य निश्चित रूप से कठिनाइयों से भरा होगा. हमारी पृथ्वी अब ऐतिहासिक रूप से लगभग 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म है, ठीक वही सीमा जिससे बचने का हमारा लक्ष्य था.
आज, ठोस कार्रवाई की तत्काल जरूरत है. जलवायु परिवर्तन को स्वीकार करना और उसका सक्रिय रूप से सामना करना अब केवल एक विकल्प नहीं, बल्कि अनिवार्य जरूरत बन गया है. टेक्सास से लेकर हिमालय तक, भविष्य की लड़ाई वास्तव में हमारे अपने हाथों में है.
(डॉ. प्रतीक काड एक जलवायु वैज्ञानिक हैं और फिलहाल नार्वे के बर्गन शहर स्थित NORCE रिसर्च संस्थान में पोस्टडॉक्टरल रिसर्चर के रूप में कार्यरत हैं. वे Bjerknes Centre for Climate Research से भी जुड़े हैं.)