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एसपी सिंह का कंधे पर वो स्पर्श आज भी वहीं है, वो 4 शिक्षक जिन्होंने मन को छुआ

Teacher's Day:राजेंद्र प्रसाद ठाकुर, बालकवि बैरागी, भवानी प्रसाद मिश्र...वो शिक्षक जिन्होंने मुझे संजय पुगलिया बनाया

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हमारी जिंदगी में अनगिनत शिक्षक होते हैं. हमें पता चले या न चले, हम मानें या न मानें; हर दिन हम किसी से कुछ सीखते हैं. उन सबको धन्यवाद दे पाना नामुमकिन है. ऐसे सभी ज्ञात और अज्ञात लोगों का आभार व्यक्त करते हुए मैं कुछ लोगों का जिक्र करना चाहता हूं, जिनसे मैंने बहुत सीखा, जिनका मुझ पर गहरा प्रभाव है.

शुरू से शुरू करता हूं.

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राजेंद्र प्रसाद ठाकुर

राजेंद्र सर ने मेरे सभी भाइयों और बहनों को पढ़ाया. तब स्कूली पढ़ाई के अलावा घर (साहिबगंज, झारखंड) पर ट्यूशन एक जरूरी चीज थी. साफ बोलना, शुद्ध उच्चारण और उत्कृष्ट भाषा पर उनका बहुत जोर रहता. टीचर का मतलब गंभीर और कड़ियल, लेकिन राजेंद्र सर वैसे नहीं हैं. बेहद दोस्त दिल भी और चेहरे एक खास चमक, जो ऊंचे बौद्धिक विश्वास से आती है. वो शहर के कई परिवारों के सदस्य हैं. हमारे भी परिवार का हिस्सा रहे. मैं घर में सबसे छोटा था, तो मुझे उनका सबसे ज्यादा दुलार भी मिलता.

तीसरी क्लास तक होम स्कूलिंग के बाद मैं स्कूल गया सीधे चौथी क्लास में. तब पता चला कि वो कितने 'क्रूर' हैं. माना कि मैं पढ़ाई में थोड़ा फिसड्डी था, लेकिन उनकी वजह से मैं फेल हो कर एक और साल के लिए चौथी में अटक गया. जिस विषय की कापी उन्होंने जांची, उसमें मुझे उन्होंने पास मार्क भी नहीं दिए.

कुछ वक्त गुजर जाने के बाद उन्होंने सच्चाई बताई. पर्चा कमजोर था. एक बार उन्होंने मुझे पास होने के लिए जरूरी तीस नंबर देने का विचार बनाया, लेकिन थोड़ा सोचने के बाद उतने ही दिए, जितने मिलने चाहिए थे, क्योंकि उन्होंने सोचा कि एक बार ढील दी तो आगे के लिए ये ढिलाई मेरा नुकसान करेगी.

सबक - क्रूर, निष्पक्षता और निरपेक्षता क्या होती है, उसका बोध उन्होंने मुझे बेहद छोटी उम्र में दे दिया. मेरा ये दावा नहीं कि जो भी अच्छा मैंने सीखा है, मैं उसका पालन करता ही हूं. शिक्षक दिवस पर ये लेख मैं ये बताने के लिए लिख रहा हूं कि मैंने किनसे क्या सीखा.

मैं हाई स्कूल तक सहमा सकुचाया सा प्राणी था, लेकिन खुला कॉलेज में आ कर. वहां क्लास से ज्यादा मन एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटी में लगता, जिसकी वजह से कई शिक्षकों ने टेक्स्ट बुक के बाहर की दुनिया दिखाई. उस दौर में वार्षिक समारोहों में सुल्ताना डाकू टाइप नाटक होते थे. तब हमारे अनेक शिक्षकों ने कैंपस में नयी हवा बहाई. प्रो. श्याम किशोर सिंह ने विजय तेंदुलकर का बेहद चर्चित नाटक चुना - 'पंछी ऐसे आते हैं'. मुझे लीड रोल मिला. उन्होंने ललित कला के विषयों में मेरी रुचि जगाई और उसको आकार दिया.

डिबेट प्रतियोगिताओं में भाग लेने का फायदा ये हुआ कि प्रो. अरुण कुमार सिन्हा ने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विषयों का संसार खोला. वो अंग्रेजी के ज्ञाता हैं. डिबेट की तैयारी के चक्कर में उनकी वजह से फ्यूचर शॉक और एनिमल फार्म जैसी किताबों की दुनिया देखी.

प्रो. रामेश्वर मंडल ने इतिहास, न्याय और बराबरी जैसे सामाजिक संदर्भ को समझने के रास्ते खोले. विवेकानंद झा केमेस्ट्री पढ़ाते, लेकिन विवेकानंद वाले अध्यात्म की बातें भी उन्होंने सिखाई. प्रो नसीर अहमद अंसारी जंतु विज्ञान के प्रोफेसर थे, लेकिन राजनीति, जंगल, जमीन और पर्यावरण के बड़े सवालों पर उनकी बहस ने मौजूदा वक्त को समझने में मदद की.

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बालकवि बैरागी

जब मैं तेरह साल का था तब देश के जाने-माने कवि, गीतकार (रेशमा और शेरा समेत कई फिल्में) और राजनीतिज्ञ बैरागी जी हमारी जिंदगी में आए. उनकी वजह से एक नया संसार खुला. मां और पिता तो सभी के पहले शिक्षक होते हैं. मैं यहां उनकी चर्चा छोड़ रहा हूं. लेकिन बैरागी जी से संपर्क की वजह थी मां की कहानी, कविता, पत्र-पत्रिकाओं और साहित्य में रुचि. बेहद व्यस्त, घुम्मकड़ बैरागी जी हमारी हर चिट्ठी का जवाब देते. वो सबकी मदद करते. ये सब उनकी आदत में था. वो हमारे परिवार के करीबी अंग बन गए.

अगर मैं फैमिली बिजनेस में नहीं गया और "कुछ और" करने की सोची तो उसके पीछे बैरागी जी का अनायास लेकिन काफी अहम रोल है. उनकी भाषा, उनका बोलना, उनकी किस्सागोई उनके ठहाके - हर चीज लाजवाब थी. वो विश्व मंच पर थे, लेकिन उनका ठिकाना उनका गांव मनासा (मध्य प्रदेश) ही रहा. न दिल्ली, न मुंबई, न भोपाल. उनकी पूरी जीवन शैली मेरे लिए एक निरंतर शिक्षा रही.

इस टीचर ने मुझे कई नए टीचर दिए, जिनमें व्यंग्यकार शरद जोशी (फिल्म- छोटी सी बात, टीवी - ये जो है जिंदगी) और देश के महानतम कवि और गांधीवादी चिंतक भवानी प्रसाद मिश्र (जी हां हुजूर, मैं गीत बेचता हूं) उल्लेखनीय हैं. इत्तफाक रहा कि शरद जी मुंबई में मेरे पड़ोसी भी हो गए. तब उनका दैनिक व्यंग्य कॉलम प्रतिदिन नवभारत टाइम्स में छपता था. मैं उनका कोरियर बन गया. उनका कॉलम प्रकाशन के लिए रोज दफ्तर ले जाता.

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इस दफ्तर में भी मेरे कई मार्गदर्शक थे. स्थानीय संपादक विश्वनाथ सचदेव, मेरे सीनियर कमर वहीद नकवी और रामकृपाल से भी खूब सीखा.

इसी लिए मैंने कहा कि मेरे अनगिनत शिक्षकों की रैंकिंग असंभव है. लेकिन अगर मुझे "टीचर इन चीफ" चुनना ही पड़े, तो मैं दो नाम एक साथ रखूंगा. भवानी भाई के साथ-साथ देश के महानतम पत्रकार और असली संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह.

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भवानी प्रसाद मिश्र

उनके लेखन और उनके सान्निध्य में अनगिनत जिंदगियों को परिष्कृत किया है. शब्दों में कह पाना मुश्किल है. एक लाइन में कहना हो तो ये- उन्होंने जिंदगी का पूरा फलसफा सिखाया. ऊंचे मानवीय मूल्यों को बिना उपदेश के रोज की जिंदगी में कैसे अपनाया जाए, अहंकार कैसे पिघले, सरलता सबसे कठिन आदत है, वो सरलता स्वाभाविक अंग कैसे बने. विनम्रता और दृढ़ता दोनों एक साथ कैसे साधें, प्रेम में खुद को लुटा देना, कुछ भी त्याग देना, अपेक्षा ना रखना - ये सब भवानी भाई ने सिखाया.

उनकी एक कविता है "मेरे कुछ करने से एक भी मन खिला तो मुझे कितना मिला." किशोर वय में बस ये एक लाइन मेरी जिंदगी का सूत्र वाक्य बन गयी. यूं कह सकते हैं कि महावीर, बुद्ध और गांधी की सारी बड़ी सीख का प्रतिबिम्ब प्लस थे भवानी भाई, जो साधारण गपशप में आपको समृद्ध कर देते थे. उनकी आधा दर्जन मुलाकातें, दो दर्जन चिट्ठियां और कुछ किताबें मेरे जीवन की परम संपदा हैं. निरंतर कक्षा हैं.

भवानी प्रसाद मिश्र ने मुझे लिखा था-

"एक क्षण का यह अनुभव है. हो सकता है यह अर्धसत्य लगे या असत्य. लेकिन ये भी तुम मानोगे कि ये जो अनुभव किया गया है और कहा गया है, पूर्णसत्य है. जीवन में हमें कितने ही लोग मिलते हैं. और उन सब का प्रतिदान हम को मिला होता है. उन सब के व्यक्तित्व का वह जो बहुत कीमती, सुंदर और दीप्त होता है व हमारा अंश बन जाता है. और तब हम चले आते हैं और जरा भी दुखी नहीं होते. वरन कहीं बहुत खुश होते हैं और उन सबों के प्रति कृतज्ञ जो अब हम में ही कहीं जी रहे होते हैं."

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सुरेन्द्र प्रताप सिंह

कॉलेज की दिनों की जद्दोजहद ये थी कि करना क्या है. एसपी ने जवाब दे दिया. वो धर्मयुग छोड़कर समाचार पत्रिका रविवार के संपादक बन कर कोलकाता गए. हिंदी पत्रकारिता का ये नया मोड़ था. मुझे उनकी समाचार प्रधान पत्रकारिता ने आकर्षित किया. हालांकि, मेरे करियर की शुरुआत मुंबई में धर्मयुग और नवभारत टाइम्स से हुई, लेकिन एसपी के साथ काम करने की मुराद तब पूरी हो गयी, जब वो रविवार में आठ साल गुजारने के बाद नवभारत टाइम्स, मुंबई संभालने आ गए. फिर नवभारत टाइम्स दिल्ली गए और फिर आजतक. दोनों जगह मैं उनके पीछे-पीछे.

एसपी ने हिंदी पत्रकारिता को अनुवाद और अंग्रेजी के असर से बाहर निकला, धार दी, जिम्मेदारी के साथ आक्रामक तेवर दिए. खबरों में पसरे दास भाव और रूढ़िगत आदतों को तोड़ा. पूरे मूर्तिभंजक थे. टीवी में भी इसी काम को आगे बढ़ाया. जब टीवी पर विदेशी न्यूज शो की नकल पर भारत में एलीट भाव से टीवी पत्रकारिता शुरू हुई, तब एसपी ने भारत की जमीनी हकीकत और नए राजनीतिक-सामाजिक भारत को पेश करने वाला आजतक गढ़ा. बीस मिनट के इस कार्यक्रम ने देश में टीवी पत्रकारिता का नया दौर शुरू कर दिया. आज का न्यूज टीवी, एसपी वाला कतई नहीं है. भारत की टीवी पत्रकारिता पर जब कोई मौलिक शोध लिखा जाएगा, तो पता चलेगा कि जो पत्रकारिता की अच्छी इमारतें हैं, उनमें एसपी के नाम की कई ईटें लगी हुई हैं.

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एसपी जब मुंबई आए, तब मैं कई लोकल बीट्स में हाथ-पैर मार रहा था. मुंबई में पुलिस, कस्टम विभाग, इनकम टैक्स, एयरपोर्ट काफी सक्रिय बीट्स रहीं हैं. एसपी के आने के बाद ऐसी खबरों को तवज्जो मिलने लगी और रिपोर्टिंग में एक नई बीट और नई थीम ने जन्म ले लिया. आर्थिक अपराध या वाइट कॉलर क्राइम. नभाटा तब पहला अखबार था, जहां अंग्रेजी अखबारों से भी पहले ये इनोवेशन हुआ.

एसपी केबिन वाले संपादक नहीं थे. इसलिए वो हमें अनेक बेशकीमती, लेकिन छिपे हुए "सूत्रों" से भी मिलवाते थे.

वो स्थितप्रज्ञ थे. जब हिंदी पत्रकारिता को वो स्टारडम दे रहे थे, तो सच का सामना भी कराते रहते. एक दिन कहा कि पत्रकार टिटहरी चिड़िया की तरह हैं, जो बारिश में इस गुमान में अपने पैर ऊपर कर लेती है कि अब आसमान फटेगा और गिरेगा तो वो अपने पैरों से रोक लेगी, क्योंकि धरती को बचाना उसी के भरोसे है.

ये देखिए उनकी स्ट्रेस मैनजमेंट की क्लास. एक दिन मैं किसी बात पर अपने प्रकाशक प्रबंधन से नाराज था. एसपी से भड़ास निकाली तो वो जो बोले वो अमूल्य है, सूक्ष्म है. बोले, "संजय, अगर ब्लड प्रेशर से बचना हो तो जीवन में ये चार चीजें सुधारने की कोशिश में कभी खून मत जलाओ- गंगा नदी को साफ करना, अमुक धर्म, भारत सरकार और अमुक प्रकाशन ग्रुप को सुधारना. इससे बचो!"

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एसपी एक "कल्ट फिगर" थे. आजतक में बुलेटिन पढ़ने के बाद वो जब दफ्तर से निकलते तो कनॉट प्लेस के पार्किंग लॉट में टीम उन्हें छोड़ने जाती. मैं कभी जाता तो पीछे खड़ा रहता. उपहार सिनेमा की त्रासद घटना वाली रात (13 जून 1997) का बुलेटिन पढ़ कर वो बेहद भारी मन से निकले. हम सब रोज की तरह कार तक छोड़ने गये, तो गाड़ी में बैठने के पहले उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखा. ये रूटीन का पार्ट नहीं था.

वो स्पर्श आज भी वहीं है.

हम सब उनसे सम्मोहित थे. मेरे लिए उनके साथ होना और हर तरह के काम करना सब से बड़ी खुशनसीबी है. मुझ जैसे ढेर सारे लोग हैं, जो एसपी के बनाए हुए हैं. मैं उनका कितना योग्य शिष्य बन पाया, ये तो नहीं पता, लेकिन उनकी बतायी बातें, उनके फैसले और उनका नजरिया हर दिन मुझे रास्ता दिखाता है.

यहां मैंने उन कुछ लोगों के बारे में आपसे अपनी बात साझा की है, जिन्होंने जिंदगी के फॉर्मेटिव फेज में मुझ पर गहरी छाप छोड़ी. लेकिन सीखने का सिलसिला अनवरत है, तो शिक्षकों का मिलना भी अनवरत. अगर अपनी जिज्ञासाएं जिंदा और फोकस साफ हो, तो हर दिन शिक्षक दिवस है.

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