फायदे में रहे केवल पुतिन
सुमित गांगुली ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि किसी भी शिखर सम्मेलन से पहले व्यापक तैयारी आवश्यक होती है, जिसमें एजेंडा तय करना और मतभेद सुलझाना शामिल है. आमतौर पर बैठक में केवल छोटी-मोटी बातें निपटाई जाती हैं. रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के बीच जल्दबाजी में आयोजित शिखर सम्मेलन ने तैयारी की कमी को उजागर किया, खासकर अमेरिकी पक्ष से. ट्रम्प ने दावा किया था कि वह यूक्रेन युद्ध को 24 घंटे में खत्म कर देंगे, जो नहीं हुआ. इस बैठक का उद्देश्य स्पष्ट नहीं था. कुछ विश्लेषकों का मानना है कि ट्रम्प नोबेल पुरस्कार की उम्मीद में पुतिन से मिले. हालांकि, गाजा या यूक्रेन जैसे संघर्षों में कोई प्रगति नहीं हुई.
सुमित गांगुली लिखते हैं कि अलास्का में हुई इस बैठक में केवल इतना तय हुआ कि चर्चा जारी रहेगी. अमेरिकी पक्ष की अपर्याप्त तैयारी ने पुतिन को जनसंपर्क में आसान जीत दिलाई. एक दशक बाद पुतिन अमेरिकी धरती पर आए, वह भी राष्ट्रपति के निमंत्रण पर. 2023 से युद्ध अपराधों के लिए अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय में अभियुक्त पुतिन को इस मुलाकात ने वैश्विक वैधता का आभास दिया. ट्रम्प ने उन्हें “द बीस्ट” लिमोज़ीन में शामिल होने का असामान्य सम्मान दिया, जो सहयोगी देशों के नेताओं को भी शायद ही मिलता है.
इसके विपरीत, यूक्रेनी राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की के साथ ट्रम्प की फरवरी की बैठक में तनाव और आलोचना देखी गई. इस शिखर सम्मेलन में ट्रम्प यूक्रेन युद्ध में युद्धविराम तक नहीं करा सके. संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में कोई सवाल नहीं लिया गया. ट्रम्प ने प्रगति का दावा किया, लेकिन बिना विवरण के. यह स्पष्ट है कि यह जल्दबाजी में आयोजित बैठक का कोई ठोस परिणाम नहीं निकला. ट्रम्प की बातचीत की कथित कुशलता, विवरणों की अनदेखी, और शान-शौकत के प्रति शौक ने अमेरिकी विदेश नीति के लिए एक और खोखला परिणाम दिया. इस शिखर सम्मेलन से केवल पुतिन को ही लाभ हुआ, बिना यूक्रेन युद्ध में कोई रियायत दिए.
ट्रंप के दंडात्मक एक्शन को कमतर आंकने की भूल
हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य ने लिखा है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने नोटबंदी जैसी आर्थिक आपदा को राजनीतिक जीत में बदला. सरकार कोविड-19 महामारी से निपटी और भूमि अधिग्रहण व कृषि कानूनों जैसे जोखिमों से बिना नुकसान के बाहर निकली. रोजगार सृजन के लिए विनिर्माण क्रांति में सीमित सफलता के बावजूद, यह राजनीतिक रूप से प्रभावशाली रही और बहु-वर्गीय, बहु-जातीय गठबंधन को बनाए रखा. फिर भी, अमेरिका के साथ संबंधों में इसने चूक की. भारतीय जनमानस अमेरिका के व्यवहार से नाराज है, भले ही सभी इस द्विपक्षीय संबंध के महत्व को समझते हैं. मोदी सरकार ने अमेरिका को पढ़ने में गलती की. इस साल की शुरुआत से, खासकर 10 मई को जब डोनाल्ड ट्रम्प ने युद्धविराम का श्रेय लिया, तनाव के संकेत स्पष्ट थे.
चाणक्य लिखते हैं कि 90 दिनों से अधिक समय में, भारत अपनी शक्ति के बावजूद ट्रम्प के विश्व में प्रगति करने या बातचीत को मोड़ने में विफल रहा. ट्रम्प की अप्रत्याशितता के बावजूद, कुछ देश अपनी मांगें मनवाने में सफल रहे.यह चूक मोदी-ट्रम्प के व्यक्तिगत तालमेल को अधिक महत्व देने से हुई. टेक्सास और भारत की रैलियों ने नई दिल्ली को विश्वास दिलाया कि व्यक्तिगत सद्भावना भू-राजनीतिक दबावों को हावी कर सकती है.
फरवरी 2025 में मोदी की वाशिंगटन यात्रा में टैरिफ रियायतें दी गईं, लेकिन ट्रम्प के व्यापार असंतुलन, भारत के रूसी तेल खरीद, और नोबेल पुरस्कार की खोज पर ध्यान ने गतिशीलता बदली. 50% टैरिफ और पाकिस्तान के साथ उनकी नजदीकी ने भारत को अप्रत्याशित पकड़ा. भारत की रणनीतिक स्वायत्तता की परीक्षा हुई. रूसी तेल आयात पर अडिग रहने के बावजूद, ट्रम्प की दंडात्मक कार्रवाइयों को कम करके आंका गया. नई दिल्ली का तेजी से बदलाव न कर पाना आश्चर्यजनक है, क्योंकि यह जटिल भू-राजनीति को संभालने में माहिर रही. अब, सितंबर 2025 की संयुक्त राष्ट्र यात्रा संबंधों को रीसेट करने का अवसर है, लेकिन इसके लिए कुशल कूटनीति चाहिए ताकि ट्रम्प की प्राथमिकताओं के साथ तालमेल बिठाया जाए, बिना भारत की सीमाओं का त्याग किए.
बांग्लादेश में ‘मानसून क्रांति’ के एक साल
टीसीए राघवन ने टेलीग्राफ में लिखा है कि मानसून क्रांति की पहली वर्षगांठ ने दक्षिण एशिया के इतिहास में बांग्लादेश का स्थान पक्का कर दिया, हालांकि इस देश का भविष्य अनिश्चित है. यह क्षेत्र सरकारों के अचानक परिवर्तनों से परिचित है, परंतु इस नागरिक विद्रोह ने सत्ता और शासन की संरचना को उखाड़ फेंका, जो क्रांति के करीब है. श्रीलंका की जुलाई 2022 की अरागलया, जिसने गोटाबाया राजपक्षे की सरकार गिराई, इससे मिलती-जुलती है, लेकिन वहां संवैधानिक प्रक्रिया बहाल हुई. बांग्लादेश में 2026 के लिए घोषित चुनावों का संवैधानिक ढांचा और धर्मनिरपेक्ष तानाबाना अनिश्चित है. मई 2023 में पाकिस्तान में इमरान खान की गिरफ्तारी के बाद असफल विद्रोह हुआ, जिसमें सैन्य स्थलों को निशाना बनाया गया. यह यथास्थिति नहीं बदल सका, लेकिन पाकिस्तान में सेना की छवि को झटका लगा.
टीसीए राघवन लिखते हैं कि 1980 के दशक से बांग्लादेश और पाकिस्तान के रास्ते अलग हुए. बांग्लादेश की कम प्रजनन दर, बेहतर आय, साक्षरता, और सामाजिक संकेतकों ने इसे आगे बढ़ाया, जबकि पाकिस्तान की सुरक्षा-केंद्रित नीति ने उसे पीछे धकेला.मानसून क्रांति ने दोनों देशों की राजनीतिक संस्कृति का अंतर दिखाया. बांग्लादेश में छात्रों ने जुलाई-अगस्त 2024 में परिवर्तन का नेतृत्व किया और नई पार्टी बनाकर नया संविधान मांगा.
पाकिस्तान में छात्र राजनीति दशकों से शांत है, जिया-उल-हक द्वारा यूनियनों पर प्रतिबंध के बाद. पाकिस्तान में कभी ऐसी क्रांति नहीं हुई. मानसून क्रांति ने बांग्लादेश को पाकिस्तान के करीब लाया. अप्रैल में पाकिस्तानी विदेश सचिव की ढाका यात्रा और सहयोग के बयानों ने पाकिस्तान-चीन-बांग्लादेश अक्ष की शुरुआत की, जिससे भारत चिंतित है. भारत और बांग्लादेश की विशाल सीमा सहयोग और संदेह दोनों को जन्म देती है. बाहरी शक्तियों की भूमिका रही होगी, लेकिन भ्रष्टाचार और कुप्रशासन से त्रस्त छात्रों और अन्य की घरेलू गतिशीलता प्रभावी थी. 1947 और 1971 के आधारों के साथ 2024 का नया उत्साह उभरा है, जिसे समझने और समायोजित करने की जरूरत है.
एआई से मजबूत हुआ है चरमपंथ
एमके नारायणन ने द हिन्दू में लिखा है कि इतिहास में भविष्यवाणियां करना जोखिम भरा रहा है, और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) ने आज इसे और जटिल बना दिया है. सबसे सुरक्षित भविष्यवाणी यह है कि चीजें जैसी हैं, वैसी रहेंगी. नेताओं को इसे ध्यान में रखना चाहिए. 11 सितंबर, 2001 के न्यूयॉर्क हमले के एक चौथाई सदी बाद, आतंकवाद का खतरा कम नहीं हुआ. ‘नकलची हत्याएं’ और इस्लामिक स्टेट (आईएस)-प्रेरित वाहन चालित हमले, जैसे 1 जनवरी को न्यू ऑरलियन्स में हुआ, बढ़ रहे हैं. यूरोप में भी आईएस ने कई समान हमलों को प्रेरित किया. विशेषज्ञों का मानना है कि जिहादी समूह हमलों को तेज कर रहे हैं, और ऑनलाइन अभियान ‘लोन वुल्फ’ हमलों को उकसा रहे हैं. इजरायल-विरोधी प्रदर्शन आईएस और अल-कायदा के आतंक अभियानों को बढ़ावा दे रहे हैं.
नारायणन लिखते हैं कि एआई ने चरमपंथी प्रचार को बढ़ाया, जिससे भर्ती और कट्टरपंथीकरण आसान हुआ. सोशल मीडिया पर एन्क्रिप्टेड नेटवर्क ‘लोन वुल्फ’ हमलों को बढ़ाते हैं. न्यू ऑरलियन्स हमला दिखाता है कि निम्न-तकनीकी तरीके और उच्च-तकनीकी प्रचार घातक हैं. मध्य पूर्व, विशेषकर इजरायल-फिलिस्तीन मुद्दा, जिहादी समूहों को वैचारिक आधार देता है. यूरोप में इस्लामोफोबिया और सामाजिक-आर्थिक हाशियाकरण कट्टरपंथ को बढ़ावा देता है. आतंकवाद-रोधी रणनीतियां अब विकेन्द्रीकृत इकाइयों से जूझ रही हैं.
भारत, 2008 के मुंबई हमलों की याद के साथ, इन खतरों से अछूता नहीं है. दक्षिण एशिया में आईएस सहयोगी प्रभाव बढ़ा रहे हैं. भारत का आतंकवाद-रोधी ढांचा और वैश्विक खुफिया सहयोग कुछ जोखिम कम करता है, लेकिन एआई का आतंकी उपयोग नया चुनौती है. नेताओं को सक्रिय खुफिया, सहयोग, और कट्टरपंथ-रोधी कार्यक्रमों में निवेश करना होगा. सामाजिक-आर्थिक असमानताएं और भू-राजनीतिक शिकायतें संबोधित करना, और एआई का उपयोग चरमपंथी नेटवर्क रोकने के लिए, जरूरी है. 9/11 के बाद का सबक है कि आतंकवाद अनुकूलन करता है. इसे कमजोर मानना खतरनाक भूल है.
मणिपुर में संवाद बढ़ाना जरूरी
अदिति फडणीस ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि मणिपुर में हिंसक झड़पें, राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद, काफी कम हुई हैं, लेकिन मैतेई और कूकी-ज़ो जनजातियों के बीच तनाव बना हुआ है. इस महीने की दो घटनाएं—1 अगस्त को म्यांमार में आपातकाल हटने की घोषणा और 5 अगस्त को मणिपुर में राष्ट्रपति शासन का फरवरी 2026 तक विस्तार—लगभग अनदेखी रहीं. बांग्लादेश में फरवरी 2026 के संभावित चुनावों के साथ, ये पूर्वोत्तर भारत की राजनीति को प्रभावित करेंगी.
अदिति लिखती हैं कि मणिपुर में 13 फरवरी, 2025 को मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह के इस्तीफे के बाद राष्ट्रपति शासन लागू हुआ. 3 मई, 2023 से शुरू मैतेई-कूकी-ज़ो संघर्ष में 260 से अधिक लोग मारे गए और 70,000 विस्थापित हुए. हिंसा कम होने के बावजूद, राज्य जातीय क्षेत्रों में बंटा है. कूकी-ज़ो की अलग प्रशासन की मांग और मैतेई की क्षेत्रीय अखंडता की मांग से तनाव बना हुआ है. राष्ट्रपति शासन निरस्त्रीकरण और पुनर्वास का लक्ष्य रखता है, लेकिन राजनीतिक समाधान नहीं मिला. व्यापार और कृषि के ठप होने से मणिपुर की अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई, जिसका असर पूर्वोत्तर में फैल रहा है.
म्यांमार का दिसंबर 2025 में चुनाव का फैसला अनिश्चितता लाता है. सागाइंग और चिन जैसे सीमावर्ती क्षेत्रों में संघर्ष, जो कूकी-ज़ो से जुड़े हैं, अनसुलझे हैं. 2021 के तख्तापलट के बाद मणिपुर में शरणार्थी आए, जिससे तनाव बढ़ा. विवादित चुनाव प्रवास बढ़ा सकते हैं, जिससे मणिपुर और भारत की सीमा सुरक्षा जटिल होगी. म्यांमार में अस्थिरता भारत की एक्ट ईस्ट नीति को जोखिम में डालती है.बांग्लादेश में 2024 की मानसून क्रांति के बाद फरवरी 2026 के चुनाव जटिलता जोड़ते हैं. पाकिस्तान-चीन-बांग्लादेश अक्ष से भारत सतर्क है. ढाका में इस्लामवादी प्रभाव त्रिपुरा और असम को अस्थिर कर सकता है. भारत को मणिपुर में संवाद, सीमा प्रबंधन, और कूटनीति बढ़ानी होगी, वरना जातीय तनाव और व्यापार बाधाएं रणनीतिक हितों को नुकसान पहुंचाएंगी.