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संडे व्यू: गांधी-नेहरू की विरासत पर हमला, मनरेगा नोबेल की हकदार

पढ़ें इस रविवार आसिम अली, अदिति फडणीस, प्रताप भानु मेहता, शशि थरूर और गोपाल कृष्ण गांधी के विचारों का सार.

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गांधी-नेहरू की विरासत पर हमला

आसिम अली ने टेलीग्राफ में लिखा है कि आधुनिक देश होने का अर्थ दो मुख्य पहलुओं में निहित है: पहला, जनता का सचेत सामाजिक-राजनीतिक अभिनेता के रूप में उदय, जो जन संस्कृति और जन राजनीति का प्रतीक है; दूसरा, विज्ञान-प्रौद्योगिकी का व्यवस्थित उपयोग सामूहिक उत्कर्ष, पर्यावरण नियंत्रण और राष्ट्रीय शक्ति निर्माण के लिए. लेखक असिम अली का मानना है कि भारत का आधुनिकता से सफर एक बदसूरत गतिरोध में फंस गया है, जिसका प्रमाण उत्तर भारत के विषैली हवा और प्रदूषण में है. यह समस्या सभी वर्गों को प्रभावित करती है, किंतु जन राजनीति में इसका कोई मजबूत प्रतिबिंब नहीं मिलता; राज्य केवल असफल योजनाओं (जैसे क्लाउड-सीडिंग) पर निर्भर रहता है.

आसिम अली याद दिलाते हैं कि स्वतंत्रता के शुरुआती दौर में भारत आधुनिकता की ओर उत्साह से बढ़ रहा था. गांधी और नेहरू के मुक्तिदायी प्रोजेक्ट आज विकृत किए जा रहे हैं. भारत छोड़ो आंदोलन ने जनता की राजनीतिक एजेंसी सिद्ध की थी, जिसने लोकतंत्र की नींव रखी. गांधी की कट्टर जन राजनीति को आज केवल अनुष्ठानिक प्रतीक बना दिया गया है, जबकि नेहरू की वैज्ञानिक-विकासवादी दृष्टि पर लगातार हमले हो रहे हैं.

नेहरू युग के बड़े बांध, आईआईटी और जेएनयू जैसे संस्थान आधुनिक भारत के प्रतीक थे, जो समावेशी और धर्मनिरपेक्ष विकास का मार्ग प्रशस्त करते थे.आज नवउदारवादी सहमति और सेवा-आधारित अर्थव्यवस्था ने भारत को स्थिरता की ओर धकेला है. बुद्धिजीवी वर्ग को नवीनीकृत कर एक स्वायत्त शक्ति बनना होगा, जो विज्ञान और मानविकी को जोड़कर समानता-मुक्ति आधारित नई आधुनिकता की कल्पना करे. अन्यथा, भारत एक प्रतिक्रियावादी, अभिजात-शासित समाज बनकर रहेगा, जहां मैकॉले जैसे उपनिवेशवादी गर्व करेंगे.

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मेहनत और विनम्रता के प्रतीक नितिन नबीन

अदिति फडणीस ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि भाजपा के नए राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष नितिन नबीन की नियुक्ति पार्टी में लंबे समय से तैयार की जा रही नेतृत्व पीढ़ी के परिवर्तन को दर्शाती है. यह मोदी युग के बाद की तैयारी है. 45 वर्षीय नितिन नबीन अब तक का सबसे युवा व्यक्ति हैं जो इस पद पर पहुंचे. वे चमक-दमक वाले नेता नहीं हैं. विवादास्पद बयानों या नाटकीय इशारों से सुर्खियां नहीं बटोरते. बल्कि, उनकी पहचान मेहनती, विनम्र, पहुंच योग्य और पार्टी विचारधारा के प्रति गहराई से समर्पित व्यक्ति की है. कड़ी मेहनत और विनम्रता उनके उदय की विशेषता रहे हैं.

अदिति लिखती हैं कि नितिन का सफर छात्र राजनीति से शुरू हुआ, जहां वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) से जुड़े. फिर भारतीय जनता युवा मोर्चा (बीजेवाईएम) में सक्रिय हुए और बिहार में पार्टी की सीढ़ियां चढ़ते गए. बिहार विधानसभा में कई बार निर्वाचित होकर सड़क निर्माण एवं शहरी विकास जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय संभाले.

सच्चा मोड़ आया 2023 के छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में, जहां सह-प्रभारी के रूप में उन्होंने जमीन पर अथक परिश्रम कर बीजेपी की अप्रत्याशित एवं निर्णायक जीत सुनिश्चित की. पार्टी सूत्रों के अनुसार, उनकी रणनीतिक योजना और कार्यकर्ता जुटाव ने कांग्रेस से सत्ता छीनने में अहम भूमिका निभाई. आरएसएस अगले 15 वर्षों के लिए भाजपा नेतृत्व देख रहा है, मोदी के बाद का. प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह दोनों को नितिन नबीन पसंद हैं. उनकी नियुक्ति संकेत देती है कि पार्टी संगठनात्मक कार्य में जड़ें जमाए, विचारधारा से जुड़े एवं परिणाम देने वाले समर्पित कार्यकर्ताओं को प्रोत्साहित कर रही है. नबीन का उदय साबित करता है कि बीजेपी में सिर झुकाकर काम करने वाले ऊंचाइयों तक पहुंच सकते हैं.

नोबेल की हकदार है मनरेगा

प्रताप भानु मेहता ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि मनरेगा भारत की सबसे सफल सार्वजनिक नीतियों में से एक है. इसने गरीबी उन्मूलन, श्रम बाजार और सेवा वितरण में क्रांतिकारी बदलाव किया. यदि नोबेल जैसे पुरस्कार नीतिगत प्रभाव के लिए दिए जाते, तो इसके रचयिताओं को मजबूत दावेदार माना जाता. सैकड़ों शोधों से सिद्ध है कि यह योजना बेहद सफल रही.

मेहता लिखते हैं कि कार्तिक मुरलीधरन आदि के अध्ययन के अनुसार, इसने घरेलू आय 14%, गरीबी 26% कम की, श्रम की सौदेबाजी शक्ति बढ़ाई, निजी मजदूरी और गैर-कृषि रोजगार उत्पन्न किया. महिलाओं का सशक्तिकरण हुआ, टिकाऊ संपत्तियां बनीं और बाजार विफलताएं सुधरीं. आलोचना कि यह मजदूरी बढ़ाता है, गलत है—यह उसका उद्देश्य था, ताकि गरीबों को शोषण से बचाया जाए.

दो दशकों में मनरेगा ने नोटबंदी, जीएसटी, लॉकडाउन जैसे संकटों में ग्रामीण स्थिरता बनाए रखी, सामाजिक अशांति रोकी. यह हमारे पैरों तले की जमीन थी.लेकिन अब यह खिसक रही है: फंडिंग देरी, आधार गड़बड़ियां, कम आवंटन और वैचारिक असुविधा से कार्यान्वयन कमजोर हुआ. नौकरीविहीन विकास के दौर में इसे कमजोर करना खतरनाक है. मनरेगा को समावेशी विकास की आधारशिला मानकर पुनर्जीवित करना जरूरी है, वरना आर्थिक-सामाजिक अनुबंध ही खतरे में पड़ जाएगा.

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भारत में प्रदूषण के ये हैं 10 समाधान

टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपने संपादकीय में भारत में वायु प्रदूषण के दस समाधान सुझाएं हैं. अखबार लिखता है कि भारत का स्मॉग इतना घना है कि इसे अंतरिक्ष से भी देखा जा सकता है. लोकसभा में इस पर बहस न होना कोई मायने नहीं रखता, क्योंकि समस्या की मौजूदगी स्पष्ट है. दिल्ली में 2023 में ही वायु प्रदूषण से 17,200 लोगों की जान गई और हर साल 4.9 लाख स्वस्थ जीवन-वर्ष खोते हैं. लंदन, लॉस एंजिल्स और बीजिंग जैसे शहरों ने प्रदूषण पर काबू पाया है, इसलिए भारत के लिए भी यह अपरिहार्य नहीं है. लोकतंत्र कोई बहाना नहीं, क्योंकि लंदन ने पूर्ण लोकतंत्र में ही हवा 70% साफ की.

लेखक 10 ठोस समाधान सुझाते हैं:

  1. डेटा: पर्याप्त मॉनिटरिंग स्टेशन और ईमानदार रिपोर्टिंग से दाने-दाने की जानकारी जरूरी.

  2. धूल: भारत में सबसे बड़ा प्रदूषक (दिल्ली में गर्मियों में PM10 का 40%, PM2.5 का 30%). निर्माण स्थलों को ढकना, पानी छिड़कना और शहरों में हरियाली बढ़ाना अनिवार्य.

  3. जन परिवहन: लाखों निजी कारों की जगह हजारों बसें कम प्रदूषण करेंगी और पार्किंग की जगह हरी जगहों को बचाएंगी.

  4. निजी वाहन: पुराने वाहनों को स्क्रैप करने के लिए प्रोत्साहन, वजन-गति सीमा और टायर-ब्रेक घिसाव से होने वाले प्रदूषण पर नियंत्रण.

  5. उद्योग: फैक्टरियों को बिजली पर चलाना, कोयला-तेल-गैस वाले में उत्सर्जन नियंत्रण.

  6. कोयला: बिजली का 70% स्रोत, इसे साफ तरीके से जलाना जरूरी (बीजिंग ने कोयला को गैस में बदला).

  7. बायोमास: पराली जलाना, गोबर-लकड़ी का उपयोग बड़ा समस्या. इन्हें बायोगैस और इथेनॉल में बदलना चाहिए.

  8. कृषि: धान-गेहूं चक्र तोड़ने के लिए किसानों को प्रोत्साहन.

  9. अन्य उत्सर्जन: समुद्री जहाजों के भारी तेल और एयरोसॉल (डियो, रूम फ्रेशनर) पर नियंत्रण.

  10. अंतरराष्ट्रीय समन्वय: पड़ोसी देशों (जैसे पाकिस्तान) से आने वाले प्रदूषकों के लिए सहयोग.

ये समाधान रॉकेट साइंस नहीं, बल्कि सच्ची शासन-इच्छाशक्ति की मांग करते हैं. यह मुद्दा राजनीतिक भी नहीं है अगर समाधान की ओर कदम उठाए जाएं. ऐसा नहीं करने पर निश्चित रूप से राजनीतिक बन जाता है प्रदूषण. स्मॉग से छुटकारा आम जन की चाहत है. इससे दूर नहीं हुआ जा सकता.

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नई उड़ान के लिए तैयार केरल

शशि थरूर ने हिन्दू में लिखा है कि केरल एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है. कभी मानव विकास के मॉडल के रूप में प्रशंसित राज्य आज कर्ज के बोझ, पारिस्थितिक संकट, राजकोषीय अव्यवस्था और निष्क्रिय-पक्षपाती शासन संस्कृति से जूझ रहा है. फिर भी लेखक निराशावाद से इनकार करते हैं और मानते हैं कि साहसिक सुधारों से केरल फिर उठ सकता है. प्रसिद्ध 'केरल मॉडल' कोई चमत्कार नहीं था; यह भूमि सुधार, शिक्षा-स्वास्थ्य में सार्वजनिक निवेश, मजबूत स्थानीय स्वशासन और प्रगतिशील आंदोलनों का परिणाम था. लेकिन दशकों से यह खोखला होता गया. सरकारों ने राजस्व आधार बढ़ाए बिना कल्याण विस्तार किया, कर्ज लिया और उत्पादक क्षेत्रों को कमजोर होने दिया.

थरूर ध्यान दिलाते हैं कि आज कर्ज-जीएसडीपी अनुपात 35% से ऊपर है, प्रवासी का आर्थिक योगदान स्थिर होता दिख रहा है और युवा अवसरों की तलाश में पलायन कर रहे हैं. पारिस्थितिक रूप से स्थिति और गंभीर है: अनियोजित निर्माण, खनन और आर्द्रभूमि-पहाड़ी अतिक्रमण ने राज्य को बाढ़-संवेदनशील बना दिया है. 2018-19 की बाढ़ें मानवीय मूर्खता की चेतावनी थीं. शासन में नौकरशाही जड़ता, राजनीतिक संरक्षण और हड़तालप्रिय सार्वजनिक क्षेत्र ने दक्षता खो दी है.

'केरल 2.0' के लिए चार मुख्य सुधार जरूरी:

  1. राजकोषीय जिम्मेदारी—कर्ज सीमा, सब्सिडी युक्तिकरण, कर आधार विस्तार और पेंशन पुनर्संतुलन.

  2. उत्पादक अर्थव्यवस्था पुनरुद्धार—आईटी, स्टार्टअप, उच्च-मूल्य पर्यटन, आयुर्वेद, समुद्री बायोटेक और जलवायु-सहिष्णु कृषि पर फोकस; नियामक बाधाएं हटाना, बुनियादी ढांचा अपग्रेड और प्रवासी पूंजी का संरचित उपयोग.

  3. पारिस्थितिक पुनर्स्थापना—तटीय नियम सख्ती, खनन पर रोक, पुनर्वनीकरण और आर्द्रभूमि पुनर्जीवन.

  4. शासन सुधार—संस्थाओं का अव्यवस्थाकरण, स्थानीय निकायों को वित्तीय-कार्यात्मक सशक्तिकरण और तकनीक से पारदर्शी सेवा.

केरल ने पहले भी कई काम किए हैं—बेटियों को शिक्षित किया, बीमारियां हराईं, सामाजिक एकजुटता बनाई. अब 21वीं सदी के लिए खुद को पुनःआविष्कार कर सकता है. विकल्प स्पष्ट है: अपरिवर्तनीय पतन या साहसिक कार्रवाई से समृद्ध, लचीला और सतत केरल 2.0.

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वैश्विक घोटाला है प्रदूषण

गोपालकृष्ण गांधी दिल्ली के विषैले वायु प्रदूषण को वैश्विक घोटाला बताते हैं, जो निकट भविष्य में बना रहेगा. लेख दो काल्पनिक लेकिन यथार्थपूर्ण संवादों से शुरू होता है. पहला: दक्षिण भारत से आई गर्भवती पत्नी दिल्ली की घुटन भरी हवा से तंग आकर चेन्नई लौटना चाहती है, जबकि पति ऑफिस के एयर प्यूरीफायर में सुरक्षित रहता है और ओवरटाइम की कमाई का बहाना बनाता है. दूसरा: दिल्ली में तैनात विदेशी राजनयिक का जीवनसाथी बच्चों की सेहत बिगड़ने (गले में खराश, आंखें लाल, सांस लेने में तकलीफ) से परेशान होकर देश लौटने की धमकी देता है, जबकि राजनयिक नौकरी और सामाजिक प्रतिष्ठा का हवाला देता है. ये संवाद अतिशयोक्ति रहित हैं और अभी कई घरों में हो रहे हैं.

गोपाल कृष्ण लिखते हैं कि सुप्रीम कोर्ट सही है—जादू की छड़ी नहीं है, जरूरत दीर्घकालिक, बॉक्स से बाहर की व्यापक रणनीति की है. दिल्ली राजधानी रहेगी, लेकिन उसे दुबला-पतला, स्वच्छ बनाना होगा.

लेखक का सुझाव है कि संसद सत्र राज्य विधानसभाओं में रोटेशन से आयोजित करें, मंत्रालय अस्थायी कैंप ऑफिस बनाएं, सुप्रीम कोर्ट चार राज्य राजधानियों (खासकर श्रीनगर) में बेंच खोले, दो दर्जन राष्ट्रीय संस्थान दिल्ली से बाहर शिफ्ट करें, गणतंत्र दिवस परेड रोटेशन से राज्य राजधानियों में, पूरे साल दिल्ली में आतिशबाजी पर पूर्ण प्रतिबंध, ऑड-ईवन वापस लाएं, निजी वाहन स्वामित्व पर कैप, प्रदूषित वाहनों का बेरहमी से रिट्रेंचमेंट हो, निर्माण अनुमतियां कड़ी करें, शहर की मोटापे पर रोक, पांच साल तक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों पर एम्बार्गो, राष्ट्रीय आयोजनों पर अगस्त-मार्च में रोक लगे, एक वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री को “मिशन सेव दिल्ली फ्रॉम इटसेल्फ” सौंपें, जो प्रदूषण के साथ भूकंपीय खतरे से भी निपटे. लेखक जोर देते हैं कि दिल्ली की “एयर सिकनेस” पर एक दिन भी और सोया नहीं जा सकता.

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