विनाश की ओर विश्वविद्यालय
प्रताप भानु मेहता ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि भारतीय सार्वजनिक विश्वविद्यालय चुपचाप विनाश की ओर धकेले जा रहे हैं. 1970 के दशक से राजनीतिक हस्तक्षेप, फंड कटौती और अकादमिक आत्मसमर्पण ने उन्हें खोखला कर दिया है. पहले राज्य, फिर केंद्रीय विश्वविद्यालय संकटग्रस्त हुए. यूपीए-2 के केंद्रीकरण ने बाद के हमलों की नींव रखी, लेकिन प्रणाली टिकी रही. पहले पहुंच पर जोर था, गुणवत्ता पर नहीं, लेकिन छात्र सीखने को उत्सुक थे.अब स्थिति निराशाजनक है.
प्रताप लिखते हैं कि राजस्थान में एबीवीपी विरोध के बाद पांच कुलपतियों के हटाए जाने से प्रशासनिक मानदंडों का पतन और एबीवीपी का वीटो पावर उजागर हुआ. कई विश्वविद्यालयों में वक्ताओं की पूर्व-सेंसरशिप, आरएसएस आयोजनों का दबाव, नियुक्तियों में गिरावट आम है. छात्र-शिक्षक संघ पूरी तरह पक्षपाती हो गए, जिससे छात्रों और प्रोफेसरों के सामूहिक हित अनदेखे रह गए. एसएफआई, एनएसयूआई और एबीवीपी सभी इसमें शामिल हैं.
दिल्ली विश्वविद्यालय और जेएनयू जैसे संस्थान अब पार्टी-राज्य के अधीन हैं. सीयूईटी परीक्षा मशीन बन गई, शैक्षिक समाधान नहीं. सहकर्मी बताते हैं कि अब 'आरएसएस, मोदी और पैसा' की डिग्री चाहिए. पहले विरोधी दिल्ली विश्वविद्यालय अब मौन है. भारतीय परंपरा में शासक ज्ञानस्थल में निहत्थे आते थे, अब सत्ता सशस्त्र घुस रही है और कोई विरोध नहीं कर रहा. विश्वविद्यालय में अब केवल पक्षपाती या राष्ट्रवादी/राष्ट्र-विरोधी बचे हैं. यह सार्वजनिक मौन विश्वविद्यालय की सच्ची त्रासदी है.
भारत के लिए ‘सी ग्रेड’ चिंता का सबब
करण थापर ने द हिन्दू में प्रकाशित लेख में भारत की दूसरे क्वार्टर की GDP वृद्धि (8.2%) के साथ IMF की रिपोर्ट का जिक्र किया है जिसमें भारत के राष्ट्रीय लेखा सांख्यिकी (GDP और GVA सहित) को 'C' ग्रेड दिया गया है—दूसरा सबसे निचला स्तर. IMF की चिंता मुख्य रूप से असंगठित क्षेत्र की सटीक गणना न होने, पुराने आधार वर्ष (2011-12) और अन्य कमियों से है, जो आर्थिक निगरानी में बाधा डालती हैं.
लेखक मीडिया की आलोचना करते हैं कि केवल द हिंदू ने इसे फ्रंट पेज बनाया, जबकि आर्थिक अखबारों (पिंक पेपर्स) ने इसे अनदेखा किया या अंदरूनी पन्नों पर डाला. थापर का कहना है कि यह ग्रेडिंग गंभीर मुद्दा है, क्योंकि असंगठित क्षेत्र GDP का बड़ा हिस्सा है और इसका सही अनुमान लगाना चुनौतीपूर्ण.
सरकार नई सीरीज (2026 में) पर काम कर रही है, लेकिन विशेषज्ञ प्रणब सेन जैसे लोग मानते हैं कि चिंताएं जल्द हल नहीं होंगी.मीडिया की यह चूक जनता को अंधेरे में रखती है और पत्रकारिता की जिम्मेदारी पर सवाल उठाती है. लेख मीडिया से अपील करता है कि महत्वपूर्ण आर्थिक मुद्दों को प्रमुखता से कवर करें, ताकि जनता सूचित रहे और समझ सके. कुल मिलाकर, यह लेख GDP की चमकदार तस्वीर के पीछे छिपी सांख्यिकीय कमजोरियों और मीडिया की भूमिका पर रोशनी डालता है.
गोवा कांड के पीछे सिर्फ लूथरा ब्रदर्स नहीं
सिद्धार्थ सांघवी ने टाइम्स ऑफ इंडिया में गोवा के नाइटक्लब मं हुए हादसे की चर्चा की है जिसमें 25 लोगों की मौत गयी थी. क्लब में ज्वलनशील छत थी, आतिशबाजी की गई और भीड़ फंस गई. क्लब मालिक लूथरा ब्रदर्स को गिरफ्तार किया गया और वे थाईलैंड भाग गए थे. सवाल यह है कि क्या सिर्फ वे ही इस दुर्घटना के जिम्मेदार हैं?
यह हादसा व्यक्तिगत लापरवाही से ज्यादा गोवा में फैले सिस्टमैटिक भ्रष्टाचार और अनियंत्रित विकास का नतीजा है. अधिकारी आंखें मूंदकर नियमों का उल्लंघन होने देते हैं—जैसे जैतून रिडले कछुओं के घोंसले वाले क्षेत्रों के पास शादियां, तटीय क्षेत्र में अवैध लाइसेंस और सुरक्षा मानकों की अनदेखी. ज्वलनशील सामग्री, फायर एग्जिट की कमी, संकरी सड़कें—सब कुछ अधिकारियों की मिलीभगत से हुआ.
सिद्धार्थ सांघवी तर्क देते हैं कि गोवा कभी शांतिपूर्ण समुद्र तटों, जंगलों और गांवों वाला स्वर्ग था, लेकिन अब मेगा प्रोजेक्ट्स, लग्जरी रिसॉर्ट्स और पार्टी स्पॉट्स ने मैंग्रोव्स, कछुओं के घोंसले और स्थानीय समुदायों को नष्ट कर दिया. ये सब किसने मंजूरी दी? राजनीतिज्ञ, नौकरशाह और नियामक रिश्वत या राजनीतिक लाभ के लिए चुप रहे. यह सामूहिक विफलता है जिसने गोवा की आत्मा को मार डाला.लेखक चेतावनी देते हैं कि जब तक जिम्मेदारी ऊपरी स्तर तक नहीं पहुंचेगी, ऐसी त्रासदियां दोहराई जाती रहेंगी. गोवा बेहतर का हकदार है. यह लेख गोवा के पर्यावरणीय और सांस्कृतिक विनाश पर गहरा सवाल उठाता है.
वर्तमान का लिटमस टेस्ट है ‘धुरंधर’
अभिषेक अस्थाना ने हिंदुस्तान टाइम्स में आदित्य धर की फिल्म ‘धुरंधर’ को वर्तमान का 'लिटमस टेस्ट' बताया है. लेखक बताते हैं कि कार्यालय में एक नए सहकर्मी ने उनसे फिल्म देखने के बारे में पूछा, लेकिन वे सतर्क होकर सिर्फ 'हां' कहकर टाल गए, क्योंकि आजकल फिल्म की राय देना खतरनाक हो गया है—यह आपकी राजनीतिक विचारधारा, यहां तक कि वोटिंग पैटर्न को उजागर कर सकता है. ‘धुरंधर’ कराची की गैंग्स और स्टेट-स्पॉन्सर्ड टेररिज्म पर आधारित है. पोर्ट सिटी में स्मगलिंग, गैंग वॉर और माइग्रेंट्स की भर्ती जैसे तत्वों से भरपूर यह फिल्म स्टाइलिश हिंसा और स्पाई इन्फिल्ट्रेशन का मिश्रण है.
अभिषेक लिखते हैं कि फैक्ट और फिक्शन की सीमाएं धुंधली रखी गई हैं, जो बॉक्स ऑफिस के लिए फायदेमंद है.लेखक इंटरनेट को नई 'पोर्ट सिटी' कहते हैं, जहां राय कंटेनर्स की तरह हैं और नेशनलिस्ट बहुमत व लेफ्टिस्ट अल्पसंख्यक इन पर कंट्रोल की लड़ाई लड़ते हैं. फिल्म का स्पष्ट राजनीतिक बायस है—प्रोग्रेसिव्स इसे बिगॉट्री कहते हैं, जबकि बहुमत सोशल मीडिया की ताकत से रिव्यूज डिलीट करवाता या हेट भेजता है.
पहले इंटेलिजेंसिया की ओपिनियन ओलिगार्की थी, अब सोशल मीडिया ने इसे डेमोक्रेसी बना दिया, जहां मीम्स से बड़ी राय को 'रेशियो' किया जा सकता है.दोनों पक्ष कन्वर्शन नहीं करते, एल्गोरिदम कन्फर्मेशन बायस बढ़ाते हैं. लेकिन लेखक चेताते हैं कि बॉलीवुड अगर सिर्फ एक डेमोग्राफिक को पैंडर करेगा, तो फेल हो जाएगा. भारतीय दर्शक अप्रत्याशित हैं—रंग दे बसंती, हैदर जैसी फिल्मों को भी हिट बनाते हैं. कीबोर्ड वॉरियर्स लड़ते रहें, साइलेंट कंज्यूमर सबको सरप्राइज देता रहेगा.
हवाई उड़ान में डकैती
आनंद नीलकंठन ने द न्यू इंडियन एक्सप्रेस में भारतीय विमानन क्षेत्र की गंभीर समस्याओं पर तीखा प्रहार किया गया है. लेखक मुंबई एयरपोर्ट पर एक दिन की अपनी अनुभव से शुरू करते हैं, जहां इंडिगो की फ्लाइट रद्द होने से यात्री घंटों फंसे रहे और एयरलाइन स्टाफ गायब था. यह कोई अचानक हादसा नहीं, बल्कि नीतिगत पाखंड, एकाधिकार और कर व्यवस्था की वजह से पैदा हुई व्यवस्थित विफलता है. नई फ्लाइट ड्यूटी टाइम लिमिटेशन (FDTL) नियमों से पायलटों की कमी उजागर हुई, लेकिन एयरलाइंस वर्षों से पायलटों को थकाकर उड़ान भरवा रही थीं. सरकार ने कॉर्पोरेट लॉबिंग के दबाव में सुरक्षा नियमों को टाल दिया.
नीलकंठन लिखते हैं कि असली समस्या प्रतिस्पर्धा की कमी है. इंडिगो का 60% से अधिक बाजार पर कब्जा है. एयर इंडिया कमजोर प्रतिद्वंद्वी है. संकट में दोनों ने किराया आसमान छूने दिया. एकाधिकार में ग्राहक सेवा बेमानी हो जाती है. यात्रियों की मजबूरी ही ताकत है. लेखक सरकार को मुख्य रूप से दोषी ठहराते हैं. UDAN योजना की बातें होती हैं, लेकिन एविएशन टर्बाइन फ्यूल (ATF) पर दुनिया के सबसे ऊंचे टैक्स लगते हैं—केंद्र का एक्साइज और राज्यों का 20-30% VAT. ईंधन लागत का 40% हिस्सा होने के बावजूद ATF को GST में नहीं लाया गया.
एयरपोर्ट प्राइवेटाइजेशन के बाद यूजर डेवलपमेंट फीस (UDF) में भारी बढ़ोतरी प्रस्तावित है, जो एयरपोर्ट को शॉपिंग मॉल बना देती है. यह मॉडल विरोधाभासी है—अमेरिका जैसी कनेक्टिविटी, सिंगापुर जैसे एयरपोर्ट, बस जैसा किराया चाहते हैं, लेकिन जुआघर की तरह टैक्स लगाते हैं. बिना ईंधन टैक्स कम किए और एयरपोर्ट चार्जेस नियंत्रित किए विमानन क्षेत्र क्रैश की ओर बढ़ रहा है. यात्रियों को गरिमा रहित 'कार्गो' बना दिया गया है, जबकि पूंजीवाद मुट्ठी भर लोगों की तिजोरियां भर रहा है. लेख चेतावनी देता है कि विमानन को यूटिलिटी मानकर सुधार न किए गए तो पूरा सेक्टर तबाह हो जाएगा.
इतिहासकार लेखक का अपनी मां को श्रद्धांजलि
प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में लिखा है कि अपनी मां के हालिया निधन पर एक भावुक श्रद्धांजलि लिखी है, जो उनके पिता के जाने के 12 वर्ष बाद हुई. वे दोनों साधारण लेकिन आदर्श माता-पिता थे, जो शांत सेवा से देशभक्ति व्यक्त करते थे और आज दुर्लभ सभ्यता व नैतिकता के प्रतीक थे. पिता सुब्रह्मण्यम राम दास गुहा (1924 जन्म) वन अनुसंधान संस्थान में वैज्ञानिक थे, जो सरकारी संपत्ति के निजी उपयोग से सख्ती से दूर रहते थे और जाति पूर्वाग्रहों का विरोध करते थे.
रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि उनके चाचा दलित उत्थान के सुधारक थे. मां विशालाक्षी एक समर्पित शिक्षिका थीं, जो छात्रों में कोई भेदभाव नहीं करती थीं और दशकों बाद भी पूर्व छात्र उन्हें प्यार से याद करते थे. दोनों ने व्यवहार से धर्मनिरपेक्षता दिखाई—घनिष्ठ मित्र विभिन्न समुदायों से थे, यहां तक कि घर में मुस्लिम रसोइया भी रखा.
गुहा बताते हैं कि मां हिंदुत्व कट्टरता से व्यथित थीं और नेहरू युग के बहुलवादी मूल्यों में विश्वास रखती थीं. लेखक खुद कई विशेषाधिकारों (जाति, लिंग, भाषा) में जन्मे, लेकिन माता-पिता के उदाहरण ने उन्हें असमानता का एहसास कराया. वे चुपचाप बंधुत्व और गैर-भेदभाव के मूल्यों को जीते थे, जो आज की राजनीति में प्रासंगिक हैं. यह लेख माता-पिता की सादगी, मानवता और समाज सुधार की विरासत को याद करता है, जो आधुनिक भारत के लिए प्रेरणा है.
