राजभवन अब लोकभवन : अब से सारे दलित ब्राह्मण
सुनंदा के दत्ता रे टेलीग्राफ में राजभवनों को कुछ समय जन राजभवन कहने के बाद अब लोकभवनों में बदलने का फैसला सरोजिनी नायडू के उस मशहूर व्यंग्य की याद दिलाता है जिसमें उन्होंने कहा था कि महात्मा गांधी को गरीबी में रखने का खर्च कितना महंगा पड़ता है. लेखक राजभवनों को लोकभवन और प्रधानमंत्री कार्यालय को ‘सेवा तीर्थ’ जैसे नाम देने की आलोचना करते हैं. वे इसे महंगा और अनावश्यक दिखावा मानते हैं, जो भारतीय समाज की गहरी पदानुक्रम और राजशाही वाली मानसिकता को और मजबूत करता है. लेखक सरोजिनी नायडू के उस मशहूर व्यंग्य की याद दिलाते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि महात्मा गांधी को गरीबी में रखने का खर्च कितना महंगा पड़ता है.
यह सेंट्रल विस्टा के 20,000 करोड़ के खर्च की तरह ही राजसी भव्यता का प्रतीक है, जबकि इतने पैसे से दिल्ली में वायु शुद्धिकरण, यमुना सफाई या हजारों अच्छी प्राथमिक स्कूल बन सकते थे. यह वैसा ही है जैसे यह घोषणा कर दी जाए कि सारे अनुसूचित जाति के लोग अब ब्राह्मण हैं, अगर वंचना स्वयं एक विशेषाधिकार न बन गई होती.
लेखक अमेरिकी सीनेटर एडलाई स्टीवेन्सन के हवाले से तर्क देते हैं कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के बावजूद वास्तविक लोकतंत्र नहीं, बल्कि यहां केवल प्रतिनिधिक सरकार है, क्योंकि यहां मतदाताओं को आज भी प्रजा की तरह देखा जाता है और नेता महाराजाओं की तरह कपड़े पहनकर वोट माँगते हैं. "जनता की आवाज भगवान की आवाज" जैसी पुरानी कहावत को आज सिर्फ अवसरवादी चापलूसी के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जैसा एलॉन मस्क ने ट्रंप के ट्विटर अकाउंट बहाल करते समय किया. लॉर्ड वेलेजली ने इसी भ्रम में पड़कर, यह मानते हुए कि "भारत को किसी देहाती घर से नहीं, एक शानदार महल से शासित होना चाहिए", एक महल बनवाना शुरू किया जो कभी पूरा नहीं हुआ.
नेहरू को बटनहोल पसंद था, इंदिरा गांधी के सफेद पंख वाला साया अलग दिखता था. लेख के अंत में ब्रिटिश गवर्नमेंट हाउस की भव्यता से लेकर आज के नेताओं के लिबास तक की यात्रा को व्यंग्य करता है और याद दिलाता है कि जो लोग फैंसी ड्रेस पहनकर अपनी पहचान ढूंढते हैं, उन्हें दूसरों पर शासन करने का हक नहीं होना चाहिए.
दलित तक सीमित करना अंबेडकर के साथ अन्याय
गुरु प्रकाश ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि दुनिया आज एक साथ कई स्तरों पर संघर्ष देख रही है. दक्षिण एशिया में तनाव, थाईलैंड-कंबोडिया और उत्तर-दक्षिण कोरिया सीमा पर झड़पें, ताइवान जलडमरूमध्य में तनातनी. ऐसे समय में दुनिया एक ऐसे वैश्विक नेतृत्व की तलाश कर रही है जो संवेदनशील भी हो और जिसकी बात को देश गंभीरता से सुनें. यदि आज के नेता यह नहीं दे पा रहे, तो शायद 75 साल पीछे लौटना चाहिए– बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर के युग में.
संविधान के 75वें वर्ष में अम्बेडकर को सिर्फ संविधान-निर्माता या दलित नेता के रूप में देखना पर्याप्त नहीं. उन्हें एक अंतरराष्ट्रीयतावादी विचारक के रूप में भी पढ़ा जाना चाहिए – एक ऐसा आयाम है जिस पर बहुत कम शोध हुआ है. अम्बेडकर का अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण अमेरिका में बिताए समय से बना. वे कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रैग्मेटिज़्म के जनक जॉन ड्यूवी के शिष्य रहे. ड्यूवी की शिक्षा, स्वतंत्रता और व्यावहारिक तर्क की विचारधारा ने उनके लोकतंत्र, समता और नैतिक उत्तरदायित्व के विचार को आकार दिया.
गुरु प्रकाश लिखते हैं कि अंबेडकर ने 1940 के दशक में अफ्रीकी-अमेरिकी बुद्धिजीवी डब्ल्यू.ई.बी. डु बोइस से संपर्क किया ताकि छुआछूत को अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार उल्लंघन के रूप में संयुक्त राष्ट्र के सामने रखा जाए. मार्टिन लूथर किंग जूनियर और नेल्सन मंडेला दोनों ने गांधी के साथ-साथ अम्बेडकर से भी प्रेरणा ली. यही वह सांस्कृतिक राष्ट्रकुल था जिसकी कल्पना उन्होंने की थी. विदेश नीति में अम्बेडकर नेहरू से बिल्कुल उलट सोच रखते थे. 1954 में जब भारत-चीन समझौता हुआ तो अंबेडकर ने चेताया था कि यदि माओ पंचशील में विश्वास करता तो तिब्बत के बौद्ध अल्पसंख्यकों के साथ सम्मानजनक व्यवहार करता. 1951 में लखनऊ विश्वविद्यालय में छात्रों से कहा था: “भारत मजबूत विदेश नीति बनाने में असफल रहा. चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया; यह भारत के लिए दीर्घकालिक खतरा है.”
अंबेडकर तिब्बत को स्वायत्त-सार्वभौम राष्ट्र मानते थे और अमेरिका के साथ निकटता चाहते थे. कश्मीर पर भी चीनी हस्तक्षेप की आशंका उन्होंने पहले ही जता दी थी. अम्बेडकर चाहते थे कि भारत पहले अपनी आंतरिक समस्याएं सुलझाए, फिर वैश्विक मंच पर कदम रखे. वे साम्यवाद की कमियों के कटु आलोचक थे और लोकतंत्रों का एक गठबंधन बनाना चाहते थे. आज न्यू हैम्पशायर, कनाडा का बर्नाबी, न्यूयॉर्क शहर, मिशिगन, मिनेसोटा – सब जगह 14 अप्रैल को समता दिवस मनाते हैं. जमैका में अम्बेडकर एवेन्यू है, कोलंबिया और लंदन में अम्बेडकर चेयर हैं. प्रधानमंत्री मोदी जिस ग्लोबल साउथ की आवाज बनने की बात कर रहे हैं, वह ठीक वही भूमिका है जिसकी कल्पना 75 साल पहले अम्बेडकर ने भारत के लिए की थी. अम्बेडकर को केवल दलित नेता तक सीमित करना उनकी विरासत के साथ अन्याय है.
सांस की कीमत
विनय किरपाल ने द हिन्दू में लिखा है कि दिल्ली फिर सर्दी में है, और उसके साथ वही पुराना आपातकालीन माहौल लौट आया है. स्कूल बंद, उड़ानें डायवर्ट, मास्क फिर चेहरों पर, और क्षितिज एक धुंधली स्लेटी दीवार. प्रदूषण अकेली चिंता नहीं है. असली चिंता यह है कि हर साल की तरह हम यहाँ उन सारी समय-सीमाओं को तोड़कर पहुंचे हैं जो इस संकट को रोकने के लिए बनाई गई थीं. पटाखों पर प्रतिबंध था, पर धड़ल्ले से फोड़े गए; पराली जलाने की कट-ऑफ तारीखें तय थीं, पर नजरअंदाज कर दी गईं; निर्माण-स्थल के नियम मौजूद हैं, पर धज्जियां उड़ाई जा रही हैं. यहां तक कि कृत्रिम बारिश कराने का फैसला—भारी-भरकम खर्च वाला—तब जाकर लिया गया जब हवा पहले ही जहर बन चुकी थी.
नया कुछ भी नहीं है. हर अक्टूबर-नवंबर में हम यही नाटक दोहराते हैं: पहले लापरवाही, फिर घबराहट, फिर देर से उठाए गए आधे-अधूरे कदम, और अंत में वही पुराना बहाना—अगले साल जरूर कुछ करेंगे. लेकिन “अगला साल” कभी नहीं आता. जो आता है, वह है ग्रैप (GRAP) के चारों स्टेज एक के बाद एक लागू होते हुए, ट्रक बैन, ऑड-ईवन, और अंत में स्कूलों की छुट्टी. सबसे दुखद यह है कि समाधान हमारे पास हैं. दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण के 70-80% स्रोत स्थानीय हैं: वाहन, निर्माण धूल, उद्योग, कचरा जलाना, और सर्दियों में बायोमास जलाना.
पराली का योगदान 20-30% के बीच रहता है, पर हम साल भर उसी पर सारा दोष मढ़कर हाथ झाड़ लेते हैं. बाकी स्रोतों पर कार्रवाई साल भर टलती रहती है क्योंकि उसमें ताकतवर हित शामिल हैं—बिल्डर लॉबी, ट्रांसपोर्ट माफिया, छोटे-बड़े उद्योग. इस बार भी वही हो रहा है. कृत्रिम बारिश के लिए करोड़ों खर्च करने की बात हो रही है, जबकि वही पैसा अगर बसों की संख्या दोगुनी करने, इलेक्ट्रिक व्हीकल इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने या निर्माण स्थलों पर सख्त मॉनिटरिंग में लगाया जाता तो शायद आज यह आपातकाल न आता. दिल्ली की हवा हर साल हमें एक ही सवाल पूछती है: हम अपनी राजधानी को सांस लेने लायक बनाना चाहते हैं या बस हर सर्दी में थोड़े दिन मास्क लगाकर गुजार देना चाहते हैं?
डिजिटल सुरक्षा या तानाशाही?
फैजान मुस्तफा और आशंक द्विवेदी ने द हिन्दू में लिखा है कि केंद्र सरकार ने अभूतपूर्व कदम उठाते हुए फोन निर्माताओं को 2026 से ‘संचार साथी’ ऐप इंस्टॉल करने के अपने आदेश को रद्द कर दिया. आदेश में यह बदलाव 48 घंटों में हुआ जब अधिकांश हितधारकों ने अस्पष्ट डेटा संग्रह विधियों, सहमति की कमी, निगरानी और असीमित डेटा भंडारण पर व्यापक चिंता जताईं. रॉयटर्स ने पहले खबर ब्रेक की थी और एप्पल ने नीति लागू करने से इनकार कर दिया था. ये विदेशी इकाइयां शायद बैकस्टेज भूमिका निभा रही हों, क्योंकि सरकार एप्पल और भारत में उसके विनिर्माण को खोने का जोखिम नहीं उठा सकती. हालांकि, ऐप इंस्टॉल करने का सरकारी कदम स्पष्ट रूप से सुरक्षा उपाय था. साइबर अपराध 2023 के 15.9 लाख मामलों से बढ़कर 2024 में 20.4 लाख हो गए. फिर भी, सरकारी कदम के खिलाफ प्रतिक्रिया में निगरानी, राज्य शक्ति और डेटा दुरुपयोग पर वैध सवाल उठे. इन्हें डिजिटल संविधानवाद—जो डिजिटल क्षेत्र में स्वतंत्रता, गरिमा, समानता और कानून के शासन जैसे संवैधानिक सिद्धांतों को लागू करने की जरूरत—को समझने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम माना जा सकता है. यह घटना भारत के डिजिटल गवर्नेंस में एक मोड़ है.
दूरसंचार विभाग (DoT) ने 28 नवंबर 2025 को टेलीकॉम साइबर सिक्योरिटी संशोधन नियमों के तहत आदेश जारी किया था, जिसमें एप्पल, सैमसंग और शाओमी जैसे निर्माताओं को 90 दिनों में सभी नए फोनों पर ऐप पूर्व-इंस्टॉल करने को कहा गया.
ऐप को "निष्क्रिय या प्रतिबंधित" नहीं किया जा सकता था. विपक्षी दलों ने इसे "राज्य प्रायोजित जासूसी" करार दिया, जबकि संचार मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने सफाई दी कि ऐप स्वैच्छिक है और व्यक्तिगत डेटा बिना सूचना के नहीं लिया जाता. संचार साथी, जनवरी 2025 में लॉन्च, एक "नागरिक-केंद्रित पहल" है जो टेलीकॉम धोखाधड़ी से बचाव करती है. DoT के अनुसार, इसने 7 लाख से अधिक खोए फोन बरामद किए, 37 लाख चोरी डिवाइस ब्लॉक किए और 3 करोड़ फर्जी कनेक्शन समाप्त किए.
यह IMEI (अंतरराष्ट्रीय मोबाइल उपकरण पहचान) की प्रामाणिकता जांचता है और उपयोगकर्ताओं को धोखाधड़ी रिपोर्ट करने की सुविधा देता है. लेकिन आलोचकों का कहना है कि यह डिजिटल निगरानी को सामान्य बनाता है, जैसा कि आधार जैसी योजनाओं में देखा गया. यह विवाद व्यापक चिंताओं को उजागर करता है. भारत में साइबर अपराध 2021 के 1.37 लाख शिकायतों से 2024 में 17.1 लाख हो गए, जिसमें 85% वित्तीय धोखाधड़ी हैं. छोटे शहर जैसे देवघर, नूह और मथुरा नए हॉटस्पॉट बन गए हैं. फिर भी, सुरक्षा के नाम पर गोपनीयता का बलिदान स्वीकार्य नहीं.
डिजिटल संवैधानिकवाद की जरूरत यहीं है: स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद 21) को डिजिटल में विस्तार देना, जहां AI और डेटा संग्रह राज्य शक्ति को असंतुलित कर रहे हैं. डिजिटल भारत को सुरक्षित बनाने के लिए, हमें न केवल अपराधियों से, बल्कि राज्य के अतिरेक से भी बचना होगा. अन्यथा, साइबर सुरक्षा डिजिटल तानाशाही में बदल जाएगी.
परमाणु खतरे की 70 साल पुरानी गूंज
गोपाल कृष्ण गांधी हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखते हैं कि ठीक 70 साल पहले (1955) जिस परमाणु तनाव ने दुनिया की सांस रोक रखी थी, आज वही दिन फिर लौट आए हैं. उस समय भी रूस और अमेरिका परमाणु परीक्षणों में लगे थे. मद्रास के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजाजी ने 1954 में अमेरिकी बिकिनी एटॉल परीक्षणों की निंदा की थी और एकतरफा निरस्त्रीकरण की अपील की. 1955 में अवदी कांग्रेस में नेहरू के कहने पर उन्होंने परमाणु हथियारों पर पूर्ण प्रतिबंध का प्रस्ताव अनुमोदित किया.
नेहरू ने बुल्गानिन और ख्रुश्चेव को भारत बुलाया. बेंगलुरु में ख्रुश्चेव ने 10 लाख टन टीएनटी बराबर बम फोड़ने का ऐलान किया. मद्रास राजभवन में राजाजी ने बुल्गानिन से पूछा: क्या सोवियत संघ एकतरफा हथियार छोड़ेगा? जवाब मिला – नहीं. संयुक्त त्याग? – हाँ. फिर भी सोवियत संघ ने 1957-58 में दर्जनों परीक्षण किए. निराश राजाजी ने मार्च 1957 को ख्रुश्चेव को सीधा पत्र लिखा कि झूठी सुरक्षा का वादा न करें. यह पत्र पहुंचा तो महज पांच दिन बाद सोवियत संघ ने एकतरफा परीक्षण-विराम की घोषणा कर दी. आज जब अमेरिका-रूस फिर CTBT और हथियार नियंत्रण संधियों को ठुकराने की बात कर रहे हैं, लेखक कहते हैं कि पुतिन के भारत दौरे का सबसे बड़ा ताज यह होगा कि वे भारतीय जमीन से घोषणा करें – रूस परीक्षण फिर शुरू नहीं करेगा, बशर्ते ट्रंप भी वैसा ही ऐलान करें. ख्रुश्चेव की मॉस्को ने एक साधारण
भारतीय नागरिक राजाजी की बात सुनी थी. पुतिन की मॉस्को को भी भारत के प्रधानमंत्री की आवाज सुननी चाहिए जो दुनिया को नए परमाणु संकट से बचाना चाहती है.
