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संडे व्यू: भारत को तालिबान से जुड़ना ही होगा, प्रशांत किशोर पर सबकी नजर

पढ़ें इस रविवार सुनन्दा के दत्ता रे, अदिति फडनीस, करन थापर, विवेक काटजू और राहुल वर्मा के विचारों का सार.

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फर्स्ट टर्म से तय होती है सीएम की राजनीतिक उम्र

अदिति फडनीस ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि देश के कुछ मुख्यमंत्री दशकों तक सत्ता में बने रहते हैं, जबकि अन्य अपना कार्यकाल पूरा कर चले जाते हैं और बाद में उनका कोई पता नहीं चलता. उनकी राजनीतिक पूंजी क्या है? इतिहास में जगह क्यों मिलती है? राज्य के शीर्ष पद के लिए जाति का सहारा अब पुराना हो चुका है. राम कृष्ण हेगड़े कर्नाटक में वोक्कालिगा-लिंगायत टकराव के बीच शांत ब्राह्मण के रूप में चुने गए. जयललिता ब्राह्मण-विरोधी तमिलनाडु में भी मुख्यमंत्री बनीं. लेकिन एक से अधिक कार्यकाल पहले कार्यकाल के प्रदर्शन पर निर्भर करता है.

फडनीस बिहार का उदाहरण देती हैं जहां हाल ही में चुनाव घोषित हुए. नीतीश कुमार को 'सुशासन बाबू' कहा जाता है. 2005-2010 के पहले पूर्ण कार्यकाल में उन्होंने खंडहर बिहार को बदला. द इकॉनमिस्ट ने 2004 में बिहार को गरीबी, भ्रष्टाचार, जातिवाद, नक्सलवाद और कुशासन का प्रतीक बताया था. नीतीश ने बिहार सेतु निगम को पुनर्जीवित किया, जो लाभदायक बना. बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में पुल बने. विश्व बैंक की सहायता से 2 लाख शिक्षकों की भर्ती हुई, नए स्कूल बने. स्वास्थ्य सेवाओं को सब्सिडी पर आउटसोर्स किया गया. बिजली बोर्ड का पुनर्गठन हुआ. दूसरे कार्यकाल में लड़कियों को मुफ्त साइकिल, महिलाओं के लिए स्कूल प्रबंधन आरक्षण. इनसे उनकी प्रशासनिक अपील बनी रही.

पश्चिम बंगाल के ज्योति बसु (1977-2000) भूमि सुधारों के लिए याद किए जाते हैं. 1977-82 में ऑपरेशन बर्गा से बटाईदारों को सुरक्षा मिली, फसल का हिस्सा सुनिश्चित हुआ. अतिरिक्त जमीन भूमिहीनों में बांटी, जो वफादार वोट बैंक बनी. पहले मंत्रिमंडल फैसले में राजनीतिक कैदियों को रिहा किया. इससे मार्क्सवादी सरकार दशकों चली. चंद्रबाबू नायडू की प्रशासनिक कुशलता प्रसिद्ध है. 1999 के पहले कार्यकाल में दीपम योजना से 10 लाख महिलाओं को गैस कनेक्शन. तेलुगु देशम पार्टी के 30 वर्ष बाद भी वे प्रासंगिक हैं. जातिगत समीकरण सतही हैं. लगातार जीत का आधार पहले कार्यकाल का मजबूत प्रशासन है.

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दिल्ली में नहीं दोहा में एम एफ हुसैन का संग्रहालय!

करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि एम.एफ. हुसैन निस्संदेह भारत के सबसे प्रसिद्ध और सम्मानित आधुनिक कलाकार हैं. उनके जन्मभूमिक भारत के बजाए अगले महीने दोहा में उनका संग्रहालय खुलने वाला है. सच्चाई यह है कि हुसैन को भारत से भगा दिया गया और उन्होंने जीवन के अंतिम वर्ष निर्वासन में दोहा तथा लंदन में बिताए. उनके चित्रों पर हिंदू आलोचकों ने उन्हें यहां रहना असंभव बना दिया. 2000 में जब मैंने उनका साक्षात्कार लिया, तो मैं उन्हें हुसैन साहब कहता था. वे असाधारण व्यक्ति थे. हमें उन पर गर्व होना चाहिए था, उनसे डींग मारनी चाहिए थी. उनसे पीठ फेरकर उन्हें भुला देना नहीं था.

थापर लिखते हैं हुसैन ने अपना जन्मदिन खुद गढ़ा. जन्म तिथि और वर्ष की अनिश्चितता थी. पासपोर्ट के लिए उन्होंने 'कम सेप्टेंबर' फिल्म देखी और सितंबर चुना. तिथि 17, "स्वीट 17". वर्ष 1915, लेकिन "मैं दो साल छोटा या बड़ा हो सकता हूं." हुसैन साहब ने कहा कि वे महाराष्ट्र के "बहुत मध्यम वर्गीय परिवार" में पैदा हुए. पिता टेक्सटाइल मिल में टाइमकीपर थे, बाद में एकाउंटेंट रहे. दादा भी मजदूर. घर में बिजली नहीं. पिता सड़क के लैंपों की रोशनी में पढ़ते. "इसलिए मेरे चित्रों में लैंप का महत्व है. रोशनी हमेशा रहती है."

उन्हें संख्या 10 से आजीवन मोह था. 1933 में पहली बिक्री से 10 रुपये मिले. बाद में 10 लाख. आज करोड़ों. कई लोग हुसैन की बनाई पेंटिंग्स में मदर टेरेसा को याद करेंगे तो कई अन्य घोड़ों के. मैंने पूछा क्यों मदर टेरेसा के चित्रों में चेहरा नहीं. बोले, "मैंने उन्हें अपनी मां के ख्याल से चित्रित किया. वह मेरी 1.5 वर्ष की उम्र में मर गईं, चेहरे की याद नहीं." स्वतंत्रता के बाद हुसैन घरेलू नाम बने. बाद में संग्राहक उनके चित्र खरीदने लगे. 2000 के प्रारंभ में पहली फिल्म निर्देशित. बोले, "फिल्म कला के सभी तत्व जोड़ती—वाणी, संगीत, क्रिया, रंग. चित्र एक आयामी." निर्देशन रचनात्मकता का उच्च स्तर. कल्पना कीजिए, यदि संग्रहालय दिल्ली या मुंबई में होता तो कितना सीख पाते. हमने खो दिया. वास्तव में, हाथ से फिसल जाने दिया. आज केवल पछतावा है.

एशियाई पत्रकार टीजेएस जॉर्ज

सुनन्दा के दत्ता रे ने टेलीग्राफ में लिखा है कि टी.जे.एस. जॉर्ज के निधन की खबर पढ़कर विचार आया कि 'अब एवोकाडो नहीं मिलेंगे!' लेकिन, तुरंत ही वास्तविक क्षति का एहसास हुआ क्योंकि जॉर्ज परिवार ने छोटे घर में शिफ्ट होने पर एवोकाडो उगाना बंद कर दिया था. जॉर्ज की असली पहचान भारत के एकमात्र पत्रकार के रूप में थी, जिनकी अंतरराष्ट्रीय ख्याति बिल्कुल सच्ची थी. जब एशियावीक ने मुझे नियमित कॉलम के लिए आमंत्रित किया, तो मैंने तुरंत हामी भर ली, क्योंकि मैं पहले से ही एनी मॉरिसन के पति डॉन के लिए टाइम मैगजीन के हॉन्गकॉन्ग संस्करण में लिख रहा था. 97 वर्ष की आयु में पूर्ण चेतना में चल बसे जॉर्ज ने पूर्व और पश्चिम के अलगाव के प्राचीन बहस को नई दिशा दी.

सुनन्दा के दत्ता रे लिखते हैं कि आज का पश्चिम एशिया इस भ्रम को उजागर करता है कि यहूदियों को पश्चिमी, अरबों को पूर्वी माना जाए. तुर्की खुद को 'पूर्वी भूमध्यसागरीय' कहता है, लेकिन यह नाटो और यूरोपीय संघ को चुनौती देता रहता है. 1970 के दशक में टीजेएस जॉर्ज का भारत छोड़ना मेरे 1993 के सिंगापुर प्रवास से कठिन रहा होगा. तब भारत एशिया नहीं था; एशिया भारत का छोटा हिस्सा लगता था.

स्ट्रेट्स टाइम्स भारतीय समाचारों को 'विश्व समाचार' मानता था. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान साम्राज्यवादी संबंध थे, लेकिन संस्थागत संबंध कम थे. इस विखंडन के विरुद्ध जॉर्ज और माइकल ओ'नील ने 1975 में हॉन्गकॉन्ग में एशियावीक लॉन्च किया. इस जीवंत पत्रिका का मिशन था: एशिया के सभी क्षेत्रों में सटीक और निष्पक्ष रिपोर्टिंग, एशियाई दृष्टिकोण से दुनिया देखना, विश्व में एशिया की आवाज बनना. संपादकों ने जोर दिया: 'एशियाई आंखों से एशिया'—यह औपनिवेशिक दासता से मुक्ति का बौद्धिक संकल्प था.

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भारत को तालिबान से जुड़ना ही होगा

विवेक काटजू ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि अफगानिस्तान के विदेश मंत्री अमीर खान मुत्तकी की भारत यात्रा मुख्य रूप से भविष्य की ओर देखने का अवसर है, लेकिन भारत-अफगानिस्तान के अतीत के विकासों को भी स्मरण रखना आवश्यक है. इससे भारत की अफगान तालिबान के प्रति नीतियां सकारात्मक लेकिन संयमित रहेंगी. ये नीतियां अफगान गणराज्य के अंतिम वर्षों में भारतीय विदेश एवं सुरक्षा प्रतिष्ठान द्वारा प्रदर्शित अवास्तविक उत्साह से चिह्नित नहीं होनी चाहिए. भारत की अफगानिस्तान नीतियां उसके पश्चिमी पड़ोस में बदलते वातावरण के संदर्भ में तैयार होनी चाहिए. अमेरिका ने तय किया है कि पाकिस्तान को भारत के निकटवर्ती एवं विस्तारित पश्चिमी पड़ोस में प्रमुख भूमिका निभानी चाहिए. चीन भी इस क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ा रहा है. उसके पाकिस्तान से संबंध लोहे जैसे मजबूत हैं, ईरान एवं अरब प्रायद्वीप में उसका प्रभाव विस्तारित हो रहा है.

विवेक काटजू लिखते हैं कि रूस ने तालिबान को कूटनीतिक मान्यता दी है और ईरान से उसके बंधन मजबूत हैं. इसी पृष्ठभूमि में, पाकिस्तान की अटल शत्रुता के बीच भारत को अपने पश्चिमी हितों की रक्षा करनी है. मुत्तकी के कार्यक्रम में विदेश मंत्री एस. जयशंकर से बैठकें, देवबंद का दौरा तथा 12 अक्टूबर को ताजमहल का भ्रमण शामिल है, जो सांस्कृतिक एवं कूटनीतिक पहुंच का प्रतीक है. भारत ने काबुल में अपना दूतावास फिर खोलने की घोषणा की है, जो तालिबान शासन को औपचारिक मान्यता न देने के बावजूद व्यावहारिक संबंध के विकास को दर्शाती है. यह कदम मानवीय सहायता एवं क्षेत्रीय स्थिरता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को रेखांकित करता है.

चर्चा के प्रमुख क्षेत्रों में व्यापार वृद्धि, विकास सहायता तथा आतंकवाद-रोधी सहयोग शामिल हैं, खासकर आईएसआईएस-के जैसे समूहों पर साझा चिंताओं को देखते हुए. हालांकि, भारत को सतर्क रहना होगा. तालिबान के पाकिस्तान से संबंध, जो सीमा-पार आतंकवाद में भूमिका निभा सकता है, प्रश्न खड़े करते हैं. अफगानिस्तान में चीन का बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव परिदृश्य को जटिल बनाता है. रचनात्मक संलग्नता से भारत इन प्रभावों का प्रतिकार कर सकता है, अफगानिस्तान में समावेशी शासन को बढ़ावा दे सकता है तथा मध्य एशिया में अपने रणनीतिक हित सुरक्षित कर सकता है.

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प्रशांत किशोर पर सबकी नजर

राहुल वर्मा ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि प्रशांत किशोर देशभर में कई विजयी चुनाव अभियानों के पीछे के रणनीतिकार रहे हैं. अब खुद स्पॉटलाइट में हैं. एनडीए और महागठबंधन के बीच किशोर को विघ्नसाधक माना जा रहा है. कुछ राजनीतिक टिप्पणीकार उन्हें 2025 बिहार चुनावों का एक्स फैक्टर कह रहे हैं. प्रशांति ने ऊंचा लक्ष्य रखा है. कहते हैं, "125 सीटें मिलें तो भी हार मानूंगा". बिहार की राजनीति ने साहसिक अभियानों को पुरस्कृत किया है—जैसे जयप्रकाश नारायण का संपूर्ण क्रांति, लालू यादव का सामाजिक पदानुक्रम उलटना, या नीतीश कुमार का खराब राज्य में शासन को केंद्र बनाना. किशोर इस सूची में शामिल होंगे, यह देखना बाकी है. फिर भी, उनकी जन सुराज पार्टी (जेएसपी) की चुनावी संभावनाओं का विश्लेषण जरूरी है.

राहुल वर्मा पूछते हैं कि क्या जेएसपी अकेले सबसे बड़ी पार्टी बनेगी? इसकी संभावना नगण्य है. राजनीतिक स्टार्टअप्स के पहले चुनाव में शासन या दूसरा स्थान दुर्लभ है. अपवाद जरूर हैं जैसे 1983 में आंध्र में एनटी रामाराव की टीडीपी, 1985 में असम में असम गण परिषद, 2013 में दिल्ली में आप (कांग्रेस समर्थन से). लेकिन इनमें गंभीर राजनीतिक उथल-पुथल और जमीन पर भारी जुटाव था. किशोर ने 2 अक्टूबर 2024 को दो वर्ष की पैदल यात्रा के बाद पार्टी लॉन्च की, जो गांधी आश्रम से शुरू हुई. पांच हजार गांवों का दौरान करने और 1 करोड़ सदस्य बनाने का दावा किया गया. इसका सत्यापन कठिन है.

नवंबर 2024 के चार उपचुनावों में जेएसपी ने एक के सिवा जमानत जब्ती झेली, लेकिन दो में वोट मार्जिन से अधिक मिले. चुनाव की तारीख की घोषणा से पहले के पोल में 10% वोट और 20%+ से सीएम के तौर पर पसंद से प्रशांत किशोर के हौंसले बुलंद हैं. ऊपरी जाति और मुसलमानों से अधिक समर्थन देखा जा रहा है. ओबीसी-दलितों के बीच कम समर्थन देखा जा रहा है. यदि प्रशांत किशोर का दांव मामूली रूप से भी सफल हुआ तो 2025 के चुनाव में जीत-हार का मार्जिन बहुत कम रहने वाला ह. जाति-निष्ठा वाली राजनीति का व्याकरण बदल सकता है. मध्य वर्ग की प्रतिबद्धता तय करेगी.

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