कांग्रेस सबसे बड़ी लूजर
तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि बिहार के चुनाव नतीजों को देखते हुए वे घंटों स्क्रीन से चिपकी रहीं. जो कुछ हो रहा था, उसने मंत्रमुग्ध कर दिया. किसी ने भी—न तो एग्जिट पोल, न टीवी के राजनीतिक पंडितों ने, न ही हम अखबारों के राजनीतिक पंडितों ने—नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले गठबंधन की इतनी भारी जीत की उम्मीद की थी.
यह समझना आसान नहीं है कि बिहार के मतदाताओं ने एक ऐसे व्यक्ति को इतना निर्णायक जनादेश क्यों दिया, जो 20 वर्षों से अधिक समय से राज्य के मुख्यमंत्री हैं. प्रचार के दौरान मिश्रित रिपोर्टें आईं.
कुछ ने कहा कि नीतीश कुमार स्वास्थ्य नहीं हैं. इसलिए, वे कभी-कभी ऐसी बातें कहते थे जो बेमानी लगती थीं. अन्य ने कहा कि तेजस्वी यादव ने जंगल राज की विरासत को झटक दिया है और उन्हें एक विश्वसनीय नया नेता माना जा रहा है. कुछ ने कहा कि राहुल गांधी ने अपनी ‘वोट चोरी’ यात्रा से इतनी लहरें उठाईं कि कांग्रेस पार्टी को उस राज्य में पुनरुद्धार के अवसर हैं, जहां वह अनगिनत वर्षों से जीत नहीं सकी.
तवलीन सिंह लिखती हैं कि उन्होंने पिछले एक दशक या इससे अधिक समय में हर बिहार चुनाव को कवर किया है, लेकिन इस बार व्यक्तिगत कारणों से नहीं जा सकी. इसलिए दूसरों की रिपोर्टिंग पर निर्भर रही. शुरुआत से ही, वह सिद्धांत जो मुझे सबसे कठिन लगता था, वह था कांग्रेस का पुनरुद्धार होने की संभावना. भारतीय लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत विपक्ष की अनुपस्थिति है, और अब अधिकांश प्रमुख राज्यों में भी. जब नरेंद्र मोदी को पिछले वर्ष लोकसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत नहीं मिला और राहुल गांधी ने अंततः संसद में पर्याप्त सीटें जीतकर विपक्ष के नेता का पद प्राप्त किया, तो कांग्रेस पार्टी ने व्यवहार करना शुरू कर दिया जैसे उसने मोदी को सत्ता से बाहर कर दिया हो. उसके बाद महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली और बिहार हार गईं.
यदि आत्मनिरीक्षण होता है, तो कांग्रेस पार्टी का शासक परिवार स्वीकार करने को मजबूर होगा कि उनका वर्तमान उत्तराधिकारी मतदाताओं के लिए महत्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दे उठाने या अपना संदेश उन तक पहुंचाने में विफल रहा है.
लालू और यादव साबित हुए तेजस्वी की बड़ी कमजोरी
सज्जन कुमार ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि गुरुवार को जब बिहार में चुनाव नतीजे आए तो तेजस्वी के सपने दिवाली के पटाखे की तरह बिखर गए. एनडीए ने धमाकेदार जीत हासिल की, जबकि महागठबंधन को मिली अपमानजनक हार. पोल पंडितों द्वारा हाइप की गई 'तेजस्वी लहर' मोदी-नीतीश की भारी मशीनरी में डूब गई. क्रूर विडंबना में, वही वफादार आधार जिसने पांच साल पहले उन्हें उपमुख्यमंत्री बनाया—मधेपुरा, सुपौल और सहरसा के यादव हृदयभूमि—स्क्रिप्ट पर चिपके रहे. उन्होंने उन्हें वोट दिया, हां, लेकिन पर्याप्त संख्या में ईबीसी (अत्यंत पिछड़ी जातियां), मुसलमानों और ऊपरी जातियों को खींच पाने यही बाधा भी बने. जो मतदाता तेजस्वी को ताजा चेहरा मानते थे अब लालू प्रसाद यादव की विरासत से चिपका हुआ समझ रहे थे. चाय की दुकानों पर फुसफुसाते हुए, "तेजस्वी अच्छा है, लेकिन लालू जी का बेटा है."
सज्जन लिखते हैं कि यह सिर्फ हार नहीं, यह हिसाब-किताब है. तेजस्वी का प्रचार अभियान रीब्रांडिंग का मास्टरक्लास था. 2015 का वह झगड़ालू युवा चला गया, जिस पर पुल ढहने से लेकर चारा घोटाले से जुड़े आरोप लगे. उसकी जगह एक चमकदार नेता खड़ा हो गया, जो आंकड़ों को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहा था. उन्होंने 2.5 करोड़ नौकरियों का वादा ठोक दिया, एक इतना साहसिक आंकड़ा जो राहुल गांधी के न्याय योजना की गूंज देता था लेकिन बिहार की निराशा में अधिक जमीनी लगता था.
उनकी 'बिहार फर्स्ट' एजेंडा में 10 लाख सरकारी नौकरियां, हर ब्लॉक में स्किल सेंटर और जाति जनगणना का वादा था ताकि समान कोटा सुनिश्चित हो—यह नीतीश कुमार के ओबीसी गणना पर फ्लिप-फ्लॉप पर सीधी चोट थी. तेजस्वी के बेरोजगारी पर हमले फ्लैट पड़ गए जब बीजेपी ने "पहले घर, फिर नौकरी" से जवाब दिया. बीजेपी ने नौकरियों को पीएमएवाई योजना से जोड़ा. ईबीसी, जो बिहार की आबादी का 36% हैं, नीतीश की जेडीयू की ओर लौट आए.
वोट देने से जिम्मेदारी खत्म नहीं होती
पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि मतदान जिम्मेदारियों का अंत नहीं है. बिहार की जनता ने हालिया विधानसभा चुनावों में अपना फैसला सुना दिया है—एनडीए को 202 सीटें, महागठबंधन (एमजीबी) को मात्र 35. सभी को इस फैसले को स्वीकार करना चाहिए. नई सरकार, चाहे मुख्यमंत्री कोई भी हो, को शुभकामनाएं दें, क्योंकि बिहार की जनता इसकी अधिक हकदार है. मीडिया ने चुनाव कवरेज में निराश किया. अधिकांश चैनल और अखबारों ने एक ही स्वर अपनाया: जाति आधारित वोटिंग, नीतीश कुमार के खिलाफ कोई एंटी-इनकंबेंसी नहीं, तेजस्वी यादव का अपील सीमित, प्रशांत किशोर के नए विचार लेकिन अनुभवहीन, मोदी का तत्काल जुड़ाव, राहुल गांधी का वोट चोरी-बेरोजगारी फोकस.
चिदंबरम लिखते हैं कि हर परिवार की एक महिला को 10 हजार रुपये का हस्तांतरण नया मुद्दा दिखा. बिहार की जनता की स्मृति लंबी है. उन्होंने लालू प्रसाद (1990-2005) के 15 वर्षों को याद किया, तेजस्वी पर अनुचित दोषारोपण किया (तब वे मात्र 16 वर्ष के थे). नीतीश के 20 वर्षों की विफलताओं पर कोई रोष नहीं. बिहार गरीब है? बेरोजगारी भयावह है? पलायन हुआ है? बहुआयामी गरीबी है? शिक्षा-स्वास्थ्य दयनीय है? शराबबंदी के बावजूद शराब उपलब्ध है? सभी प्रश्नों का उत्तर 'हां' है. फिर भी, ऐसा वोट क्यों?
शेखर गुप्ता ने व्यंग्य किया—'बिहार आज जो सोचता है, परसों भी सोचता था.' चंपारण युग की भावना जागृत करें. विपक्ष दलों ने वैकल्पिक विजन नहीं दिया. प्रशांत किशोर ने कोशिश की, लेकिन बाधाओं से जूझे. दोष विपक्ष का—नेतृत्व-धन से अधिक संगठन जरूरी. बीजेपी-जद(यू) के पास जमीनी ताकत थी, जो वोटर टर्नआउट सुनिश्चित करती. चुनाव आयोग संदिग्ध भूमिका में दिखा. बिहार में ही विशेष गहन संशोधन (SIR) घोषित कर बहस भटकाई, वोट प्रतिशत बढ़ाने में योगदान रहा. मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना—10 हजार हस्तांतरण—पोलिंग से 10 दिन पहले शुरू हुआ, चुनाव अभियान के दौरान भी जारी रहा लेकिन चुनाव आयोग ने रोका नहीं. एनडीए की भारी जीत के बावजूद, अगले पांच वर्षों में सरकार को जवाबदेह कैसे रखें? विपक्ष कमजोर, जिम्मेदारी जनता पर. मतदान से बड़ी यह जिम्मेदारी है. बिहारवासियों, जागें!
नेहरू की चर्चा
रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में पंडित जवाहरलाल नेहरू के बारे में डॉ मार्टिन लूथर किंग के विचारों की याद दिलायी है. यह इस संदर्भ में है कि हाल में बहुचर्चित अमेरिकी ने पंडित नेहरू का नाम अपने भाषण में लिया था. 30 वर्ष से भी छोटी उम्र में डॉ किंग ने पंडित नेहरू को भेजी अपनी पुस्तक के साथ नोट में लिखा था, “आपकी सच्ची सद्भावना, आपके व्यापक मानवतावादी चिंता और भारत के आपके महान संघर्ष से मिली प्रेरणा के लिए धन्यवाद, जो मेरे और मॉन्टगोमरी के 50 हजार नीग्ररो के लिए प्रेरणा बनी.” नेहरू ने प्राप्ति की पुष्टि करते हुए जवाब लिखा, “मैं लंबे समय से आपके द्वारा किए जा रहे कार्य में रुचि रखता हूं, और विशेष रूप से उसे करने के तरीके में. यह किताब मुझे इसमें गहरी अंतर्दृष्टि देगी, इसलिए मैं इसका स्वागत करता हूं...मुझे पता चला है कि भारत आने का आपके पास मौका है. मैं आपसे मिलने की प्रतीक्षा करूंगा.”
रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि 10 फरवरी 1959 को डॉ मार्टिन लूथर किंग भारत आए. दिल्ली से किंग दंपति ने भारत की तीन सप्ताह लंबी यात्रा शुरू की. कलकत्ता, पटना, मद्रास और बॉम्बे की यात्रा की. दिल्ली में गांधी शांति फाउंडेशन के प्रमुख जी रामचंद्र ने उनके सम्मान में रात्रि भोज दिया जिसमें प्रधानमंत्री आमंत्रित थे. नेहरू ने अपनी दुर्भाग्यवश अपनी अनुपस्थिति की वजह बताते हुए लिखा, “लेकिन मैं डॉ मार्टिन लूथर किंग द्वारा किए जा रहे कार्य को पनी श्रद्धांजलित अर्पित करना चाहूंगा. उनसे और उनकी पत्नी से मिलना एक महान आनंद था...”
उत्तर अमेरिका लौटने के बाद कनाडाई टीवी कार्यक्रम ‘फ्रंट पेज चैलेंज’ में अपने साक्षात्कार ने डॉ किंग ने कहा, “गांधी कसभी स्थितियों में पूर्ण अहिंसा मे विश्लवास करते थे, जबकि मुझे लगता है कि नेहरू इसे राष्ट्रों के भीतर आंतरिक स्थितियों में मानते होंगे लेकिन जब अंतरराष्ट्रीय संघर्षों की बात आती है तो वे मानते हैं कि एक राष्ट्र को सेना बनाए रखनी चाहिए.” लेखक लिखते हैं कि यदि नेहरू और किंग के बीच वास्तव में बातचीत हुई होती तो यह युगों की बातचीत होती क्योंकि दोनों पुरुषों को तिहास और राजनीतिक सिद्धांत में गहन रुचि थी. दोनों असामान्य रूप से सुशिक्षित थे. दोनों अपने विचारों को सावधानी और स्पष्टता से व्यक्त किया.
सवालों में बीबीसी
करण थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में सवाल किया है कि क्या बीबीसी संकट में है? या फिर इसे कठोर मानकों पर परखा जा रहा है? दोनों ही बातें हैं. दुखद यह कि यह खुद पर आघात कर रहा है जिसे रोका जा सकता था या जिसे बेहतर संभाला जा सकता था. ट्रंप पर जो डॉक्युमेंट्री बनी उसका संपादन क्षम्य है. 54 मिनट के जनवरी 2021 वाले भाषण में जोड़ तोड़ से ऐसी धारणा बनी कि ट्रंप हिंसा का समर्थन कर रहे थे. हालांकि ट्रंप की कैपिटल हिल में भूमिका पर प्रश्न वाजिब हैं.
बीबीसी को गलती स्वीकार कर माफी मांगनी चाहिए थी न कि ट्रंप की आलोचना या मुकदमे की धमकियों में उलझना चाहिए. इससे डॉक्युमेंट्री और इसकी गलतियों को नकारना- दोनों सवालों में हैं. हमास समर्थक पूर्वाग्रह भी संकट के धागों में शामिल है. अरबी सेवा का इजराइल विरोधी नजरिया चिंताजनक है. आंतरिक रिपोर्ट तो उजागर हुई लेकिन जवाब नहीं मिला. बीबीसी को इसकी गंभीरता समझनी होगी. संपादकीय, प्रबंधकीय व प्रस्तुतिकरण के स्तर पर विफलता को मानना भी होगा. आत्मसंतुष्टि सही नहीं है.
करन थापर ने फाइनेंशियल टाइम्स के हवाले से लिखा है कि बीबीसी यूके की सर्वोच्च रचनात्मक पत्रकारिता संस्थान है. राजीव गांधी को मां की हत्या की पुष्टि मार्क टुली के बीबीसी प्रसारण पर विश्वास हुई. अत्याचार की विभिन्न घटनाओं में पीड़ितों के लिए सत्य की आवाज रहा है बीबीसी और यह सीएनएन के मुकाबले श्रेष्ठ भी साबित हुआ है. संकट 2027 चार्टर नवीनीकरण के समय से शुरू हुआ. लाइसेंस शुल्क की समाप्ति हुई, निजीकरण की हवा बही. ब्रिटिश राजनेता बीबीसी को कमजोर न करें. क्राउन के साथ विश्व-सम्मानित संस्था मानी जाती है यह मीडिया संस्थान. महानिदेशक व समाचार प्रमुख के इस्तीफे से संशय पैदा हुआ है. अब भी स्थिति संभाली जा सकती है. 103 वर्षों में कई तूफान बीबीसी ने झेले हैं लेकिन यह गंभीर समय है. किंतु, यह भी सच है कि संवेदनशीलता, पारदर्शिता व ईमानदार प्रयास से इस स्थिति से उबरा जा सकता है. फिलहाल मिस रिपोर्टिंग के लिए सवालों में है बीबीसी.
