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संडे व्यू: जंग हमने जीती लेकिन नैरेटिव का क्या? नए स्वरूप में अमेरिकी मध्यस्थता

पढ़ें इस रविवार तवलीन सिंह, रामचंद्र गुहा, टीसीए राघवन, पी चिदंबरम और शशि थरूर के विचारों का सार.

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ट्रंप के ट्वीट भारत के लिए निराशाजनक

शशि थरूर ने न्यू इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि भारत-पाक कूटनीति के बदलते स्वरूप को राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के असाधारण ट्वीट से बेहतर तरीके से दर्शाया जा सकता है. ट्रंप ने भारत-पाक के बीच संघर्ष विराम में मध्यस्थता का दावा किया है. ट्रंप के ट्वीट भारत और पाकिस्तान के बीच दृष्टिकोण की विषमता को स्वीकार करने में विफल रहा है.

भारत ने लगातार शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के लिए अपनी प्राथमिकता व्यक्त की है जिसमें क्षेत्रीय संघर्ष के बजाए आंतरिक विकास पर ध्यान केंद्रित किया गया है. कई उकसावे के बावजूद भारत ने धैर्य रखा है, कूटनीतिक समाधान निकालने की इच्छा प्रदर्शित की है बशर्ते पाकिस्तान अपने आतंकवादी ढांचे को नष्ट कर दे.

शशि थरूर लिखते हैं कि ट्रंप के ट्वीट के बाद का समय दक्षिण एशियाई कूटनीति के परिदृश्य में और विशेष रूप से अमेरिका-भारत संबंधों के भीतर एक जटिल और संभावित रूप से नाजुक क्षण है. भारत और पाकिस्तान को एक समान रूप से पेश करने, व्यापार बढ़ाने और लंबे समय से चले आ रहे कश्मीर विवाद में शामिल होने की इच्छा परंपरागत नहीं है.

ट्रंप का पोस्ट भारत के लिए चार महत्वपूर्ण तरीकों से निराशाजनक है. पीड़ित और अपराधी के बीच गलत समानता, पाकिस्तान के लिए बातचीत का ढांचा बनाना, कश्मीर विवाद का अंतरराष्ट्रीयकरण और भारत-पाकिस्तान को एक तराजू पर रखना चिंताजनक है.

चीन के बढ़ते प्रभाव को संतुलित करने के लिए अमेरिका के व्यापक प्रयासो में भारत महत्वपूर्ण रणनीतिक साझेदार है. ट्रंप को इस बारे मे बेहतर जानकारी दी जानी चाहिए. भारत दक्षिण एशिया मे स्थिरता के वैश्विक महत्व को स्वीकार करता है लेकिन यह किसी भी विदेशी हस्तक्षेप को बर्दाश्त नहीं करेगा. क्षेत्रीय स्थिरता, आतंकवाद का मुकाबला करने और चीन के प्रभाव को रोकने का साझा हित महत्वपूर्ण है. ट्रंप के बयान के तत्काल बाद कूटनीतिक टकराव की संभावना का पता चलता है.

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जंग हमने जीती लेकिन नैरेटिव का क्या?

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि ऑपरेशन सिंदूर से जुड़ी सबसे अहम तस्वीर- एक जेहादी के शव के साथ पाकिस्तानी सेना के अफसरों की है. ताबूत पाकिस्तानी झंडे में है और उस पर लाल गुलाब के फूल हैं. लश्करे तैयबा के आतंकी के साथ सैन्य अफसरों की यह तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल है. इस तस्वीर को देखर लेखिका स्तब्ध हैं.

लेखिका का मानना है कि भारत-पाकिस्तान के बीच जंग में भारत की जीत हुई है. संघर्ष विराम पाकिस्तान ने मांगा. ट्रंप ने एलान किया. ट्रंप को सख्त आवश्यकता थी किसी न किसी युद्ध को समाप्त कराने की. दूसरी बार राष्ट्रपति बनने से पहले ट्रंप ने दावा किया था कि रूस-यूक्रेन की जंग वह चौबीस घंटों में रोक सकेंगे और इजराइल-फिलीस्तीन के बीच भी शांति ला सकेंगे. ऐसा हुआ नहीं. सो अब भारत और पाकिस्तान के बीच शांति कराने का श्रेय ले रहे हैं.

हमें किसी चीज की चिंता होनी चाहिए तो इस बात की कि पाकिस्तान को इस दौरान मुद्रा कोष से पैसे क्यों दिलवाए गये? यह साबित हुआ कि पाकिस्तानी सेना ऐसे दरिंदों को पाल रही है जिनको सारे विश्व ने जेहादी आतंकी माना. पाकिस्तान के रक्षामंत्री तक ने स्वीकार किया कि ‘गंदा काम’ हुआ है. बिलावल भुट्टो ने भी अतीत में ऐसा होने और अब नहीं होने की बात कही.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि बहावलपुर में मौलाना मसूद अजहर का अड्डा तबाह कर दिया गया. अमेरिकी पत्रकार डेनियल पर्ल के हत्यारे उमर सईद को भी दंडित किया गया. इन दरिंदों के अड्डों को तबाह करके हम कह सकते हैं कि इस युद्ध को हम जीत चुके हैं. अगली बार हमारे देश के अंदर आकर बेगुनाह लोगों को मारने से पहले इनके जिहादी साथी इतना तो सोचेंगे कि अब वह अपनी कायर, गंदी लड़ाई को रोकते नहीं हैं तो भारत उनको ढूंढ़ कर मारेगा जरूर. वे दिन गये जब हम चुपचाप सहते थे पाकिस्तान की सेना के दिए गये ‘हजार जख्म’. अब हर गोली का का जवाब दिया जाएगा गोले से. जैसे हमारे प्रधानमंत्री ने कहा है इन्हीं शब्दों में. पाकिस्तान को अब उस भाषा मे जवाब दिया जाएगा जो हम दशकों से नहीं देते आए हैं शराफत के मारे. हमारी शराफत को पाकिस्तान ने कमजोरी समझा.

चेत जाने का समय

रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में लिखा है कि एक समय में पैदा हुए और एक ही साम्राज्य की नींव पर बने भारत और पाकिस्तान को विरासत में एकसमान राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विरासत भी मिली. फिर भी बीते 8 दशक में उनके भाग्य में उल्लेखनीय रूप से भिन्नता आयी है. भारत में प्रति व्यक्ति आय पाकिस्तान के मुकाबले दोगुनी है. भारत एकजुट रहा है जबकि पाकिस्तान 1971 में बंट चुका है. भारत में कड़ी प्रतिस्पर्धा वाले आम चुनाव होते हैं जबकि पाकिस्तान में चुनावों का समय और परिणाम जनरलों द्वारा तय किए जाते हैं.

पाकिस्तान शीत युद्ध के बाद की दुनिया द्वारा पेश किए गये आर्थिक अवसरों का लाभ नहीं उठा सका क्योंकि राजनीति में सेना और भी महत्वपूर्ण हो गयी. भारत में आतंकवाद को प्रायोजित करने, ओसामा बिन लादेन की मेजबानी करने और परमाणु प्रसार में इसकी भूमिका के कारण पाकिस्तान की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा को और नुकसान पहुंचा. पहलगाम में हुए आतंकी हमले और हमारी सरकार की प्रतिक्रिया के मद्देनजर ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे देश को इतना छोटा करने वाला ‘हाइफनेशन’ फिर से उपयोग में आ गया है.

डोनाल्ड ट्रंप ने स्पष्ट रूप से भारत और पाकिस्तान की बराबरी की है. दो समान रूप से महान राष्ट्रों के रूप में उद्धृत किया है. फाइनेंशियल टाइम्स ‘दो धार्मिक ताकतों में टकराव’ नामक रिपोर्ट प्रकाशित कर रहा है. हमारा कट्टर दिल ऐसी तुलनाओं से भर जाता है. यह इस बात पर जोर देता है कि आतंक का निर्यात करने वाले राज्य और शीर्ष वैश्विक कंपनियों के सीईओ बनाने वाले देश के बीच कोई समानता नहीं हो सकती.

लेखक मानते हैं कि हमारे लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताने बाने में दरार आ गयी है, हमारी आर्थिक प्रगति रुक गयी है. चीन और भारत के बीच का अंतर अब इतना बड़ा हो गया है कि ‘चिंडिया’ शब्द प्रचलन से बाहर हो गया है. पिछले दशक मे भारत में निरंकुशकता और बहुसंख्यकवाद का लगातार उदय हुआ है. यही वह बात है जिसने उस पड़ोसी के साथ इन नई तुलनाओँ को प्रेरित किया है जिससे हम जन्म के समय ही रूपक और शाब्दिक रूप से अलग हो गये थे. समय आ गया है कि हम लोकतंत्र और बहुलवाद के अपने मूल मूल्यों के प्रति पुन: समर्पित हो जाएं.

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नए स्वरूप में अमेरिकी मध्यस्थता

टीसीए राघवन ने टेलीग्राफ में लिखा है कि भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष में अमेरिकी मध्यस्थता का अतीत नया आकार लेता दिख रहा है. 1999 के कारगिल संघर्ष का अंत अमेरिका द्वारा शत्रुता को समाप्त करने के लिए मध्यस्थता के साथ हुआ. अमेरिका की भूमिका ने एक कवर प्रदान किया जिससे पाकिस्तान की सरकार नियंत्रण रेखा के पार के उल्लंघनों से पीछे हटने की घोषणा करने में सक्षम हुई और वास्तव में अपनी सेना को एक असंभव स्थिति से बचाया. मुंबई आतंकी हमले के समय भी अमेरिका की भूमिका महत्वपूर्ण थी. हमले के पीछे साजिश पाकिस्तान में रची गयी और आतंकवादी उसके नागरिक थे, यह बात पाकिस्तान को स्वीकार करने के लिए अमेरिका का दबाव था. इसी तरह बालाकोट हवाई हमले के बाद स्थिति को शांत करने के लिए अमेरिकी मध्यस्थता की भूमिका प्रारंभिक चरण में प्रभावी रही.

टीसीए राघवन लिखते हैं कि पहलगाम आतंकी हमले के बाद के संकट में कई नयी विशेषताएं देखने को मिलीं. सिंधु जल संधि स्थगित करने से अब तक बचा गया था जो परंपरा टूट गयी. पाकिस्तान ने बालाकोट के बाद अपनी गैर उग्र प्रतिक्रिया का रुख बदल लिया. पाकिस्तान में इस बात को लेकर स्पष्ट रूप से गुस्सा था कि भारत बातचीत के सभी प्रयासों को नकार रहा था. पाकिस्तान अपने नागरिकों को यह दिखाना चाहता था कि कश्मीर की स्थिति अभी भी बातचीत के लिए तैयार है. कश्मीर में पूर्ण सामान्य स्थिति और पर्यटन बढ़ने के दावे जोर पकड़ रहे थे जिससे पाकिस्तान चिंतित था.

पहलगाम हमले पर भारत की प्रतिक्रिया के बाद अमेरिकी हस्तक्षेप से यह साफ हुआ कि इस्लामाबाद पर अमेरिका का प्रभाव बहुत बड़ा है. यह बात सर्वविदित है कि तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप और मध्यस्थता के कारण ही कश्मीर में संघर्ष की शुरुआत हुई. संयुक्त राष्ट्र की भूमिका ने विभाजन के मलबे के एक हिस्से को एक नासूर में बदल दिया. यह एक ऐसा इतिहास है कि जिसे भारत में कोई भी व्यक्ति स्पष्ट रूप से भूल नहीं सकता.

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अदम्य ट्रंप और उनके बयान

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि ऐसा लगता है कि ट्रंप मानते हैं कि 22 अप्रैल 2025 को पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले के बाद शुरू हुए भारत-पाकिस्तान संघर्ष में संयुक्त राज्य अमेरिका भी एक पक्षकार है. हर बार जब उन्होंने कुछ बोला या लिखा तो उन्होंने ऐसा ही जाहिर किया कि वे एक पक्षकार हैं. मगर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका कोई जवाब नहीं दिया. वे अब तक चुप्पी साधे हुए हैं. लेखक को लगता है कि मोदी दुविधा में हैं और उन्हें उस दिन का पछतावा है जब उन्होंने ‘अबकी बार, ट्रंप सरकार’ का नारा दिया था.

चिदंबरम लिखते है कि ट्रंप के ट्वीट के बाद अमेरिकी विदेश मंत्री के ट्वीट में भारत और पाकिस्तान के बीच तटस्थ जगह पर बातचीत होने की बात कही गयी. वहीं मीडिया ने बताया कि अमेरिकी उपराष्ट्रपति वेंस ने पिछली रात मोदी के साथ टेलीफोन पर बातचीत में ‘खतरनाक खुफिया जानकारी’ साझा की थी. 10 मई की शाम छह बजे भारत के विदेश सचिव ने पुष्टि की कि दोपहर 3.35 बजे दोनों देशों के सैन्य अभियान महानिदजेशके के बीच बातचीत हुई और शाम पांच बजे से संघर्ष विराम हो गया. लड़ाई रुक गई. इसलिए ट्रंप कहीं तथ्यों के मामले में गलत नहीं थे.

लेखक को खुशी है कि हमारे रक्षा बलों ने बहादुरी से लड़ाई लड़ी, कई कामयाबियां हासिल कीं और लड़ाई रुक गयी. 12 मई को ट्रंप ने परमाणु संघर्ष रोकने का दावा किया और इसे कारोबार से भी जोड़ा. अगले दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने परमाणु धमकी के आगे नहीं झुकने की बात कही. करीब सात सवाल उठाते हुए लेखक ने लिखा है कि सवाल और भी हैं लेकिन उन्हें उठाने का यह न तो समय है और न ही उचित जगह. चिदंबरम आगे लिखते हैं ट्रंप अदम्य हैं. वे जल्दी नहीं जाएंगे. वे शर्मनाक बयान और सवालों के लिए पर्याप्त सामग्री देते रहेंगे. हमें जवाब मिलेगा या चुप्पी ही जवाब है?

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