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संडे व्यू: बिहार में उलझा SIR, ट्रंप के सामने मजबूती से खड़ा होने की जरूरत

पढ़ें करन थापर, रामचंद्र गुहा, पुलाप्रे बालाकृष्णन, आनन्द नीलकंठन और राहुल गांधी पर द हिन्दू के संपादकीय का सार.

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बिहार में एसआईआर पर सवाल

करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में बिहार में चल रही चुनावी सूचियों की विशेष गहन संशोधन (एसआईआर) प्रक्रिया पर सवाल उठाया है. लेखक का मानना है कि कुल प्रभावित संख्या बताई गई से अधिक हो सकती है, जो लोकतंत्र के लिए चिंताजनक है. 1 अगस्त को ईसीआई द्वारा जारी मसौदा सूचियों में 6.56 मिलियन नाम हटाए गए, जो पहले की सूचियों का 9% है. बिहार की उच्च प्रजनन दर को देखते हुए, जहां 2001-2011 में वयस्क आबादी 28.5% बढ़ी, 2025 में मतदाता संख्या घटना आश्चर्यजनक है.

करन थापर ने पूछा है कि बढ़ती आबादी में पंजीकरण क्यों नहीं बढ़ा? एसआईआर का उद्देश्य डुप्लिकेट, मृतक या स्थानांतरित नाम हटाना है, लेकिन नए मतदाताओं—जैसे युवा या प्रवासी—को शामिल करना भी इसका मकसद है. जमीनी रिपोर्ट्स बताती हैं कि दलित, आदिवासी और मजदूर समुदायों के नाम गायब हैं. पूरे परिवार ग्रामीण क्षेत्रों में छूट गए हैं जो उन्हें मताधिकार से वंचित कर सकता है. चयनात्मक बहिष्कार चिंताजनक है जहां कुछ समुदाय राजनीतिक कारणों से प्रभावित हुए हैं.

चुनाव आयोग को पारदर्शिता अपनानी चाहिए. यह जानने की जरूरत है कि क्या मौत या माइग्रेशन के आंकड़े तथ्यों से सत्यापित हैं? क्या प्रभावित लोगों को अपील का मौका मिला? नए मतदाताओं का बहिष्कार समस्या बढ़ाता है, क्योंकि 2011-2021 में आबादी 10% बढ़ी. नयी कवायद से चुनाव परिणाम किसी एक ओर झुक सकते हैं. मजबूत दलों को फायदा हो सकता है. हाशिए वाले समूहों का बहिष्कार सार्वभौमिक मताधिकार को कमजोर करता है. लेखक एसआईआर को ईसीआई की निष्पक्षता की परीक्षा मानते हैं.

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राहुल गांधी के सवालों में दम

द हिन्दू ने संपादकीय लिखकर लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी की आवाज को बुलन्द किया है. संपादकीय में लिखा गया है कि राहुल गांधी ने भारत निर्वाचन आयोग पर गंभीर आरोप लगाए हैं. 2024 के आम चुनाव में बैंगलोर सेंट्रल के महादेवपुरा विधानसभा क्षेत्र में 1 लाख से अधिक फर्जी वोट बनाने का दावा करते हुए बीजेपी की जीत की बात कही गयी है. राहुल गांधी ने पांच प्रकार की चुनावी अनियमितताओं का विस्तार से उल्लेख किया: एक क्षेत्र में कई बार पंजीकरण, समान ईपीआईसी नंबर, और एक पते पर असंभावित मतदाता. हालांकि समान ईपीआईसी विभिन्न राज्यों में कोई बड़ा मुद्दा नहीं, लेकिन एक बूथ में एक व्यक्ति के कई वोट "एक व्यक्ति, एक वोट" सिद्धांत का उल्लंघन है.

गांधी का दावा है कि यह देश भर के सीमांत क्षेत्रों में भाजपा की मदद के लिए सुनियोजित है, जैसे महाराष्ट्र में देखा गया. हालांकि, विसंगतियां और भाजपा की जीत के बीच सीधा संबंध साबित नहीं हुआ; 2023 में 44,500 वोटों का अंतर 2024 में 1,14,000 हो गया, जबकि वृद्धि केवल 20,000 वोटों की थी. आरोप ईसीआई-भाजपा मिलीभगत के हैं. शपथ के तहत सबूत मांगना और दलों पर दोषारोपण. मतदाता डेटा पीडीएफ में जारी करना सत्यापन बाधित करता है. महादेवपुरा विवाद घर-घर सत्यापन की आवश्यकता उजागर करता है.

65 लाख नाम बिहार की मतदाता सूची से हटाए गये हैं जिनमें महिलाएं 55% हैं. 20 लाख नए मतदाता गायब हैं. कुल 94 लाख की कमी संभावित है. इससे लिंग मतदान अंतर बढ़ सकता है. गांधी के 7 अगस्त, 2025 के आरोपों पर ईसीआई का खंडन शंकाएं बढ़ाता है. जमीनी जांच सबूत की मांग करती है. घर-घर सत्यापन, खोजने योग्य डेटा, स्वतंत्र ऑडिट, दलों से सहयोग जैसी आवश्यकता महसूस की जा रही है. सुप्रीम कोर्ट हस्तक्षेप कर सकता है. ईसीआई को हर योग्य नागरिक की आवाज सुनिश्चित करनी चाहिए, अन्यथा लोकतंत्र की वैधता खतरे में.

गांधी के सान्निध्य में तराशे गये राजमोहन

रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ मे लिखा है कि महात्मा गांधी के चार पुत्र थे. उन्होंने बड़े बेटों हरिलाल और मणिलाल को सख्ती से पाला, रामदास को कम महत्व दिया, लेकिन सबसे छोटे देवदास के जन्म तक वे अधिक उदार हो चुके थे. देवदास कस्तूरबा का प्रिय था, आश्रम जीवन में सहज घुला, पिता के आदेशों का पालन करता रहा—सूत कताई से हिंदी सिखाने तक. एक बार देवदास ने अवज्ञा की: राजाजी की बेटी लक्ष्मी से प्रेम कर बैठे. दोनों के पिता इस प्रेम के खिलाफ थे. पांच वर्ष बिना संपर्क के प्रेम परीक्षा ली गयी जिसमें वे सफल हो गये और विवाह किया.

रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि देवदास हिंदुस्तान टाइम्स में नौकरी कर दिल्ली आए. चार बच्चे हुए- तारा (1934), राजमोहन (1935), रामचंद्र (1937), गोपालकृष्ण (1945). लेखक के मां-पिता को भी इस रोमांस ने प्रभावित किया. लेखक देवदास-लक्ष्मी के चारों बच्चों से परिचित और प्रभावित रहे. रामचंद्र (रामू) दार्शनिक, सेंट स्टीफेंस से पढ़े. गोपालकृष्ण से घनिष्ठ दोस्ती रही. तारा खादी विशेषज्ञ, बहुभाषी थे. राजमोहन का 90वां जन्मदिन (7 अगस्त) इस लेख का बहाना. 1990 में राजमोहन से मुलाकात हुई.

अमेठी चुनाव में राजीव गांधी से हार मिली, लेकिन राज्यसभा सदस्य बने. 'हिम्मत' पत्रिका उदार मूल्यों की, आपातकाल में बहादुरी, पत्रकार तैयार किए. राजमोहन की 'द गुड बोटमैन' से नेहरू को गांधी का उत्तराधिकारी माना—समावेशी, मुसलमानों का विश्वास, महिलाओं के अधिकार, दक्षिण में लोकप्रिय. नेहरू-पटेल ने गांधी की हत्या के बाद भारत को एकजुट किया. राजमोहन-रामचंद्र गांधी वास्तव में महात्मा गांधी के वंशज साबित हुए. रामू मौखिक परंपरा में उत्कृष्ट, राजमोहन लेखन में गहन. अंत: वेरीयर एल्विन के पत्र के हवाले से लेखक बताते हैं कि 1933 में विवाह के बाद से देवदास-लक्ष्मी सत्याग्रह से दूर रहते हुए खुशी-खुशी जीवन व्यतीत करते रहे.

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ट्रंप के सामने मजबूती की जरूरत

पुलाप्रे बालाकृष्णन ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि आज की दुनिया में 'शक्ति ही न्याय है' की सच्चाई ट्रंप द्वारा भारतीय निर्यातों पर 50% शुल्क लगाने से प्रमाणित होती है. यह ब्राजील के समान है. मोदी के ट्रंप को लुभाने—गले लगाने, हाथ पकड़ने—के बावजूद, अमेरिका ने अपने हित साधे, भारत को तेल पहुंच से वंचित करने की दुर्भावना दिखाई, जबकि एक अरब लोगों की आजीविका इससे जुड़ी है. अमेरिका इजराइल की गाजा तबाही में भागीदार है. यदि भारत रूसी तेल से 'रूस की युद्ध मशीन' को ईंधन देता है, तो अमेरिका खुद इजराइल की युद्ध मशीन है, हथियार और सहायता देकर फिलिस्तीन नरसंहार पर पर्दा डालता है. रूसी तेल पर भारत को निशाना बनाना हास्यास्पद, क्योंकि नाटो भागीदारों ने रूस से 2022 से अधिक तेल खरीदा.

बालाकृष्णन लिखते हैं कि ट्रंप के कदम ने 1991 से भारतीय आर्थिक नीति के आधार को उलट दिया. अमेरिकी विचारधारा वाले अर्थशास्त्रियों ने वैश्विक मुक्त बाजार की अवधारणा बेची, व्यापार बाधाएं हटाने पर जोर दिया, लेकिन भारत को फायदा नहीं मिला—उद्योग हिस्सा स्थिर रहा. अब स्पष्ट: वैश्विक मुक्त बाजार मिथक है.

जवाब में भारत तीन कदम उठाए: 1. अमेरिकी सामानों पर 50% पारस्परिक शुल्क, साहस दिखाकर ट्रंप को जवाब; इससे रूस, ईरान जैसे देशों से समर्थन मिलेगा, जो तेल आपूर्तिकर्ता हैं. भारत रूस से संबंध बनाए रखे, लेकिन ईरान से दूर हुआ—अब ईरान से तेल खरीदे, अमेरिका से दबाव में नहीं. दुनिया भर से तेल आपूर्ति सुरक्षित करे. 2. आपूर्ति श्रृंखला मजबूत बनाए. 3. वैश्विक प्रतिस्पर्धा पर ध्यान: अमेरिकी बाजार बंद होने पर अन्य बाजार ढूंढे, लेकिन प्रतिस्पर्धी उत्पाद बनाए—कम कीमत पर मूल्य दें. प्रतिस्पर्धा के लिए बुनियादी ढांचा, कानून, कुशल श्रम, विपणन जरूरी है. मजबूत सरकार की भूमिका अपरिहार्य है. बाजार अकेले सबकुछ नहीं कर सकते. मोदी का अमेरिकी सपना ट्रंप ने तोड़ा. राष्ट्रीय आपातकालीन स्थिति में राजनीतिक समर्थन जरूरी. तेल आयात पर निर्भर भारत अब अपने पैरों पर खड़ा होने की जरूरत है.

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भारतीय एकता की मिथक: ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विविधता

आनंद नीलकंठन ने न्यू इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि भारत की एकता का मिथक ऐतिहासिक तथ्यों के बजाय पौराणिक कथाओं पर आधारित है. प्राचीन साम्राज्यों जैसे मौर्य, गुप्त, चोल, पांड्य, विजयनगर और मुगलों ने कभी पूरे भारत को एकजुट नहीं किया. उदाहरणस्वरूप, अशोक का साम्राज्य दक्षिण के तमिल राज्यों तक नहीं पहुंचा, जबकि मुगलों के समय असम के अहोम और ट्रावनकोर स्वतंत्र रहे. मराठों का प्रभाव भी श्रद्धांजलि संग्रह तक सीमित था. वर्तमान राजनीतिक एकता अभूतपूर्व है, जो ब्रिटिश शासन का परिणाम है.

आनंद जोर देते हैं कि 5,000 वर्षों की भारतीय सभ्यता विविधता के कारण फली-फूली, न कि एकरूपता से. आधुनिक राष्ट्र ब्रिटिश निर्माण है, जहां कई क्षेत्र केवल औपनिवेशिक दुर्घटना से जुड़े हैं. सांस्कृतिक एकता भी मिथक है. भारत क्षेत्रीय पहचानों का पैचवर्क है, जहां केरल का मलयाली और पंजाबी की संस्कृति, भोजन, पोशाक, कला और रीति-रिवाज पूरी तरह अलग हैं. भूगोल राष्ट्रीय सीमाओं से अधिक प्रभावी है; बंगाल का बांग्लादेश से सांस्कृतिक बंधन गुजरात से मजबूत है, जबकि केरल का श्रीलंका से पुराना संबंध है. नेपाल हिंदू राज्य रहा लेकिन भारत से अलग. भारत में विविध धर्म हैं, और तमिलनाडु का हिंदू धर्म हिमाचल से भिन्न है.

भारत में 22 आधिकारिक भाषाएं और सैकड़ों बोलियां हैं, जैसे पंजाबी भारत-पाकिस्तान को जोड़ती है. भारत को जोड़ने वाला मुख्य कारक औपनिवेशिक प्रशासनिक संरचना है, जो स्वतंत्रता के बाद मजबूत हुई. एकता राजनीतिक है—संविधान, कानून और लोकतंत्र. हाल की घटनाएं जैसे दिल्ली पुलिस द्वारा बंगाली को 'बांग्लादेशी भाषा' कहना, 'द केरला स्टोरी' का पुरस्कार विवाद, और हिंदी नामों वाले कानून (जैसे भारतीय न्याय संहिता) भाषाई युद्ध को उजागर करती हैं. ये क्षेत्रीय पहचानों को हाशिए पर धकेलते हैं, जो प्रतिक्रिया पैदा करती हैं. लेखक चेतावनी देते हैं कि राष्ट्रीय पहचान नई है, जबकि भाषाई-सांस्कृतिक पहचानें प्राचीन हैं.

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