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खोखले नारों और भाषा की सियासत में उलझकर रह गई हिंदी

कई ‘देशभक्त’ हिंदी का गुणगान करते मिल जाते हैं. यह अलग बात है कि उनके पास हिंदी को देने लिए कुछ नहीं होता है.

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संसदीय राजभाषा समिति के नौवें खंड की रिपोर्ट की सिफारिशों पर राष्ट्रपति का आदेश आते ही मीडिया विमर्श दो खेमों में बंट गया.

अपने को हिंदी-भक्त बताने वाले एक तबका ने यह दावा किया कि हिंदी को हिंदू और हिंदुस्तान से जोड़े बिना न तो सच्चा राष्ट्रवाद प्राप्त हो सकता है, न ही देश का डिजिटल विकास. इस वर्ग ने पुरजोर दलील दी कि यूं तो हिंदी में राष्ट्रभाषा बनने की एक अद्भुत प्राकृतिक क्षमता है, लेकिन चूंकि अभी तक देश में सच्ची देशभक्त सरकार नहीं आई है, इसलिए ये जिम्मेदारी भी अब मोदी सरकार को ही उठानी है.

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हिंदी विरोधियों का तर्क भी कुछ इसी तरह का था. उनका मत था कि हिंदी को स्कूली शिक्षा के स्तर पर अनिवार्य करने के पीछे मोदी सरकार की एक निश्चित साजिश है. वो यह कि हिंदी को प्रोत्साहन देने के बहाने सरकार न केवल अन्य प्रांतीय भाषाओं को बर्बाद करना चाहती है, बल्कि उसकी मंशा 'एक राज्य, एक धर्म और एक भाषा' की तर्ज पर 'हिंदी-हिंदू-हिंदुत्व' को स्थापित करना भी है. ये प्रस्तावनाएं नई नहीं हैं.

अपने को देशभक्त बताने वाले हिंदुत्ववादी अक्‍सर हिंदी के गुणगान करते मिल जाते हैं. ये अलग बात है कि न तो उनके पास हिंदी को देने लिए कुछ है, न ही उन्होंने हिंदी को लोकप्रिय बनाने के लिए कोई खास प्रयास ही किया है.

ऐसे हिंदी-भक्तों का हिंदी प्रेम कुछ भारतीय भाषाओं (खासकर उर्दू और तमिल) और अंग्रेजी के सतही विरोध तक सीमित रहा है. दूसरी तरफ अपने को भाषाई सेक्युलर बताने वाला बुद्धिजीवी वर्ग हिंदी को 'हिंदी-हिंदू-हिंदुत्व' के मॉडल से अलग करके नहीं देखता. इस तबके के लिए हिंदी के प्रचार का अर्थ है, हिंदुत्व को प्रोत्साहन.

यहां इस बात का जिक्र करना जरूरी है कि राजभाषा संसदीय समिति का गठन 1976 में हुआ था. इसके नौवें खण्ड की रिपोर्ट जून 2011 में राष्ट्रपति के पास भेजी गयी थी. राष्ट्रपति ने समिति के सुझावों पर अपनी विस्तृत टिप्पणी देते हुए इसकी मूल सिफारिशों को पिछले महीने स्वीकार कर लिया, जिसकी अधिसूचना भारत के गजट में प्रकाशित भी हो चुकी है. इस तरह समिति के गठन और उस पर राष्ट्रपति की स्वीकृति की प्रक्रिया का मौजूदा बीजेपी सरकार के सत्ता में आने से कोई सीधा रिश्ता नहीं बनता है.

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इस रिपोर्ट को अगर ध्यान से पढ़ा जाए, तो यह साफ है कि संसदीय समिति हिंदी के प्रति सरकारी रवैये से संतुष्ट नहीं है. इस बात को मानते हुए कि सरकारी कामकाज के लिए अंग्रेजी का इस्तेमाल एक व्यवहारिक जरूरत है, समिति भारतीय भाषाओं और खासकर हिंदी के विकास के लिए मिलने वाले सरकारी प्रोत्साहन के दायरे को उजागर करती है.

इस बारे में समिति की दो सिफारिशों का जिक्र जरूरी है.

सरकारी महकमों में विभिन्न विषयों पर होने वाली कार्यशालाओं में जो लोग लेक्चर देने आते हैं, उन्हें एक जैसा भुगतान नहीं होता. समिति यह पाती है कि हिंदी के विद्वानों को अन्य विषयों के विद्वानों से कम पारिश्रमिक दिया जाता है.

दिलचस्प बात यह है कि भुगतान की यह असमान प्रक्रिया बिना किसी नियम के वर्षों से चली आ रही है. इसका मतलब यह हुआ कि सरकारी तंत्र जान-बूझकर या फिर अनजाने में ही हिंदी को दोयम दर्जे की भाषा और हिंदी में काम करने वालों को सतही विद्वान मानता था और मानता है.

दूसरा उदाहरण संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में हिंदी माध्यम की स्‍वीकार्यता से संबंधित है. समिति कड़े शब्दों में यह सिफारिश करती है कि इन परीक्षाओं के लिए हिंदी में जवाब लिखने की सुविधा होनी चाहिए.

उल्लेखनीय है कि संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं के लिए हिंदी माध्यम की स्वीकृति एक लम्बे संघर्ष का परिणाम है. यह एक ऐसा संघर्ष रहा है, जिसको किसी भी राजनीतिक दल का कोई स्पष्ट समर्थन हासिल नहीं हुआ. यहां तक कि हिंदुत्व के पुजारी भी हिंदी माध्यम की स्वीकृति की लड़ाई से अपना पल्ला बचाते रहे थे.

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जमीनी हकीकत से रूबरू होते इन सुझावों का भविष्य सरकार की भाषा नीति से जुड़ा है. यहां याद रखना होगा कि भाषा नीति का अर्थ केवल हिंदी को प्रोत्साहन देने तक सीमित नहीं है, बल्कि भाषा नीति ऐसे बौद्धिक और प्रशासनिक प्रयासों का नाम है, जिनका उद्देश्य भाषाओं को सर्वमान्य, लोकप्रिय और आत्मनिर्भर बनाना होता है.

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इस नजरिए से देखें, तो पिछले तीन वर्षों में सरकार की कोई भाषा नीति है ही नहीं. यह सही है कि राजभाषा विभाग को मिलने वाले बजट अनुदान में कोई कटौती नहीं की गयी है. लेकिन सरकार ने न तो हिंदी में मूल लेखन को बढ़ावा देने के लिए कोई ठोस कदम उठाया है, न ही समाज विज्ञान, कला और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उपलब्ध साहित्य के हिंदी अनुवाद के लिए कोई दिशा-निर्देश जारी किए हैं.

भोपाल में आयोजित 10वें विश्व हिंदी सम्मेलन के अलावा इस सरकार ने हिंदी के विकास के लिए कोई विशेष आयोजन भी नहीं किया है. (वैसे भी भोपाल हिंदी सम्मेलन में भी मुख्य आकर्षण मोदी का डिजिटल इंडिया वाला भाषण और अमिताभ बच्चन की हिंदी दक्षता ही बन पाए!)

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हिंदी के प्रति बीजेपी सरकार की यह उदासीनता चौंकाने वाली नहीं है. बीजेपी का 2014 का चुनाव घोषणापत्र हिंदी के विषय में कोई खास वायदा नहीं करता. यह दूसरी बात है कि भारतीय भाषाओं के विकास का दावा इस संकल्‍प पत्र में मौजूद है, ताकि 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत' का नारा स्थापित हो सके. बिहार और उत्तर प्रदेश चुनावों में भी बीजेपी ने हिंदी को राजनीतिक मुद्दा नहीं बनाया था.

हिंदी की सरकारी राजनीति बेहद दिलचस्प रही है. एक तरफ सरकारों ने हिंदी को राजभाषा की कोरी कागजी मान्यता और कुछ अनुदान देकर ‘सरकार की अपनी जुबान’ बना दिया, ताकि अन्य भारतीय भाषाओं और हिंदी के बीच का द्वंद्व कायम रहे और फलता-फूलता रहे. दूसरी ओर हिंदी के प्रति सौतेला व्यवहार जारी रखा है, ताकि अंग्रेजी के सर्वव्यापी वर्चस्व को कोई चुनौती न दी जा सके.

हिंदी के सवाल को इस दोहरी सरकारी राजनीति से अलग करके उठाना जरूरी है, ताकि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के अस्तित्व को बचने के जमीनी संघर्षों पर खुलकर बात हो सके.

(लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. इनसे @Ahmed1Hilal पर संपर्क किया जा सकता है. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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