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बेटी बचाओ जैसे स्लोगन,लाल फीते से सजी रिपोर्ट तक ही सीमित हैं?

महिलाओं के लिए सबसे बड़ा और खास मुद्दा सुरक्षा का था, जिस पर न तो पिछले बजट में कोई खास बात नहीं की गई

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"नारी तू नारायणी है", कुछ इस तरह 2019 के बजट भाषण में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने नारी सशक्तिकरण की योजनाओं की घोषणा बीते साल की थी. इस साल के बजट का नारा रहा ‘’बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’’. विमेन एंटरप्रेन्योरशिप से लेकर महिलाओं के पोषण तक सरकारी ब्रांडिंग के लिए सभी मुद्दे ध्यान में रखे गए लेकिन महिलाओं के लिए सबसे बड़ा और खास मुद्दा सुरक्षा का था, जिस पर न तो पिछले बजट में कोई खास बात की गई न ही इस बजट में इस गंभीर मुद्दे को तवज्जो दी गई.

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संसद भवन में महिला सशक्तिकरण के मुद्दे को इस बार भी खूब तालियां मिलीं. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट में महिलाओं और बच्चों के पोषाहार के लिए 35,300 करोड़ रुपये का ऐलान किया है, वहीं महिलाओं से जुड़ी योजनाओं के लिए 28,600 करोड़ के बजट की घोषणा की. लेकिन जिस महिला सुरक्षा की गूंज पिछले दिनों संसद और सड़कों पर सुनाई दी वो इस बार भी बजट से गायब रही.

महिलाओं के लिए ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’, पोषण अभियान,  बेटियों की शादी की उम्र 18 साल से आगे तय करने के लिए टास्क फोर्स बनाने जैसी जरूरी घोषणाएं तो हुईं, लेकिन ये मुद्दा अनदेखा रहा कि जब  महिलाएं सुरक्षित ही नहीं रहेंगी तो इन योजनाओं का इस्तेमाल कौन करेगा.  
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क्या बेटी बचाओ सरकारी ब्रांडिंग का खूबसूरत ‘लोगो’ है?

बेटी बचाओ सरकारी ब्रांडिंग का महज खूबसूरत लोगो है या फिर वाकई ऐसा हो भी रहा है. ये एक बहुत बड़ा सवाल है क्योंकि आंकड़े तो कुछ और ही बताते हैं. नेशनल क्राइम रिपोर्ट ब्यूरो (NCRB) के अनुसार साल 2018 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के देश भर में कुल 3,78,277 मामले दर्ज हुए. जिनमें एसिड अटैक, किडनैपिंग, ह्यूमन ट्रैफिकिंग, माइनर्स के साथ रेप, मॉलेस्टेशन जैसे जघन्य अपराधों की भरमार है. तो फिर बेटी बचाओ जैसे स्लोगन, लाल फीते से सजी रिपोर्ट तक ही सीमित हैं?

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पिछली घोषणाएं किसी फिल्म के पोस्टर की तरह उतर जाती हैं. नया बजट, नई फिल्म, नया पोस्टर. ऐसा इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि कल से आज तक नारे भले ही बदल गए हों लेकिन महिलाओं से जुड़े मुद्दों की हालत जस की तस है. निर्भया केस के बाद सिस्टम एक्शन मोड में दिखाई दिया. बजट में ऐलान हुआ 1649 करोड़ के निर्भया फंड का लेकिन विडंबना देखिए कि 11 राज्यों ने इस काम के लिए एक पैसा भी खर्च नहीं किया.

दिल्ली जैसे सेन्सिटिव राज्य में 390.90 करोड़ में से कुल 19.41 करोड़ रुपये का ही काम हो पाया. यही हाल ‘वन स्टॉप स्कीम’ और महिला हेल्पलाइन का है. इन हालातों के बाद यही कहा जा सकता है कि सिर्फ बजट की तारीख बदली है, महिलाओं की सुरक्षा से जुड़े हालात नहीं. सवाल फिर वहीं आकर खड़ा हो जाता है कि इस लापरवाही, इस कोताही का हिसाब कौन देगा?

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यूं तो महिलाओं के लिए सरकारी स्कीमों में सुरक्षित वातावरण देने की प्राथमिकता तय की गई है. बच्चियों के खिलाफ अपराधों में 'प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंस' यानी पॉक्सो एक्ट लागू किया गया है. तमाम तरह की टास्क फोर्स, लीगल सेल, गाइडलाइंस प्रोटोकॉल बनाए गए हैं पर हकीकत यह है कि हर घंटे 5 महिलाओं के साथ सेक्सुअल असॉल्ट की घटनाएं होती हैं. इतने कानून और योजनाओं के बावजूद केवल 33 प्रतिशत महिलाएं ही अपराधों के खिलाफ आवाज उठा पाती हैं.

अपराधी का खौफ, सभ्य समाज का डर, सिस्टम की धीमी चाल इन सब का एक उदाहरण तो हम खुद ही देख रहे हैं, कि निर्भया के गुनहगारों को सजा होने के बावजूद 7 साल बाद भी फांसी पर नहीं लटकाया जा सका. ऐसी कई स्कीम होंगी जिससे शायद सरकार को कैपिटल गेन हो जाए और देश पांच ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी का पहाड़ छू ले, लेकिन महिला सुरक्षा का मुद्दा कल भी चिंता का विषय था और आज भी सरकारी बजट में आसमान तो दिखा दिया जाता है, लेकिन अपने पंखों पर उड़ने का अरमान पूरा होने की दरकार अभी भी बाकी है.

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