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सेना नहीं, अदालतों की वजह से रक्षा सेवाओं में आ रही हैं महिलाएं

सेना की नीति के कारण आज भी महिलाओं की भर्ती आसान नहीं है, पर कोर्ट के चलते सेना में महिलाओं की संख्या बढ़ी है.

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जब महिला सैनिक अपने पूरे सैनिक वेश में निकलती है, तो देश का सीना गर्व और देशभक्ति के जज्बे से चौड़ा हो जाता है. सशक्ति‍करण, समानता, काम करने के समान अवसर जैसे जुमले इस्तेमाल किए जाने लगते है. सरकारी दफ्तरों में बैठे बड़े अधिकारी नारी शक्ति का गुणगान करते हैं और मीडिया को टीआरपी बढ़ाने का मसाला मिल जाता है.

पर इन सारी कवायद के पीछे की विडंबना इस आडंबर का असली चेहरा दिखाती है. रक्षा सेवाएं आज भी महिलाओं को अपनाना नहीं चाहती. आज अगर नारी शक्ति इस क्षेत्र में अपनी पहचान बनाती नजर आ रही है, तो इसके पीछे सेना या सरकार की महिलाओं का खुली बाहों से स्वागत करने वाली कोई नीति नहीं, बल्कि न्यायालयों के आदेशों की ताकत है, खासकर दिल्ली हाईकोर्ट के आदेशों की.

पहले जहां महिलाएं सिर्फ शॉर्ट सर्विस कमीशन के जरिए ही सेना मे प्रवेश पा सकती थीं, वहीं दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश के बाद अब वे परमानेंट कमीशन के जरिए भी सेना का हिस्सा बन सकती हैं.

अगर सेना की चलती, तो अधिकतर महिला सैन्य अधिकारी अपनी 5 से 14 साल की सेवा के बाद उस उम्र में बिना किसी नौकरी और पेंशन के रह जाने पर मजबूर हो जातीं, जब उन्हें सहारे की सबसे ज्यादा जरूरत होती है.

व्यावहारिक हल निकालने की जरूरत

इस मामले में अब भी सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा लंबित है, क्योंकि थलसेना और जलसेना दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को मानने को तैयार नहीं. वायुसेना ने यहां अपनी गरिमा बचाए रखी है.

हालांकि महिला सैनिकों को पहली पंक्ति में उतारना अभी भी बहस का मुद्दा है, पर सेना को महिलाओं के पक्ष में आने वाले सभी फैसलों को चुनौती देते रहने की बजाय एक व्यावहारिक हल निकालने की जरूरत है.

प्रशासनिक अहंकार के आधार पर फैसला करने से बचा जाए

पिछले कुछ सालों के हमारे सबसे अधिक संवेदनशील और व्यावहारिक रक्षा मंत्री और हमारे सेनाध्यक्षों को ध्यान रखना होगा कि महिलाओं के पक्ष में आने वाले फैसलों को मात्र प्रशासनिक अभिमान के चलते ही चुनौती न दे दी जाए.

उन्हें इस बात से डर नहीं जाना चाहिए कि सेना में अधिक महिलाओं के आ जाने से कैडर मैनेजमेंट जैसी परेशानियां बढ़ जाएंगी.

यह सच है कि सेना में महिलाओं की भर्ती की नीति के बदलाव से पहले इस पर स्टडी करना जरूरी है. पर यह स्टडी सिर्फ सेना पर नहीं छोड़ दी जानी चाहिए. साथ ही स्टडी करने वाले दल में सेना में कार्यरत और सेवानिवृत्त महिला सैनिकों को भी प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए.

कुछ मुद्दों पर सेना के पास जायज आपत्तियां हो सकती हैं, पर इन्हें सहभागिता बढ़ाने की सोच के साथ सामने रखा जाना चाहिए, न कि बदलाव को खारिज करने के नजरिए से.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सेना में महिलाओं की संख्या बढ़ाने पर सकारात्मक रुख और सेनाध्यक्षों की इस मामले में बनती सहमति के बावजूद हमें अभी लंबा रास्ता तय करना है. ऐसे में हमें सेना के सकारात्मक रवैये की सबसे ज्यादा जरूरत है.

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रक्षा सेवाओं में पेंशन और मुकदमों पर स्टडी के लिए रक्षामंत्री द्वारा बनाई एक्सपर्ट कमेटी, जो कि अपनी रिपोर्ट दे चुकी है, के एक सदस्य के तौर पर मैंने व अन्य सदस्यों ने कोस्ट गार्ड की प्रतिगामी नीतियों पर कड़ी आपत्ति जताई थी.

वहां महिलाओं को प्रवेश देने से पहले एक पत्र पर हस्ताक्षर कराए जाते हैं, जिसके अनुसार वे अपनी सेवा के पहले तीन साल में गर्भ धारण नहीं कर सकतीं और अपनी पूरी सेवा के दौरान सिर्फ दो बार ही गर्भवती हो सकती हैं.

रक्षा सेवाओं और रक्षा मंत्रालय को गृह मंत्रालय से सीखना चाहिए. उन्होंने केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण की घोषणा की है. महिलाएं वहां कई साल से बेहतरीन सेवा दे रही हैं.

यह कहना गलत होगा कि अधिक महिलाओं के सेना में आने से कोई परेशानी नहीं होगी, पर कोई भी समाज और व्यवस्था समय के अनुसार अपनी समस्याओं के हल खुद निकाल लेती है.

गृहमंत्री ने अपने शब्दों को अमलीजामा पहनाते हुए खाकी वर्दी में महिलाओं और पुरुषों की बराबरी सुनिश्चित की है.

इसीलिए मैं कहता हूं कि नारी शक्ति कदमताल करती हुई टुकड़ी में नहीं, हमारे अपने दिमागों में है.

(लेखक मेजर नवदीप सिंह पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट में वकील हैं, साथ ही वे इंटरनेशनल सोसायटी ऑफ मिलिट्री लॉ के सदस्य भी हैं.)

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