(जीएसटी लागू होने के साथ ही भारत दुनिया का सबसे बड़ा एकीकृत बाजार बन गया है. इस देश ने कब ये कल्पना की होगी कि 30 जून की रात 12 बजे से कोई नया बाजार खुलेगा. ये उसी बाजार के साथ तैयार होते भारत की निशानी है. इस बाजार के साथ धीरे-धीरे तैयार हुए भारत की कहानी मेरे अपने शहर इलाहाबाद के जरिए सुनिए, देखिए.)
बाजार अब लोगों को नए जमाने के साथ रहने की तमीज सिखा रहा है. छोटे शहरों में पहुंचते बड़े बाजार ये सिखा-बता रहे हैं कि अब कैसे रहना है, कैसे खाना है, क्या खरीदना है, कहां से खरीदना है, कितना खरीदना है और क्या किसके लिए खरीदना जरूरी है.
छोटे शहरों के लोग बाजार पहुंचने में लेट न हो जाएं. इसके लिए छोटे शहरों तक खुद ही बड़ा बाजार पहुंच रहा है. घर की जरूरत का हर सामान वहां इतने करीने से लगा है कि, घर के लिए अब तक गैरजरूरी सामान भी जरूरी लगने लगता है.
‘इलाहाबाद में भी पहुंच चुका है बड़ा बाजार’
हमारे शहर इलाहाबाद में भी करीब एक दशक पहले बड़ा बाजार पहुंच गया है. अब इलाहाबाद छोटा शहर तो नहीं है लेकिन, बाजार के मामले में तो, छोटा ही है. इससे सस्ता और कहां का नारा लेकर बड़ा बाजार ने अपनी दुकान इलाहाबाद में खोल ली.
बड़ा बाजार पहुंचा तो, 40 रुपए के खादी आश्रम के तौलिए से हाथ-मुंह पोंछने वाले इलाहाबादियों को एक बड़ा तौलिया, महिलाओं के लिए एक नहाने का तौलिया, दो हाथ पोंछने के तौलिए और दो मुंह पोंछने के छोटे तौलिए का सेट बेचने के लिए. गिनती के लिहाज से ये 6 तौलिए का पूरा सेट है 599 रुपए का, जिसकी बड़ा बाजार में कीमत है सिर्फ 299, ऐसा वो लिखकर रखते हैं.
इलाहाबादी खरीद रहे हैं, महिलाओं के नहाने वाले तौलिये से भी पुरुष ही हाथ मुंह पोंछ रहे हैं. क्योंकि, अभी भी इलाहाबाद में महिलाएं बाथ टॉवल लपेटकर बाथरूम से बाहर आने के बजाए पूरे कपड़े पहनकर ही बाहर आती हैं. लेकिन, बड़ा बाजार इलाहाबादियों के घर में बाथ टॉवल तो पहुंचा ही चुका है.
‘बड़ा बाजार में सब सलीके से होता है’
इलाहाबादी सुबह उठकर गंगा नहाने गया तो, घाट के पास दारागंज मंडी से हरी सब्जी, आलू-मिर्च सब लादे घर आया. गंगा नहाने नहीं भी गया तो, अल्लापुर, बैरहना, फाफामऊ, तेलियरगंज, कीडगंज, मुट्ठीगंज, सलोरी, चौक जैसे नजदीक की सब्जी मंडी से दो-चार दिन की सब्जी एक साथ ही उठा लाता था. चार बार मोलभाव करता था. झोला लेकर जाता था. सुबह सब्जी लेने गया तो, साथ में जलेबी-दही भी बंधवा लिया. लेकिन, अब बड़ा बाजार आया तो, सब सलीके से होने लगा.
आलू भी धोई पोंछी और पॉलिथीन में पैक करके उसके ऊपर कीमत का स्टीकर लगाकर मिलने लगी है. बाजार ने नाश्ते का भी अंदाज बदल दिया है. नाश्ते में इलाहाबादी दही-जलेबी, खस्ता-दमालू की जगह सॉस के साथ सैंडविच खाने लगा है.
बच्चों के लिए कार्टून कैरेक्टर बनी टॉफी के लिए भी इलाहाबादी बड़ा बाजार जाने लगा है. टॉफी का बिल देने के लिए लाइन में लगा है. पीछे से किसी ने मजे से बोला क्या एक टॉफी के लिए इतनी देर लाइन में लगे हो- अइसहीं लेकर निकल जाओ. लाइन में ठीक पीछे खड़ा आलू की पॉलिथीन वाला जो, शायद मजबूरी में सलीके में था, खीस निपोरकर बोला- चेकिंग बिना किए नए जाए देतेन, पकड़ जाबो. और नए तो, अइसे जाइ दें तो, सब भर लइ चलें.
‘इलाहाबादी बदल रहा है, लाइन में लगने लगा है’
इलाहाबाद का बिग बाजार तीन मंजिल के कॉम्प्लेक्स में खुला है. तीसरी मंजिल से खरीदारी के लिए जाते हैं. पहली मंजिल पर बिल जमा करके जेब हल्की करके और हाथ में बिग बाजार का भारी थैला लेकर बाहर निकलते हैं. इन तीन मंजिलों के चढ़ने-उतरने में और बिग बाजार की लाइन में लगे-लगे इलाहाबादी बदल रहा है.
इलाहाबादी लाइन में लगने लगा है. सलीके से अपनी बारी आने का इंतजार कर रहा है.
55 साल का एक इलाहाबादी बाजार के साथ सलीका सीखती-बदलती अपनी 18-19 साल की बिटिया के साथ सॉफ्टी खा रहा है, बड़ा बाजार के भीतर ही. बड़ा बाजार जिस कॉम्प्लेक्स में खुला है उसके ठीक सामने शान्ति कुल्फी की दुकान है.
शांति की कुल्फी-फालूदा इलाहाबादियों के लिए कूल होने की एक पसंद की जगह थी (जब तक कूल शब्द शायद ईजाद नहीं हुआ रहा होगा). लेकिन, कुल्फी-फालूदा अब इलाहाबादियों को कम अच्छा लग रहा है, होंठ पर लगती सॉफ्टी का स्वाद ज्यादा मजा दे रहा है.
‘इलाहाबादियों का ये सुख बाजार ने छीन लिया है’
बड़ा बाजार के ही कॉम्प्लेक्स में मैकडॉनल्ड भी है, हैपी प्राइस मेन्यू के साथ. सिर्फ 20 रुपए वाले बर्गर का विज्ञापन देखकर इलाहाबादी अंदर जा रहा है और 100-150 का फटका खाकर मुस्कुराते हुए बाहर आ रहा है. किसी भी बड़े से बड़े बाजार में मिल रहे ब्रांड का नाम लीजिए. इलाहाबादी उस ब्रांड से सजा हुआ है.
होली-दीवाली, कपड़े-जूते और साल भर-महीने भर का राशन एक साथ खरीदने वाला इलाहाबादी भी हफ्ते के सबसे सस्ते दिन का इंतजार कर रहा है. दूसरे बदलते इलाहाबादियों की ही तरह मैकडॉनल्ड, बिग बाजार और दूसरे ऐसे ही खास ब्रांड्स को समेटने वाले मॉल में गया तो, छोटे भाई ने कहा गाड़ी आगे लगाइए, यहां पार्किंग मना है.
सिविल लाइंस में जहां कहीं भी गाड़ी खड़ी कर देने का सुख था. कार की खिड़की से झांकते रास्ते में लोगों से नमस्कारी-नमस्कारा करते निकलने वाले इलाहाबादियों का ये सुख बाजार ने उनसे छीन लिया है.
अब इलाहाबादी सिविल लाइंस में पार्किंग खोजता है. पार्किंग खाली नहीं दिख रही थी तो, छोटा भाई गाड़ी में ही बैठा, मैं इलाहाबाद को बदल रहे बाजार के दर्शनों के लिए चल पड़ा. खैर, अच्छा-बुरा जैसा भी सही बाजार उन शहरों के लोगों को बदल रहा है जो, बाजार के नाम से ही बिदक जाते हैं. बाजार लोगों को चलने-दौड़ने के लिए तैयार कर रहा है.
(हर्षवर्धन त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने हिंदी ब्लॉगर हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
