जब पूरे देश से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) में आकर पढ़ने वाले छात्र अपने-अपने राजनीतिक दलों के साथ 2025 छात्रसंघ चुनाव के नतीजों के इंतजार में ढोल-नगाड़ों की धुन पर जश्न मना रहे थे, तने हुए शामियाने के एक छोर पर उत्तर- पूर्व के छात्रों को जनरल सेक्रेटरी की सीट पर चुनाव लड़ रही यारी नायम के नेतृत्व में बहुत शांति से बैठे हुए देखा जा सकता था.
इस साल के चुनाव में स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने के बावजूद इतिहास की विद्यार्थी यारी नायम को JNU के करीब 5000 छात्रों में से 1184 छात्रों ने जनरल सेक्रेटरी के पद के लिए वोट दिया है.
JNU छात्रसंघ में हर साल प्रेसिडेंट, वाईस प्रेसिडेंट, जनरल सेक्रेटरी और ज्वाइंट सेक्रेटरी के पदों के लिए चुनाव होते हैं. JNU जैसे कैंपस में जहां उत्तर-पूर्व के छात्र संख्या बल में बेहद कम हैं, यारी के चुनाव ना जीत पाने के बावजूद अपने दम पर 1184 वोट जुटा लेना स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि इस बार JNU के छात्रों ने जातिगत, लैंगिक और धार्मिक पहचान से ऊपर उठकर वोट किया है.
JNU के इस बार के चुनाव में प्रेसिडेंट की सीट पर नीतीश कुमार, वाईस प्रेसिडेंट की सीट पर मनीषा, जनरल सेक्रेटरी की सीट पर मुंतहा फातिमा और ज्वाइंट सेक्रेटरी सीट पर वैभव मीणा ने जीत दर्ज की है. एक ओर जहां नीतीश, मनीषा, मुंतहा- JNU के वामपंथी संगठनों से आते हैं, वहीं वैभव को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के छात्र संगठन, अखिल विद्यार्थी परिषद (ABVP) ने अपने उम्मीदवार के तौर पर मैदान में उतारा था.
जेएनयू में इस बार एकतरफा वोटिंग नहीं
चुनाव के नतीजों पर गौर करें तो एक बात सीधे तौर पर स्पष्ट हो जाती है कि JNU में इस बार किसी भी दल, विचारधारा या पहचान विशेष के उम्मीदवारों को कोई एक तरफा वोट नहीं मिला है.
अगर JNU प्रेसिडेंट के पद पर ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी- लेनिनवादी)’ के छात्र संगठन ‘ऑल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन’ (AISA) के नीतीश को JNU के छात्रों ने अपने नेतृत्वकर्ता के रूप में करीब 1675 वोटों से चुना है. इसी पद के लिए रेस में शामिल ABVP की शिखा स्वराज, नीतीश से महज 275 वोटों से रेस में पीछे रह गई हैं.
इसी तर्ज पर वाईस प्रेसिडेंट की सीट पर AISA गठबंधन की विजेता उम्मीदवार मनीषा और तेलंगाना से आने वाले ABVP के उम्मीदवार निट्टू गौतम के बीच मात्र 107 वोटों का अंतर है.
इस साल JNU का चुनाव कांटे की टक्कर वाला इसलिए साबित हुआ क्योंकि कैंपस के वामपंथी संगठनों के बीच प्रेसिडेंट की सीट पर अपना-अपना उम्मीदवार उतारने की होड़ के कारण कोई आपसी सहमति नहीं बन पाई. जिसके चलते JNU की छात्र राजनीति के दो मुख्य वामपंथी छात्र संगठनों- स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (SFI) और AISA, ने पिछले साल की तरह एक साथ चुनाव ना लड़ते हुए अलग- अलग चुनाव लड़ा.
वामपंथियों के इसी बिखराव का फायदा उठाते हुए ABVP ने ज्वाइंट सेक्रेटरी पद पर जीत हासिल की, जो कि अपने आप में एक अभूतपूर्व घटना है. ऐसा इसलिए क्योंकि JNU की स्थापना के समय से ही देश की इस नामचीन यूनिवर्सिटी में वामपंथियों का बोलाबाला रहा है. इससे पहले साल 2015 में ABVP ने JNU छात्रसंघ की जॉइन्ट सेक्रेटरी पद पर जीत का परचम लहराया था.
SFI और BAPSA की हार
हाशिये के समाज को रेखांकित करने वाली बनी- बनाई पहचानों को मुखौटा बना कर दबे- कुचले समाज की तथाकथित प्रगतिशील राजनीति करने वाले संगठनों को किस प्रकार JNU के छात्रों ने नकारा है, ये SFI और आंबेडकरवादी संगठन, बिरसा-आंबेडकर-फुले स्टूडेंट एसोसिएशन (BAPSA) को मिली करारी हार से आसानी समझा जा सकता है.
इस बार के चुनाव में जहां AISA साल 2013 में SFI से अलग हुए वामपंथी संगठन डेमोक्रेटिक स्टूडेंट फेडरेशन (DSF) के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ रहा था. वहीं AISA-DSF गठबंधन को चुनौती देने के लिए SFI- BAPSA गठबंधन की ओर से प्रेसिडेंट पद के लिए चौधरी तैय्यबा अहमद को अपना उम्मीदवार बनाया था.
तैय्यबा ना सिर्फ मुस्लिम धर्म की अनुयायी हैं बल्कि वो वंचित आदिवासी समुदाय से आने के साथ- साथ हिंसा प्रभावित जम्मू की भी रहने वाली हैं. ऐसे में उनकी पहचान को ध्यान में रखते हुए SFI-BAPSA गठबंधन का अनुमान था कि छात्र उनके साथ खड़े होंगे.
लेकिन SFI-BAPSA गठबंधन के लिए निराशाजनक बात ये रही कि जैसा उन्होंने अनुमान लगाया था जमीनी तौर पर वैसा कुछ हुआ नहीं. AISA-DSF गठबंधन की तरफ से तैय्यबा के ऊपर किया गया तंज, कि तैय्यबा साल 2022 में अपनी पोस्ट-ग्रेजुएट की डिग्री लेकर कैंपस से चली गई थी और साल 2025 में ही JNU में पीएचडी में दाखिला हो जाने के बाद पैरासूट उम्मीदवार के रूप में वो कैंपस वापस लौटीं, इसलिए यूनिवर्सिटी के मुद्दों से वो वाकिफ नहीं हैं, छात्रों को बहुत पसंद आया और अंततः तैय्यबा के खाते में करीब 800 वोट ही आए.
क्या कहते हैं नतीजे?
तैय्यबा को वोट ना पड़ने का मतलब ये कतई नहीं है कि JNU के छात्रों ने इस बार के चुनाव में हाशिये के समाज से आने वाले उम्मीदवारों को नकारा है. तथ्य ये है कि इस बार के JNU चुनाव के सभी विजेता, नीतीश, मनीषा, मुंतहा और वैभव क्रमशः ओबीसी, दलित, मुस्लिम और आदिवासी पृष्ठभूमि से ही आते हैं.
लेकिन तैय्यबा के उलट AISA- DSF गठबंधन ने अपने उम्मीदवारों का प्रचार वंचित-शोषित के रूप में नहीं किया और न ही आदर्शवादी प्रोग्रेसिव राजनीति के टोकन के रूप में उनके इस्तेमाल की रणनीति अपनाई. जिससे छात्रों के बीच AISA-DSF गठबंधन को लेकर अच्छा संकेत गया और छात्रों ने SFI- BAPSA गठबंधन से कन्नी काटते हुए AISA-DSF गठबंधन के पक्ष में वोट किया.
दलित- शोषित- वंचित समुदायों की पहचान आधारित राजनीति करने की किसी भी धनात्मक पहल को सही से भांप सकने की JNU के छात्रों की समझ का नतीजा ये रहा कि दिल्ली जैसे शहर में जहां उत्तर-पूर्व से आने वाले छात्रों के मुद्दों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है, वहां की एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी में उत्तर-पूर्व के विषयों को राष्ट्रीय पटल पर रख रहीं यारी नायम को जनरल सेक्रेटरी के पोस्ट पर स्वतंत्र उम्मीदवार होने के बावजूद SFI-BAPSA गठबंधन के इसी पद के लिए चुनाव लड़ रहे उम्मीदवार-रामनिवास गुर्जर, से करीब 500 वोट अधिक मिले.
SFI-BAPSA गठबंधन की हार का कारण इस बात में भी तलाशा जा सकता है कि चुनाव के ठीक पहले आंबेडकरवादी संगठन- BAPSA में वामपंथी SFI से गठबंधन के प्रश्न पर आपसी गुटबाजी के चलते दो फाड़ हो गई थी. जिससे BAPSA के प्रतिबद्ध मतदाताओं ने ही SFI-BAPSA गठबंधन को वोट नहीं दिया.
वहीं इसी महीने SFI के मातृ संगठन- CPI(M) ने तमिलनाडु में संपन्न हुई 24वीं पार्टी कांग्रेस में अपने नए जनरल सेक्रेटरी, मरियन अलेक्जेंडर बेबी, को चुनते हुए ये स्पष्ट संकेत दिया है कि कम से कम अभी के लिए प्रमुख नेतृत्व हेतु CPI(M) को JNU जैसे कैंपसों से आए नौसिखियों की कोई जरूरत नहीं है. इससे वर्तमान में SFI की JNU इकाई में उत्साह का माहौल नहीं था, जिसके परिणाम स्वरूप SFI ने जमीनी तौर पर चुनाव को उतना जम कर नहीं लड़ा जितना जमकर शायद उसे लड़ना चाहिए था.
(लेखक JNU के पूर्व छात्र और रिसर्चर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)