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दाल एक नासूर: 30 साल पहले भी था और 2050 तक भी रहेगा

आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्‍यम की कमिटी ने वित्त मंत्रालय को देश में दाल की पैदावार बढ़ाने के लिए सुझाव दिए हैं

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भारत में दाल की समस्या कम से कम तीन दशक पुरानी है. इस समस्या को ज्यादातर आर्थिक सलाहकार दालों की पैदावार से जोड़कर देखते रहे हैं और दालों की पैदावार बढ़ाने के लिए तमाम सुझाव दे चुके हैं. हालांकि इनमें कोई भी सुझाव अब तक बेजोड़ साबित नहीं हुआ.

इसी सिलसिले में मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्‍यम की अध्यक्षता वाली कमिटी ने शुक्रवार को एक रिपोर्ट वित्त मंत्री को सौंपी और कहा कि दालों की बेहतर पैदावार के लिए सरकारी खरीद व्यवस्था को सुधारा जाए.

सुब्रह्मण्‍यम ने इस रिपोर्ट में कई अन्य सुझाव भी दिए, जिन्हें आर्थिक मामलों के जानकार हैरतअंगेज बता रहे हैं.

सुब्रह्मण्‍यम ने कहा,

  • दालों की भंडारण क्षमता को 20 लाख टन तक बढ़ाया जाए.
  • रबी और खरीफ में दालों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) को बढ़ा दिया जाए.
  • किसानों दालों की बिक्री पर सब्सिडी दी जाए.
  • दालों पर स्टॉक लिमिट हटाई जाए.
  • दालों के निर्यात पर से भी पाबंदी हटाई जानी चाहिए.
  • दालों पर एक्शन के लिए उच्चस्तरीय कमिटी बने. वित्त मंत्री और कृषि मंत्री इसके सदस्य रहें.
  • दालों के भंडारण के लिए पीपीपी मॉडल पर कंपनियां बनाई जाएं, जो इनकी सप्लाई का काम भी देखें.
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...तो इसमें हैरत भरा क्या है?

पुरानी रिपोर्ट्स पर गौर करें, तो दाल की सप्लाई हमेशा मांग से कम रही है. फिर भी हर साल दाल की कीमतें बढ़ती हैं. यही वजह है कि बीते 32 साल से दाल विलेन बनी हुई है.

1983-84 से
महंगाई की सालाना औसत दर करीब 7 फीसदी रही है
दाल की कीमत
में इस दौरान औसतन 9 फीसदी का इजाफा हुआ

पिछले दस साल में यह अंतर बढ़कर तीन फीसदी हो गया है. मतलब यह कि दाल की समस्या कम से कम तीन दशक पुरानी है और इस दौरान दाल की कीमतें औसत महंगाई दर से हमेशा ज्यादा तेजी से बढ़ी हैं. लेकिन समाधान फिर भी नहीं निकल पाया है. अक्सर ऐसा होता है कि जब लोगों को पता हो कि उत्पादन करो और मुनाफा तय है, तो कमी जल्दी पूरी हो जाती है. लेकिन दाल के मामले में तीन दशक में भी ऐसा क्यों नहीं हो पाया? क्योंकि दाल की कहानी खेती की बदहाली की कहानी बयान करती है.

फिर सुब्रह्मण्‍यम कमेटी की इस रिपोर्ट में खेती की बदहाली से निपटने का कोई सुझाव क्यों नहीं है?

अब खेती की बदहाली के सबूत देखिए...

देश में उपजने वाली दाल का करीब 70% हिस्सा सिर्फ 4 राज्यों में पैदा होता है. इनमें हैं उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र. और बिडंबना देखिए, जिन खेतों में दाल की उपज होती है, उनमें से सिर्फ 16% हिस्से में ही सिंचाई की सुविधा है. मतलब यह है कि बाकी हिस्सा या तो मानसून का मोहताज है या फिर सब कुछ भगवान भरोसे है.

यानी दाल की कितनी पैदावार होगी, किसानों को इसका कितना रिटर्न मिलेगा और कितनी फसल बर्बाद होगी, यह पूरा चक्र अनिश्चिताओं से भरा हुआ है.

आंकड़े गवाह हैं कि मध्य प्रदेश को छोड़कर बाकी तीनों राज्यों में पैदावार बीते कई सालों से जस की तस है, जबकि लागत चक्रवृद्धि ब्याज की तरह बढ़ती जा रही है, क्योंकि मजदूरी बढ़ी है, खाद-बीज की कीमत बढ़ी है. और जहां सिंचाई व्यवस्था करनी है, वहां डीजल व बिजली महंगे हुए हैं. यही वजह है कि किसान की आमदनी के साथ-साथ उसकी जेब और खेत की यूनिट सिकुड़ती जा रही है.

एक अनुमान है कि...

औसतन 12%
की रफ्तार से बीते 10 सालों में उड़द की कीमत बढ़ी है
जबकि 12-26%
की दर से इसकी लागत में बढ़ोतरी हुई

मतलब यह है कि दलहन की कीमत तो बढ़ी है, लेकिन किसानों के लिए इसे पैदा करना लगातार घाटे का सौदा होता जा रहा है.

आगे यह खाई गहरी होती जाएगी...

जिस रफ्तार से दाल की खपत बढ़ी है, उस हिसाब से 2050 में भारत को सालाना 390 लाख टन दाल की जरूरत होगी. फिलहाल भारत में दाल का उत्पादन इसका आधा भी नहीं है. मांग को पूरा करने के लिए हर साल उत्पादन में 2% से ज्यादा की बढोतरी होनी चाहिए. लेकिन हो रही है सिर्फ 0.9%. मतलब यह कि अपनी मांग को पूरा करने के लिए हर साल हमें ज्यादा दाल इंपोर्ट करनी होगी.

ये सभी आंकड़े जाहिर तौर पर मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्‍यम की अध्यक्षता वाली कमिटी के सामने रहे होंगे. वो जानते होंगे कि पिछले 30 सालों में क्या हो पाया है. साथ ही यह भी कि अगले 30-40 सालों में क्या होने वाला है?

बावजूद इसके उनकी प्राथमिकता किसानों को सुविधाओं से लैस करने के, सिंचाई कवरेज को बढ़ाने के, बेहतर खाद-बीज मुहैया कराने के और किसानों को निश्चित आमदनी वाला बाजार देने के मुकाबले कुछ अव्यावहारिक कार्यक्रम बनाने की है. इस कमेटी ने शायद यह विचार ही नहीं किया कि इस देश के किसानों की हैसियत, उनकी परिस्थितियों ने प्राइस कम्‍पि‍टीशन में उतरने लायक नहीं छोड़ी है.

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