महाराष्ट्र (Maharashtra) के मुख्यमंत्री के रूप में देवेंद्र फडणवीस (Devendra Fadanvis) का चयन इस बात का संकेत है कि 2024 लोकसभा चुनावों में अप्रत्याशित रूप से खराब प्रदर्शन और 10 सालों में पहली बार बहुमत से चूकने के बाद बीजेपी के भीतर बदलाव की हवा बह रही है.
कम प्रभावशाली मुख्यमंत्रियों के साथ प्रयोग करने के पसंदीदा फार्मूले से हटकर, जिनकी राजनीतिक हैसियत की कमी अंधी वफादारी की गारंटी देती है, दिल्ली में हाईकमान ने स्थानीय पार्टी कार्यकर्ताओं और आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व के दबाव के आगे झुकते हुए एक ऐसे व्यक्ति को नियुक्त किया जो एक जननेता के रूप में उभरा है और अब एक सशक्त व्यक्ति है.
यह उस पार्टी में कोई छोटी बात नहीं है, जो एक व्यक्ति के व्यक्तित्व से प्रभावित रही है और उसके इशारों पर नाचने की आदी रही है. इससे पता चलता है कि राष्ट्रीय स्तर पर कम होते जनादेश के मद्देनजर आंतरिक समीकरणों को फिर से स्थापित किया जा रहा है, जो पार्टी और संघ के कार्यकर्ताओं में बढ़ते असंतोष को दर्शाता है.
फडणवीस की अहमियत के कई आयाम हैं. सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण आयाम है उनकी नियुक्ति में आरएसएस का हाथ है. दस दिनों तक चली गहन बातचीत और नाटकीय घटनाक्रम ने बीजेपी और आरएसएस के बीच आंतरिक खींचतान और दबाव के बारे में कुछ गुप्त रहस्यों को उजागर कर दिया है.
अब यह स्पष्ट हो गया है कि शिवसेना प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे अकेले नहीं थे जो फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाने का विरोध कर रहे थे. महाराष्ट्र बीजेपी के कई नेता और दिल्ली में हाईकमान का एक वर्ग उन्हें सत्ता की बागडोर सौंपने के लिए अनिच्छुक था.
हालांकि, फडणवीस ने खुद को पार्टी का एक अनुशासित सिपाही साबित किया है, लेकिन वे कठपुतली नहीं हैं. 2014 से 2019 तक सीएम के रूप में उनके पहले कार्यकाल को जिन लोगों ने देखा है, उनका कहना है कि फडणवीस ने दिल्ली और नागपुर (जहां आरएसएस का मुख्यालय है) के बीच संतुलन बनाने की कला में सफलतापूर्वक महारत हासिल की और एक कुशल प्रशासक के रूप में उभरे हैं.
जहां दिल्ली अलग-अलग राजनीतिक कारणों से शिंदे को मनाने के लिए उत्सुक थी, वहीं नागपुर भारी जीत के बाद इस बात पर अड़ा था कि इस बार बीजेपी के मुख्यमंत्री पद के दावे को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.
गठबंधन में बीजेपी 142 सीटों के साथ प्रमुख साझेदार है, जबकि शिवसेना को 57 और अजित पवार की NCP को 41 सीटें मिली हैं.
गौर करने वाली बात है कि जब महायुति नेता फडणवीस, शिंदे और पवार सरकार गठन पर प्रारंभिक चर्चा के लिए दिल्ली पहुंचे, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत भी राजधानी में थे.
संघ का संदेश स्पष्ट और जोरदार था. मुख्यमंत्री बीजेपी से ही होना चाहिए और नागपुर की पहली पसंद फडणवीस थे. महायुति के पक्ष में भारी जनादेश आने के बाद फडणवीस सबसे पहले संघ प्रमुखों से आशीर्वाद देने के लिए नागपुर गए थे.
अगर दिल्ली ने इस साल के चुनावों से कोई एक सबक सीखा है, तो वह यह है: बीजेपी नागपुर को सिर्फ अपने जोखिम पर ही नजरअंदाज कर सकती है. आरएसएस कैडर के असहयोग के कारण, खास तौर पर यूपी और महाराष्ट्र में, बीजेपी को महत्वपूर्ण लोकसभा सीटों पर हार का सामना करना पड़ा था.
दूसरी ओर, लोकसभा चुनाव और हरियाणा-महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के बीच आरएसएस की ओर से बड़े पैमाने पर किए गए ग्राउंडवर्क ने बीजेपी के चुनावी भाग्य को अचानक बदलने में मदद की है.
इस फैसले को प्रभावित करने वाला एक अन्य महत्वपूर्ण कारक था- चुनावों में भारी जीत के बाद फडणवीस का खुद का दृढ़ संकल्प और अपने अधिकारों पर दावा करना, जो उन्हें सही लगता था.
वह पूरे चुनाव प्रचार में पार्टी का चेहरा रहे और उन्होंने राज्य के सभी छह क्षेत्रों में 64 रैलियां कीं.
नागपुर के सबसे युवा मेयर से लेकर महाराष्ट्र के दूसरे सबसे युवा मुख्यमंत्री तक, फडणवीस ने अपने कौशल से सामने आने वाली सभी बाधाओं को पार किया.
मोदी की बीजेपी में किसी राज्य के नेता का फडणवीस की तरह खुद को मुखर करना दुर्लभ हो गया है. मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के उस शांत समर्पण पर विचार करें, जब उन्होंने महिलाओं के लिए लोकप्रिय लाडली बहना वित्तीय योजना के दम पर पार्टी को 2023 के विधानसभा चुनावों में जीत दिलाने में मदद की थी.
चौहान ने पूरी विनम्रता के साथ दिल्ली को अपनी जगह पर मोहन यादव जैसे किसी अज्ञात शख्स को नियुक्त करने का मौका दिया, जो एक साल के कार्यकाल के बाद भी राज्य के बड़े हिस्से में एक अजनबी बने हुए हैं.
हां, लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं और आरएसएस प्रमुखों के बयानों में बदलाव की पहली झलक दिखाई दे रही है. मोदी बीजेपी के सबसे करिश्माई और लोकप्रिय चेहरा बने हुए हैं. लेकिन वे नई परिस्थितियों के अनुकूल ढलने के महत्व को समझते हैं.
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के रूप में अपनी वापसी के साथ, फडणवीस अब उत्तर प्रदेश के योगी आदित्यनाथ और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के साथ अगली पीढ़ी के नेताओं की उभरती हुई जमात में शामिल हो गए हैं, जिन्हें आवश्यकता पड़ने पर मोदी के बाद के परिदृश्य के लिए तैयार किए जाने की संभावना है.
फडणवीस और योगी की उम्र क्रमशः 54 और 52 साल है, जबकि शाह 60 साल के हैं. राजनीति में तीनों के पास कई साल बाकी हैं. बीजेपी में बहुत कम लोगों ने सोचा होगा कि एक दिन ऐसा आएगा जब नई कोंपलें फूटेंगी और मोदी नामक विशाल वृक्ष की छांव में उन्हें बढ़ने दिया जाएगा.
(आरती आर जेरथ वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहती हैं. वह @AratiJ पर ट्वीट करती हैं. यह एक ओपनियन पीस है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)