1998 में सत्ता खोने के बाद से भारतीय जनता पार्टी (BJP) दिल्ली की राजनीति में एक चौराहे पर खड़ी है. 2022 में, बीजेपी ने दिल्ली नगर निगम यानी MCD को नियंत्रित करने वाला सांत्वना पुरस्कार भी गंवा दिया. ऐसे में आगामी विधानसभा चुनावों में, बीजेपी राष्ट्रीय राजधानी के अंदर अपनी चुनावी किस्मत को पलटने की उम्मीद कर रही है.
सच्चाई यह है कि बीजेपी ने दिल्ली में पिछले तीन लोकसभा चुनावों में एकतरफा जीत हासिल की है. लेकिन दूसरी तरफ विधानसभा चुनावों में पेंडुलम बिल्कुल विपरीत दिशा में घूम रहा है. ऐसा तब हो रहा है जब दिल्ली में बीजेपी के पास तीन ऐसे बड़े चेहरे थे जिनके नाम में ही 'विजय' था- विजय कुमार मल्होत्रा, विजय गोयल और विजेंद्र गुप्ता.
दिल्ली के अंदर बीजेपी की सबसे बड़ी समस्या है कि यहां प्रमुख जनसांख्यिकीय समूह और पार्टी के बीच दूरी बन गई. इसे समझने के लिए इतिहास में पीछे जाने की जरूरत है.
शीला दीक्षित से दिल्ली बीजेपी को मिला बड़ा झटका
बीजेपी की दिल्ली इकाई के नेता बहुत लंबे अरसे से सत्ता से बाहर हैं. उन्होंने इस समय का उपयोग उन संभावित कारणों को जानने में लगाया है कि पार्टी लोगों से दूर कैसे हो गई. ये नेता इस बात से सहमत हैं कि दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की सोशल इंजीनियरिंग ने बीजेपी को शहर में एक बारहमासी विपक्षी पार्टी का दर्जा दिला दिया.
स्वर्गीय शीला दीक्षित एक पूर्वांचली थीं, क्योंकि उन्होंने अपनी शादी के आधार पर उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने का दावा किया था. वहीं वह दिल से पंजाबी भी रहीं - उनका पहला नाम शीला कपूर था और उनका जन्म कपूरथला में हुआ था. दिल्ली में कांग्रेस के 15 साल लंबे शासन के दौरान, बीजेपी ने पंजाबियों और बनियों की पार्टी की छवि पाई.
बिहार से आने वाले प्रवासी दिल्ली की पूर्वांचली आबादी का एक बड़ा हिस्सा हैं. उनमें कांग्रेस के प्रति स्वाभाविक पसंद पैदा हुई क्योंकि दिवंगत शीला दीक्षित के नेतृत्व वाली सरकार ने ट्रांस-यमुना और दिल्ली के बाहरी इलाकों को अपने शासन के फोकस में ला दिया. अनधिकृत कॉलोनियों में पाइप से पानी की आपूर्ति के विस्तार ने, जिनमें से कई दिल्ली में हैं, कांग्रेस के वोट आधार को और मजबूत किया.
और अरविंद केजरीवाल ने शीला दीक्षित की जगह ली
2013 के दिल्ली विधानसभा चुनावों से कांग्रेस का वोटर आम आदमी पार्टी (AAP) की ओर खिसकना शुरू हो गया. दिल्ली के पूर्वांचलियों और मध्यम वर्ग के वोटरों को अरविंद केजरीवाल के अंदर दिवंगत शीला दीक्षित का एक सुविधाजनक रिप्लेसमेंट मिला.
2008 की वैश्विक वित्तीय मंदी के बाद दिल्ली के लोग बढ़ते आर्थिक तनाव के बीच चाहने लगे कि सब्सिडी कार्यक्रमों की सीमा बढ़ाई जाए. वे सरकार से और अधिक चाहते थे और केजरीवाल ने उनकी भूख बढ़ा दी. 2015 के विधानसभा चुनावों तक, कांग्रेस का वोट बैंक मुख्य रूप से AAP में ट्रांसफर हो गया. जिस ग्रैंड ओल्ड पार्टी यानी कांग्रेस ने 15 सालों तक दिल्ली पर शासन किया था, अब उसका वोट शेयर 10 प्रतिशत से नीचे आ गया.
दिल्ली बीजेपी शहर के बदलते जनसांख्यिकीय बदलाव से अनजान रही
इसके उलट, बीजेपी शहर की राजनीति में उलझी सी रही. 2008 के विधानसभा चुनावों से लेकर 2020 के शहरी चुनावों तक, बीजेपी को 32 से 38.51 प्रतिशत वोट शेयर मिले हैं. दिल्ली में बीजेपी का सबसे अच्छा चुनावी प्रदर्शन तब आया जब 2020 के विधानसभा चुनाव में पार्टी की कमान मनोज तिवारी के हाथों में थी.
दरअसल, मनोज तिवारी साल 2014 में बिहार की बक्सर लोकसभा सीट से बीजेपी का टिकट मांग रहे थे, जब पार्टी के वरिष्ठ नेता अश्विनी कुमार चौबे ने उन्हें अपनी राजनीति दिल्ली शिफ्ट करने और पूर्वांचली कार्ड खेलने की सलाह दी. लेकिन AAP के 50 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर के सामने यह मामूली बढ़त बहुत कम साबित हुई.
कुछ आबादी समूहों से दिल्ली बीजेपी के नेताओं की दूरी का अंदाजा उनके इस अनौपचारिक दावे से लगाया जा सकता है कि अगर वोटरों के वोटर कार्ड का आधार कार्ड से मिलान किया जाए तो पार्टी विधानसभा चुनाव आसानी से जीत जाएगी.
खोये सिख वोटों को गिन रही बीजेपी
यदि पूर्वांचली वोटरों का अलगाव कम नहीं था, तो बीजेपी ने दिल्ली में सिख मतदाताओं के रोष को भी बुलावा दे दिया. बीजेपी नेता इसके लिए दिल्ली में मदन लाल खुराना कैबिनेट में मंत्री रहे हरशरण सिंह बल्ली जैसे दिग्गज नेता की अनदेखी जैसे गलत फैसलों को जिम्मेदार ठहराते हैं.
बीजेपी नेताओं का तर्क है कि 2013 के विधानसभा चुनाव में दिल्ली के हरि नगर से बल्ली को टिकट न देने का फैसला पार्टी को महंगा पड़ा. बीजेपी पश्चिमी दिल्ली की सभी विधानसभा सीटें हार गई जहां सिख वोटर प्रभावशाली हैं.
2013 के विधानसभा चुनावों के बाद पश्चिमी दिल्ली में बड़े पैमाने पर सिख वोटर AAP की ओर ट्रांसफर हो गए हैं. शहर की आबादी में 14% हिस्सेदारी रखने वाले मुस्लिम वोट बीजेपी के खाते से पहले से ही माइनस माने जाते हैं. वहीं दूसरी तरफ सिख और पूर्वांचली वोटर भी पार्टी को लेकर उदासीन रहे.
हार के बावजूद बीजेपी इमोशनल कार्ड पर कायम
दिल्ली में बीजेपी कथित भ्रष्टाचार को एक बड़ा मुद्दा बनाकर अरविंद केजरीवाल के खिलाफ नेगेटिव चुनावी कैंपेन के साथ विधानसभा चुनाव में उतरी है. पिछले महीने ही, बीजेपी को झारखंड में हेमंत सोरेन के खिलाफ इसी तरह का कैंपेन करने के बाद सबसे बुरी हार का सामना करना पड़ा था. सोरेन ने भी ईडी द्वारा गिरफ्तार किए जाने के बाद रांची सेंट्रल जेल में कई महीने बिताए थे.
दिल्ली में बीजेपी का रोहिंग्या कार्ड वोटरों को लुभाने में विफल रहा, जबकि पार्टी ने शुरू में बांग्लादेशी अवैध प्रवासियों के खिलाफ झारखंड जैसा कैंपेन दोहराने की कोशिश की थी.
झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के नेतृत्व वाले गठबंधन से हार के बाद बीजेपी को एक बार फिर विधानसभा चुनावों में एक क्षेत्रीय पार्टी का सामना करना पड़ रहा है.
JMM और AAP कुछ मायनों में एक जैसे हैं - दोनों के नेताओं ने कल्याणकारी योजनाओं पर जोर देकर अपनी सरकारों का नेतृत्व किया है. दूसरी ओर, बीजेपी के पास दिल्ली में लोगों से इस तरह जुड़ने का कोई खाका नहीं है जो चुनावी समीकरण को बड़े स्तर पर बदल सके.
बीजेपी के उम्मीदवारों का नाम बता रहा यह पुरानी राजनीति की ही अगली कड़ी है
शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस और उसके बाद अरविंद केजरीवाल की AAP का दबदबा दोनों पार्टियों द्वारा नेताओं की एक नई फसल को तैयार करने के कारण था. AAP ने टिकट के बंटवारे में पूर्वांचलियों और सिखों को राजनीतिक रूप से सशक्त बनाने का विशेष ध्यान रखा.
इसके विपरीत बीजेपी दिल्ली में वंशवाद की राजनीति से बाहर निकलने के लिए संघर्ष कर रही है. दो पूर्व सीएम के बेटे हर्ष खुराना और परवेश साहेब सिंह वर्मा चुनाव लड़ रहे हैं. नई दिल्ली लोकसभा सीट से सांसद बांसुरी स्वराज दिवंगत सुषमा स्वराज की बेटी हैं (वह कुछ समय के लिए दिल्ली की सीएम भी थीं).
दरअसल, बीजेपी को उम्मीद है कि पार्टी का AAP से सीधा मुकाबला नहीं होगा, बल्कि कांग्रेस और दूसरी पार्टियां केजरीवाल के वोट बैंक में सेंध लगाएंगी और फायदा कमल को मिलेगा. लेकिन बीजेपी यह मानने से इनकार करती है कि दिल्ली में प्रमुख जनसांख्यिकीय समूहों का पार्टी से दूर जाना ही पार्टी की बड़ी दुश्मन है.
(लेखक दिल्ली स्थित एक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जिन्होंने अपने दो दशक से अधिक लंबे करियर में द न्यू इंडियन एक्सप्रेस, द एशियन एज, डेक्कन क्रॉनिकल और द स्टेट्समैन के लिए काम किया है. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)