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AAP के हाथ से फिसला अपर और मिडिल क्लास, कोचिंग सेंटर्स के जाल में फंस रहे छात्र

पढ़ें नीलांजन सरकार, आकाश जोशी, राजमोहन गांधी, गीता रविचंद्रन और रामचंद्र गुहा के विचारों का सार.

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AAP के हाथ से फिसल मिडिल और अपर क्लास

नीलांजन सरकार ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि बीजेपी ने आखिरी बार 1990 के दशक में राष्ट्रीय राजधानी पर शासन किया था. आज की दिल्ली अलग शहर है. 90 के दशक के धल भरे शहर से बदलकर यह महानगरीय शहर बन चुका है जो पूरे भारत और दुनिया भर से प्रतिभाओं को आकर्षित करता है. 2000 के दशक की शुरुआत में कांग्रेस की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के नेतृत्व में चौड़ी सड़कों और हरियाली के निर्माण के साथ दिल्ली में बड़ा बदलाव देखा गया. अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के कथित भ्रष्टाचार के साथ मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग के असंतोष की लहर पर सवार होकर 2013 में पहली बार सत्ता हासिल की.

आज मध्यम और उच्च वर्ग के मतदाताओं का पलायन ‘आप’ की हार का मुख्य कारण है. कभी अजेय रहे केजरीवाल भी अपनी सीट हार गये. ‘आप’ के ‘दिल्ली मॉडल’ को नुकसान पहुंचा है. दिल्ली में प्रति व्यक्ति आय पांच लाख है और इसके आधे मतदाता उच्च जाति के हैं.

नीलांजन सरकार लिखते हैं कि दिल्ली जीतने के लिए किसी भी पार्टी को हमेशा मध्यम और उच्च वर्ग के मतदाताओं का महत्वपूर्ण हिस्सा जीतने की आवश्यकता होगी. आम आदमी पार्टी ने इस वर्ग का विश्वास खोया है. दिल्ली की राजनीति अनूठी है. यह निश्चित रूप से राष्ट्रीय स्तर पर गूंजेगा. ‘आप’ ने पहचान की राजनीति पर जोर दिया जिसमें केजरीवाल ने नरम हिन्दुत्व के बयान दिए और मुख्यमंत्री आतिशी ने सख्त हिन्दुत्व की लाइन पर हास्यास्पद प्रयास किया. तथ्य यह है कि नेता दिल्ली के मूल मुद्दों को संबोधित करने के बजाए खुद के लिए लड़ रहे थे. गुजरात और पंजाब जैसे राज्यों में इसका असर होगा जहां ‘आप’ ने पैठ बनाई है.

2024 के आम चुनाव के बाद से हमने जितने भी चुनाव देखे हैं उनमें से इस बार भी बीजेपी की जीत का प्रधानमंत्री मोदी से कोई लेना-देना नहीं है. हरियाणा, महाराष्ट्र और अब दिल्ली में बीजेपी की आश्चर्यजनक जीत के बीच आम बात यह है कि या तो मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार का नाम नहीं लिया गया या फिर इस मुद्दे को पार्टी की राजनीतिक अपील के लिए अप्रासंगिक माना गया. ये चुनाव विशुद्ध संगठनात्मक क्षमता और दक्षता के आधार पर जीते गये हैं.
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फ्री लांस विचारधारा और पूर्णकालिक राजनीति

आकाश जोशी ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि एक दशक से ज्यादा समय तक आम आदमी पार्टी और अरविन्द केजरीवाल के आलोचक तर्क देते रहे कि इस पॉलिटिकल स्टार्ट अप को इसलिए ज्यादा महत्व दिया जाता रहा क्योंकि दिल्ली में इसका शासन था जो राष्ट्रीय राजधानी है (पंजाब बाद में जुड़ा). आम आदमी पार्टी के लिए दिल्ली दूर भी रही, नजदीक भी. जिस दिल्ली में कभी बीजेपी ने आरंभिक सफलता पायी थी उस दिल्ली में मोदी की बीजेपी लगातार विफल रही थी. अपने उदय के साथ आप ने राजनीति और शासन का नया मुहावरा पेश किया. अब अस्तित्व के संकट के नये दौर में पार्टी को नये सिरे से ध्यान देने की जरूरत है. फ्री लांस विचारधारा के साथ आप स्थायी राजनीतिक पार्टी नहीं हो सकते.

आकाश जोशी आगे लिखते हैं कि कई विपक्षी दलों की तरह आप दावा कर सकती है कि दिल्ली मे इक्वल फील्ड नहीं था. शासन के एजेंडे में ‘बाधा’ के रूप में उपराज्यपाल दिखे और शीर्ष नेताओं को जेल में डाला गया आदि आदि. लेकिन मझधार में मतदाता फंसे, जिनके बारे में बात करना मुश्किल हो जाता है. खराब बुनियादी ढांचा और नागरिक शासन की कमी- विशेष रूप से जलापूर्ति और कचरा संग्रहण जैसे बुनियादी मुद्दों पर सबसे वफादार मतदाता भी लेन-देन करने के लिए मजबूर हुए. वैचारिक और नैतिक मुद्दों पर ढुलमुल रही पार्टी इस मोर्चे पर अधिक कमजोर है.

बीते कुछ वर्षों से आप से सवाल पूछा जा रहा है कि पार्टी किस बात के लिए खड़ी है? क्या कम बिजली बिल एक विचारधारा के लिए पर्याप्त है? केजरीवाल द्वारा 2020 में दंगा प्रभावित उत्तर पूर्वी दिल्ली का दौरान करने से नकार करना, रोहिंग्या शरणार्थियों को शैतान बताना, बुलडोजर राज के बारे में काफी हद तक चुप रहना, बाबरी मस्जिद विध्वंस की वर्षगांठ पर तीर्थयात्रियों को अयोध्या भेजना और यहां तक कि मुख्यमंत्री आतिशी द्वारा ‘राम’ केजरीवाल के लिए सीएम की कुर्सी खाली रखकर भरत की भूमिका निभाना ‘आप’ द्वारा सॉफ्ट भाजपाई बनने का प्रयास रहा.

हमें प्रगति का जश्न मनाने का अधिकार

हिन्दुस्तान टाइम्स में राजमोहन गांधी लिखते खुद से पूछते हैं कि हमारे गणतंत्र के 75 साल पूरे होने पर सबसे ज्यादा संतुष्टि किस बात से मिलती है? जवाब है : आज करोड़ों भारतीय जो निचले पायदान पर काम करते हैं, वे अपने फोन के जरिए अपने प्रियजनों, बच्चों, माता-पिता, जीवन-साथी, जो भी उनसे दूर रहते हैं, उनसे रोजाना बात पाते हैं. जनवरी 1950 में जब लेखक 14 साल के थे तब विशेषाधिकार प्राप्त या अमीर भारतीय भी ऐसा नहीं कर सकते थे. वित्तीय समानता बढ़ी है, कमजोर पर अत्याचार जारी है. फिर भी यदि हम एक प्रमुख अपवाद को हटा दें तो 2025 में भारत का समाज श्रेष्ठता के उन बेशर्म दावों को नहीं देखेगा जो 1950 में हमारी सड़कों पर आदर्श थे. संक्षेप में, हमारे दलित, आदिवासी और निम्न जातियां अब पहले की तुलना में अधिक आश्वस्त हैं. हमें इस प्रगति का जश्न मनाने का अधिकार है.

राजमोहन गांधी लिखते हैं कि 2025 में पृथ्वी की डेमोग्राफी का पैटर्न 1950 से बिल्कुल अलग है. भारतीयों को प्रमुखता मिली है. इसका श्रेय किसे मिलना चाहिए, यह मूर्खतापूर्ण जांच है. हमारी दुनिया का विकास मन का विषय है अहंकार का नहीं. विश्व पटल पर और विशेष रूप से आईटी के क्षेत्र में भारतीयों की वर्तमान बढ़त की एक विशेषता यह है कि यह मुख्य रूप से हमारी उच्च जातियों द्वारा बनाई गयी है. यह शायद समय के साथ बदल जाएगा.

हाल के दशकों में भारत के मध्यम वर्ग के प्रभावशाली संवर्धन के बावजूद भारत के युवाओं का एक बड़ा हिस्सा बेरोजगार है. यह 2025 की सबसे परेशान करने वाली विशेषता हो सकती है. सरकारी नौकरियां, सेना और विदेशों में रिक्तियां कतार में खड़े लाखों लोगों को संभवत: नहीं ले सकती हैं. लिहाजा ताजा और साहसी सोच की जरूरत है. दुनिया को बड़ी संख्या में नर्स, डॉक्टर और अन्य स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओँ की जरूरत है. ऐसे में क्या हमें 2025 में अपने युवा महिलाओं और पुरुषों को इन आवश्यक कार्यों के लिए तैयार करने की योजना नहीं बनानी चाहिए?

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कोचिंग सेंटर के जाल में फंस रहे स्टूडेंट्स

गीता रविचंद्रन ने न्यू इंडियन एक्सप्रेस में कोचिंग सेंटरों की एक मशहूर चेन के बंद होने और छात्रों के परेशान होने पर लिखा है. परेशान करने वाली यह घटना आश्चर्यजनक कतई नहीं थी. इससे पहले भी एक अन्य कोचिंग दिग्गज को लेनदारों द्वारा अदालतों में घसीटा गया था. छाया शिक्षा संस्थानों की अविश्वसनीयता और शोषणकारी प्रथाओं के बारे में पर्याप्त जागरूकता है. तमिल फिल्म वेट्टैयान में इस पर प्रकाश डाला गया है कि कैसे कोचिंग सेंटर छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं में 100 प्रतिशत सफलता का आक्रामक प्रचार करते हैं. बुनियादी ढांचे की कमी, सफल उम्मीदवारों की झूठी कहानियां और चात्रों पर अत्यधिक दबाव डालने के लिए कोचिंग सेंटर आलोचना के घेरे में आ गये हैं.

गीता रविचंद्रन लिखती हैं कि 2024 में भारत में निजी ट्यूशन उद्योग का आकार लगभग 58 हजार करोड़ रुपये का था. इसके सालना 15 फीसदी की दर से बढ़ने की उम्मीद है. कई संस्थान स्कूलों के साथ गठजोड़ करते हैं और छात्रों को विशेष रूप से इंजीनियरिंग या मेडिकल प्रवेश परीक्षा के सिलेबस को आगे बढ़ाने के लिए कहते हैं. छात्र प्रतियोगी परीक्षाओं को पास करने पर ध्यान केंद्रित करने के लिए ऐसे डमी स्कूलों में दाखिला लेते हैं. इस प्रकार एक छात्र के जीवन के महत्वपूर्ण वर्ष विषम हो जाते हैं. इससे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियां पैदा होती हैं.

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में योगात्मक मूल्यांकन के बजाए रचनात्मक मूल्यांकन की ओर बदलाव की बात की गयी है. साथ ही कोचिंग कक्षाओं को खत्म करने की आवश्यकता पर भी जोर दिया गया है. अच्छे शिक्षकों में निवेश करके स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करना, उन्हें उनकी योग्यता के अनुरूप वेतन देना प्रभावी रूप से सीखने के परिणामों में सुधार करेगा. कोचिंग संस्थानों ने महामारी के दौरान एक नया आयाम हासिल किया, ऑनलाइन कक्षाएं संचालित करने के लिए प्रौद्योगिकी का लाभ उठाया. महामारी के बाद इस क्षेत्र में मंदी देखी गयी. निवेश में गिरावट, वेतन का भुगतान न करने और उद्योग में नौकरियों के नुकसान के रूप में चिन्हित किया गया है.

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लाहौर से अतीत की यादें

रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में लिखा है कि कई साल पहले खेलों के सामाजिक इतिहास पर काम करते हुए उन्हें 1955 में लाहौर में खेले गये एक टेस्ट मैच की कुछ खबरें मिलीं. यह भारत और पाकिस्तान के बीच पांच मैचों की सीरीज में पांच ड्रॉ में से एक था. सामाजिक संदर्भ दिलचस्प बात थी. 1947 के बाद यह पहली बार था जब लाहौर शहर को अपने बहु-सांस्कृतिक अतीत को फिर से हासिल करने की अनुमति दी गयी थी. टेस्ट के लिए दस हजार से ज्यादा टिकट भारत के नागरिकों के लिए अलग से रखे गये थे जो हर सुबह वाघा बॉर्डर पर करके आते थे और उसी रात अमृतसर लौट जाते थे. इसे एक प्रत्यक्षदर्शी ने ‘विभाजन के बाद सीमा पार सबसे बड़ा सामूहिक पलायन’ कहा.

रामचंद्र गुहा लिखते हैं 29 जनवरी 1955 में शुरू हुए इस परीक्षण के अगले दिन डॉन अखबार ने बताया कि कैसे महिलाएं, सिख, हिन्दू और स्थानीय लोग दो से तीन फर्लांग लंबी और कभी-कभी उससे भी ज्यादा लंबी कतारों में धैर्य और शालीनता से अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे. रिपोर्ट में आगे कहा गया, “सिख खास तौर पर विशिष्ट थे और जहां भी जाते थे, आकर्षण का केन्द्र होते थे. उन्हें अनचाहे अभिवादन और अप्रत्याशित स्वागत मिलता था. उनमें से कुछ तो शहर में अपने पुराने दोस्तों से गले मिलते समय रो भी पड़ते थे.”

डॉन द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट गुमनाम थी फिर भी लेखक लाहौर में रहने वाला पाकिस्तानी मुसलमान था. उनकी भावनाओं को मद्रास के एक हिन्दू पत्रकार ने दोहराया जो खुद विभाजन की भयावहता से अछूते थे जिन्होंने टिप्पणी की कि “टेस्ट मैच के दिनों में हर जगह पाकिस्तानियों और भारतीयों के बीच बहुत भाईचारा देखा गया था.“ मनन अहमद आसिफ की हाल ही में लिखी गयी किताब ‘डिसरप्टेड सिटी : वॉकिंग द पाथवेज ऑफ मेमोरी इंड हिस्ट्री इन लाहौर’ को पढ़ते समय मुझे उन पीली पड़ चुकी खबरों की याद आ गयी. लेखक लाहौर में पले-बढ़े हैं तीस साल पहले पढ़ाई और काम करने के लिए विदेश चले गये थे. हालांकि वह अक्सर अपने गृहनगर लौटते हैं और इस किताब उनका उद्देश्य “इस शहर का इतिहास बताना है बिना उस राष्ट्र राज्य के बंधक बने जो विरासत में मिला है.“

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