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कांग्रेसवाद और विपक्षी एकता: कर्नाटक की जीत में दिखी 2024 की चुनावी पहेली

Karnataka Elections Result: कांग्रेस पार्टी चाहे अभी भी अस्थिर हो, लेकिन कांग्रेसवाद मजबूत हो रहा है.

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दक्षिणी राज्य कर्नाटक में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पक्ष में भारी जनादेश के संदेश से पता चलता है कि कांग्रेस पार्टी चाहे अभी भी अस्थिर हो, लेकिन कांग्रेसवाद मजबूत हो रहा है. शनिवार, 20 मई को सीएम सिद्धारमैया के शपथ ग्रहण समारोह में और घटनाओं से भरे हफ्ते ने कई चीजों पर मेरे भरोसे की पुष्टि की.

कांग्रेसवाद को एक ऐसी विचारधारा के रूप में बताया जा सकता है जो चुनावी प्राथमिकताओं, कानूनों, नीतियों और कार्यक्रमों की बात आने पर सामाजिक पिरामिड के निचले तबके को आगे बढ़ाने पर फोकस करता है - भले ही इसका नेतृत्व करने वालों की अपनी पृष्ठभूमि समाज के ऊपरी तबके से हो या फिर जाति, आर्थिक स्थिति या फिर शिक्षा के संदर्भ में अलग हो.

भारत के समकालीन लोकतांत्रिक परिवर्तन पर आधारित ऐसा सामाजिक-आर्थिक दृष्टिकोण भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के हिंदुत्व और संस्कृति-केंद्रित विश्वदृष्टि के विपरीत है जिसमें विश्व मंच पर धार्मिक परंपराएं और राष्ट्रीय गौरव कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं. अक्सर, यह भरपूर चुनावी फायदा देता है, जैसा कि हमने कर्नाटक में इससे पहले देखा है.  

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फ्री वोट जैसा कुछ नहीं होता

यह कहने के साथ ही कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी रेवड़ी पॉलिटिक्स को लेकर भले ही थोड़ी हिचकिचाहट रखती हो लेकिन चुपके चुपके ऐसा करने के वो पूरी तरह से विरोधी नहीं है. उनका "गरीब कल्याण" एजेंडा ग्रामीण शौचालयों, पाइप्ड पानी और गरीबों के लिए मुफ्त अनाज पर केंद्रित था जो कि पुराने जमाने में कांग्रेस के रोटी-कपड़ा-मकान के 21 वीं सदी के संस्करण जैसा है.   

एक बात जो बिल्कुल साफ है, वो यह है कि न्यू इंडिया के वोटर नए जमाने की चीजें मांगते हैं. मैं उन्हें स्पष्ट कारणों से मुफ्त उपहारों के बजाय "वोटबीज" कहना पसंद करता हूं. अगर फ्री लंच जैसी कोई चीज नहीं होती है तो फ्री वोट जैसी भी कोई चीज नहीं है.  

एक बात जो बिल्कुल साफ है वो यह है कि न्यू इंडिया के वोटर नए जमाने की चीजें मांगते हैं. मैं उन्हें स्पष्ट कारणों से मुफ्त उपहारों के बजाय "वोटबीज" कहना पसंद करता हूं. अगर फ्री लंच जैसी कोई चीज नहीं होती है तो फ्री वोट जैसी कोई चीज भी नहीं है.  

शनिवार को कई चीजें स्पष्ट थीं जो बताती हैं कि पिछले एक दशक में कांग्रेस को मिली असफलताओं के बावजूद शीर्ष पर कांग्रेस में बहुत कम बदलाव आया है. लेकिन प्रचार और फोकस में कुछ बदलाव नजर आ रहे हैं. यह गरीब-समर्थक कल्याणकारी योजनाओं में ज्यादा सुधार कर रहा है, उनकी बेहतर ब्रांडिंग कर रहा है (मुझे यकीन है कि वो मोदी से सीख रहे हैं) और नई ऊर्जा के साथ लोगों तक पहुंच रहे हैं. 

बेरोजगार ग्रेजुएट्स, महिलाओं और गरीबों को लुभाने के लिए कांग्रेस पार्टी ने घोषणापत्र में चुनाव पूर्व पांच "गारंटी" दी थी. सिद्धारमैया ने अपनी पहली कैबिनेट बैठक में इसे "सैद्धांतिक" मंजूरी भी दे दी. यह अधिक लोकलुभावन या वोट हथियाने वाले कॉम्बो प्रस्तावों के लिए खाका तैयार करती है.. ये 2024 की चुनावी तैयारी में अहम हो सकते हैं.  

विपक्षी एकता की कोशिश  

अगर इसे कॉर्पोरेट के उदाहरण से समझे तो मैं कह सकता हूं कि कांग्रेस एक मजबूत रिसर्च & डेवलपमेंट, (आर एंड डी) और मार्केटिंग विभागों वाली कंपनी की तरह है, लेकिन इसका मानव संसाधन (HR) विभाग काफी अस्तव्यस्त हालत में है.

सिद्धारमैया और उनके प्रतिद्वंद्वी डीके शिवकुमार के बीच कुर्सी की खींचतान दिखी. उनके संबंधित फॉलोवर्स महत्वाकांक्षी दिखे और सीएम की कुर्सी के लिए होहल्ला किया. इस स्थिति ने पर्यवेक्षकों को अशोक गहलोत-सचिन पायलट टकराव या फिर छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल-टी एस सिंहदेव जैसे मतभेद की स्वभाविक तौर पर याद दिलाई होगी.

शपथ ग्रहण समारोह में मिशन 2024 के लिए विपक्षी एकता का प्रदर्शन भी स्पष्ट था. शायद इसे विपक्षी एकता का प्रयास कहना बेहतर होगा. नेशनल कांफ्रेंस के नेता फारूक अब्दुल्ला, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री DMK सुप्रीमो एमके स्टालिन और जनता दल (यूनाइटेड) के नीतीश कुमार और राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव, कम्युनिस्ट नेताओं का सिद्धारमैया के साथ मंच पर हाथ से हाथ पकड़े दिखाना विपक्षी एकता को धार देने के लिए ठीक ही दिखा.

लेकिन टीवी चैनलों ने इसके उलट एक और वीडियो, जो 2018 का था, उसे दिखाकर विपक्षी एकता पर फिर से सवाल उठाए. एक एंकर ने धीरे से टिप्पणी की कि विपक्षी एकजुटता की बात अभी तक ठीक से पकी नहीं है. आखिरकार इसी तरह की विपक्षी एकता की बात पहले भी हुई थी और बावजूद 2019 में नरेंद्र मोदी ने दूसरा कार्यकाल जीत लिया था और विपक्षी एकता की हवा निकल गई थी.

बहुजन समाज पार्टी की मायावती, समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव और तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी 2018 में उपस्थित थे और बैंगलोर में इस साल के राजनीतिक रॉक शो में कांटेरावा स्टेडियम में नहीं आए थे. हम अभी तेलंगाना के मुख्यमंत्री और भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) के नेता के चंद्रशेखर राव को विपक्षी ढांचे में खड़े होने का सोच भी नहीं सकते हैं.

मैं कांग्रेस की अगुवाई वाली विपक्षी एकता को रूबिक क्यूब के भीतर रूबिक क्यूब जैसा देखता हूं. 
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कांग्रेस रूबिक क्यूब सिंड्रोम  

भारत की सबसे पुरानी पार्टी यानि ग्रैंड ओल्ड पार्टी को पहले विपक्षी गठबंधन के केंद्र के रूप में खुद विश्वसनीय तौर पर बनाना होगा. भले ही उसके मानव संसाधन विभाग (HR) के भीतर प्रतिद्वंद्वी नेताओं और जाति समूहों के बीच सत्ता और प्रमुखता के लिए संघर्ष चलता रहे. हालांकि, बंगलुरु के माहौल से यह साफ है कि अभी भी नेहरू-गांधी परिवार ही फैसले लेता है और कांग्रेस पार्टी को इस बात पर कोई आपत्ति नहीं है कि राहुल गांधी अनाधिकारिक तौर पर सुप्रीमो हैं, भले ही दलित दिग्गज मल्लिकार्जुन खड़गे अध्यक्ष क्यों ना बने रहें.

तकनीकी रूप से, राहुल गांधी वर्तमान में केवल केरल से कांग्रेस पार्टी के सांसद हैं, और प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश की प्रभारी महासचिव हैं. कर्नाटक के कैबिनेट समारोह में मंच साझा करने के साथ ही दोनों की मौजूदगी खूब दिखी. हफ्ते की शुरुआत, में 'शिवरमैया' की जोड़ी दिल्ली में छाई रही. फोन कॉल्स, बैठकें सब कुछ ताबड़तोड़ चल रही थी और पार्टी की फर्स्ट फैमिली भी इस सबमें लगी हुई थी.

रविवार, 21 मई को, राहुल-प्रियंका के पिता दिवंगत प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पुण्यतिथि थी. कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों अशोक गहलोत, भूपेश बघेल और निश्चित रूप से सिद्धारमैया के लिए राष्ट्रीय समाचार पत्रों में बड़े पैमाने पर विज्ञापन चलाने का अवसर था, जिसमें कुछ कार्यक्रमों को पूर्व प्रधान मंत्री के नाम पर उदारतापूर्वक नामित किया गया था.

वंशवाद कांग्रेस के लिए एक दोधारी तलवार है: यह पार्टी को एकजुट करता है लेकिन विपक्ष और मीडिया को आलोचना करने का मौका दे देता है.

बंगलुरु में राहुल गांधी के आत्मविश्वासपूर्ण भाषण ने पार्टी की रीढ़ के रूप में आदिवासियों, दलितों और विविध गरीबों के गठबंधन के लिए अपना प्यार दिखाया. धार्मिक अल्पसंख्यकों, जिनका नाम स्पष्ट रूप से नहीं है, का उल्लेख करने की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है जैसा कि सिद्धारमैया कैबिनेट में उनके प्रतिनिधित्व से साफ था. कांग्रेसवाद जिंदा है और फलफूल रहा है और इसलिए गांधी परिवार भी मजबूत हो रहा है.

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आखिरी विचार

लेकिन विभिन्न स्तरों और राज्यों में अंतर-पार्टी प्रतिद्वंद्विता के साथ अपने कल्याणकारी कार्यक्रमों के राजकोषीय बोझ को कम करने में पार्टी के लिए आगे बहुत मेहनत करनी है. इसे एक स्टॉक मार्केट के हालात से समझें, जहां कीमतें हर मिनट या सेकंड में ऊपर और नीचे जाती हैं, और कांग्रेस नेतृत्व कीबोर्ड पर किसी क्रेजी कारोबारी की तरह हाथ मारते दिखें.

ऐसा नहीं है कि बीजेपी में आंतरिक तनाव और प्रतिद्वंद्विता नहीं है. हरियाणा, असम और यहां तक कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सरकार बनाने में देरी का पता ट्विटर और दूसरी मीडिया से चला. और मध्य प्रदेश में सामने आ रही बीजेपी के भीतर प्रतिद्वंद्विता की सुगबुगाहट ने इस शोर को और बढ़ा दिया है.

आधुनिक लोकतंत्र में सत्ता की साझीदारी सामान्य खेल बना हुआ है, जो अक्सर आत्म-बलिदान या निस्वार्थ की लफ्फाजी करने वाले मोदी या हिंदुत्व के चैंपियन के खिलाफ होती है. लेकिन बीजेपी की चूहा दौड़ कांग्रेस की तुलना में खुली आंखों से कम दिखाई देती है.

प्रधानमंत्री मोदी को पीएम की सीट पर बैठे लगभग एक दशक पूरे होने वाले हैं ..अब चाहे उनकी पार्टी इसे मानें या नहीं लेकिन यह सच है कि उनको जनता उनके कामकाज के प्रदर्शन पर ही आंकेगी ना कि उनके व्यक्तित्व या लोकप्रियता के आधार पर... लेकिन वे इस बात से रिलैक्स रह सकते हैं कि जहां बीजेपी एकध्रुवीय राजनीति है  वहीं कांग्रेस अपने रुबिक क्यूबिक सिंड्रोम से दूर करने के लिए संघर्ष कर रही है.

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