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आइडेंटिटी पॉलिटिक्स के दौर में मोदी ने पकड़ी जाति की राह, बिहार चुनाव पर भी नजर

आइडेंटिटी पॉलिटिक्स के उदय को स्वीकार न करना भारतीय जनता पार्टी को सेल्फ डिनायल के रास्ते पर ले जाता.

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राजनीतिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (सीसीपीए) ने बुधवार, 30 अप्रैल को देश में होने वाली अगली जनगणना में जातिगत गणना को मंजूरी दे दी है. यह फैसला आगामी बिहार विधानसभा चुनाव के मद्देनजर महत्वपूर्ण माना जा रहा है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच हुई बैठक के एक दिन बाद यह फैसला लिया गया है. इस बैठक में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह भी मौजूद थे.

अलग-अलग राज्यों में हुए जातिगत सर्वेक्षण के बीच केंद्र सरकार ने अगली जनगणना में जातियों की गणना को शामिल करने का फैसला मुख्यरूप से "भ्रम" की स्थिति को दूर करने के लिए लिया है.

कर्नाटक, बिहार और तेलंगाना ने जातिगत सर्वेक्षण कराए हैं, जबकि ओडिशा में नवीन पटनायक ने विधानसभा चुनाव से पहले ऐसा करने का वादा किया था.

जाति के जिन्न को वापस बोतल में बंद करना

जाहिर है कि लोकसभा चुनाव के दौरान जाति जनगणना का मुद्दा खूब उठा था. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जाति जनगणना की मांग के सूत्रधार होने का दावा किया था. 2020 में बिहार में सरकार गठन के कुछ महीनों के अंदर ही एक प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री से मुलाकात की थी. नीतीश ने इस प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया था, उनके साथ तत्कालीन उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव भी थे.

हालांकि, नीतीश कुमार बाद में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में वापस लौट गए, लेकिन लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने जाति जनगणना को अपना मुख्य राजनीतिक मुद्दा बना लिया.

हाल के हफ्तों में राहुल तीन बार बिहार का दौरा कर चुके हैं. उनका जोर जाति जनगणना पर ही रहा है. ऐसे में CCPA के फैसले का उद्देश्य बिहार विधानसभा चुनावों में राहुल के मुख्य राजनीतिक हथियार को कुंद करना है.

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मोदी और शाह के साथ मोहन भागवत

इस साल की शुरुआत में मोदी को भागवत के साथ नागपुर में निजी बैठक करने का कोई मौका नहीं मिला था. लेकिन आरएसएस प्रमुख पिछले 10 दिनों से नई दिल्ली में हैं और तीन कार्यक्रमों में भाग ले रहे हैं. उन्होंने आखिरकार 7 लोक कल्याण मार्ग स्थित प्रधानमंत्री आवास पर मोदी से मुलाकात की, जहां शाह भी मौजूद थे.

बीजेपी के पुराने लोग दावा करते हैं कि भागवत समझाने और स्पष्ट संदेश देने में माहिर हैं. भागवत ने बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को 2013 में मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के पार्टी के फैसले के खिलाफ अपना विरोध छोड़ने के लिए राजी किया था.

बीजेपी और आरएसएस के अंदरूनी सूत्र इस बात पर सहमत हैं कि भागवत गैर-आरएसएस संस्थाओं द्वारा जाति जनगणना के लिए चलाए जा रहे राजनीतिक अभियानों से चिंतित थे. क्योंकि हिंदुओं को एकजुट करने के लिए आरएसएस 'समरसता' के राजनीतिक सिद्धांत पर जोर देता है. वहीं जाति जनगणना की मांग आरएसएस की 'समरसता' सिद्धांत के खिलाफ है.

जाति जनगणना के ज्वलंत मुद्दे को शांत करना

हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी की हार ने पार्टी के नीति निर्माताओं को झकझोर कर रख दिया था. हरियाणा और उत्तराखंड के विपरीत, हिमाचल में कांग्रेस ने बीजेपी को सत्ता से बेदखल कर दिया. कांग्रेस की जीत का श्रेय ‘पुरानी पेंशन योजना’ (OPS) की मांग को दिया गया.

बीजेपी को दीवार पर लिखी बात समझ में आ गई. केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने यूनियनों की मांगों पर विचार करने के लिए एक समिति की घोषणा की. इसके बाद, केंद्रीय मंत्रिमंडल ने यूनिवर्सल पेंशन योजना को मंजूरी दे दी. OPS के राजनीतिक धार कुंद पड़ गई और अब इसका अस्तित्व समाप्त हो गया है. कर्मचारियों को राहत महसूस हुई कि “कुछ न होने से कुछ होना बेहतर है”.

इस प्रकार, अगली जनगणना में जाति गणना को मंजूरी देना, ओपीएस की राजनीति को खत्म करने के तरीके की एक सटीक पुनरावृत्ति है. चूंकि सरकार अगली जनगणना में जाति गणना के लिए पहले ही सहमत हो चुकी है, इसलिए इस पर राजनीति का आधार और प्रासंगिकता खत्म हो जाती है, कम से कम तब तक जब तक जनगणना के नतीजे सामने नहीं आ जाते.

2021 की जनगणना तय समय से पीछे चल रही है. संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन 2026 में होना है, क्योंकि 2001 में तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार ने इसपर 25 साल के लिए प्रतिबंध लगाया था, जो अगले साल खत्म हो रहा है. अगले कुछ हफ्तों में यह पता चल जाएगा कि जनगणना समय पर शुरू हो पाएगी या नहीं, ताकि ये परिसीमन की समय सीमा तक संपन्न हो सके.

तत्काल संतुष्टि की उम्मीद नहीं

केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कैबिनेट ब्रीफिंग के दौरान कहा कि जनगणना संविधान की संघ सूची के अंतर्गत आती है. इसका मतलब है कि राज्य अब जाति जनगणना का आदेश नहीं दे सकते. साथ ही, जाति गणना के व्यापक मापदंडों को तय करने का काम केंद्र का होगा.

मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने साल 2011 में सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना करवाई थी. इसके तहत जातिगत आंकड़े 14 साल बाद भी सामने नहीं आए हैं. अधिकारियों ने डेटा एंट्री में कुछ गलतियां बताई थीं, जो यूपीए सरकार के कार्यकाल खत्म होने तक अनसुलझी रहीं और उसके बाद इसे भुला दिया गया.

हालांकि, जाति गणना का काम अगली जनगणना में होना है, लेकिन ये केंद्र की सुविधा पर भी निर्भर करता है. वास्तविक जाति डेटा को संभवतः रोका जा सकता है ताकि डेटा कैप्चरिंग में सटीकता की मांग को पूरा किया जा सके. इससे जाति जनगणना के पीछे की राजनीति को सालों तक के लिए भुलाया जा सकता है.

रोहिणी आयोग की रिपोर्ट को पुनर्जीवित करना

जस्टिस जी रोहिणी आयोग ने 2023 में अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के उप-वर्गीकरण पर रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपी थी. आयोग का गठन 2017 में किया गया था. पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के भीतर आरक्षण को उप-वर्गीकृत करने की अनुमति दी थी. शीर्ष अदालत का फैसला अब बीजेपी के लिए उप-वर्गीकरण का मुद्दा बन गया है.

आरक्षण में ओबीसी के उप-वर्गीकरण को मजबूती देने के लिए सरकार को डेटा की भी जरूरत होगी. जाति गणना से ये काम पूरा हो सकता है.

बीजेपी आरक्षण के उप-वर्गीकरण की राजनीतिक ताकत का परीक्षण राज्यों में कर रही है. भगवा संगठन अब इस बात को लेकर आश्वस्त होने के करीब है कि ओबीसी की राजनीति बीजेपी के लिए एक उभरता हुआ खतरा है. चुनौती को रोकने के लिए, ओबीसी पहचान का विखंडन हिंदुओं के एकीकरण के लिए आरएसएस के बड़े उद्देश्य से जुड़ा हुआ है.

बीजेपी का लक्ष्य राज्य की राजनीति में प्रमुख ओबीसी जातियों की राजनीतिक ताकत को कम करना होगा. बिहार में एम-वाई (मुस्लिम-यादव) गठबंधन के फिर से उभरने से बीजेपी-जनता दल (यूनाइटेड) चिंतित हैं. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के प्रमुख स्थान पर आने के बाद बीजेपी ने 2024 के आम चुनावों में लोकसभा में अपना बहुमत खो दिया है.

आइडेंटिटी पॉलिटिक्स के उदय को स्वीकार न करना भारतीय जनता पार्टी को सेल्फ डिनायल के रास्ते पर ले जाता. बीजेपी नेताओं का मानना ​​है कि भागवत ने मोदी को इस चुनौती से तत्काल निपटने के लिए जागरुक किया है.

(लेखक दिल्ली स्थित राजनीतिक पत्रकार हैं, जिन्होंने दो दशकों से अधिक समय तक द न्यू इंडियन एक्सप्रेस, डेक्कन क्रॉनिकल, द एशियन एज और द स्टेट्समैन के लिए काम किया है. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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