(यह एक काउंटरव्यू है जो द क्विंट द्वारा बिहार में आगामी विधानसभा चुनाव में AIMIM की संभावनाओं पर पहले प्रकाशित एक व्यू के जवाब में लिखा गया है. व्यू यहाँ पढ़ें.)
स्वतंत्र पत्रकार असद अशरफ ने 'द क्विंट' में छपे अपने हालिया लेख में लिखा है कि महागठबंधन ओवैसी की पार्टी AIMIM को साथ लेने से इनकार कर खुद अपनी ताकत घटा रहा है.
वह लिखतें हैं कि अख्तरुल ईमान की अगुवाई वाली AIMIM की बिहार इकाई ने आरजेडी, कांग्रेस, वाम दलों और छोटी पार्टियों वाले महागठबंधन में शामिल होने की औपचारिक अपील की है.
लेकिन बीते दो हफ्तों में ईमान का अंदाज अपील से ज्यादा गुहार जैसा दिखा है. उनकी कोशिशें राजनीतिक अस्तित्व बचाने की ‘भीख’ जैसी नजर आ रही हैं.
गठबंधन की जद्दोजहद
11 सितंबर को अख्तरुल ईमान ढोल-नगाड़ों के साथ पार्टी कार्यकर्ताओं की अगुवाई करते हुए पटना के सर्कुलर रोड स्थित आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव के आवास पर पहुंचे और सामूहिक रूप से गाने लगे— “लालू-तेजस्वी अपने कानों को खोल, तेरे दरवाजे पर बज रहा है ढोल, गठबंधन के लिए अपना दरवाजा खोल, वरना खुल जाएगा तेरे MY (मुस्लिम-यादव) समीकरण का पोल.”
ऐसी खबरें भी सामने आई हैं कि AIMIM कार्यकर्ता न सिर्फ पिछले महीने राहुल गांधी की मतदाता अधिकार यात्रा में घुसे, बल्कि तेजस्वी यादव की बिहार अधिकार यात्रा में जबरन प्रवेश किया और इसी मांग को लेकर हंगामा खड़ा करा किया.
AIMIM इन हरकतों से खुद को कमजोर राजनीतिक विकल्प के रूप में पेश कर रहा है और अपने "हक छीन कर लेंगे" वाले नारे को खोखला कर रहा है. एक मजबूत नेता गठबंधन के लिए मेज के सामने बैठता है न कि दरवाजे पर ढोल पीटता है. यह कोई सरकारी मांग नहीं है.
यही पहला सवाल है जिसे असद अपने लेख में उठाने से चूक गए. क्या AIMIM वास्तव में बिहार की राजनीति में अपने 10 वर्षों के उथल-पुथल भरे कार्यकाल के दौरान बिहार के 17.7 प्रतिशत मुसलमानों के प्रतिनिधि के रूप में खुद को स्थापित करने में सक्षम हो पाई है?
बिहार में एक दशक
AIMIM ने 2015 के विधानसभा चुनावों के दौरान बिहार में कदम रखा और किशनगंज, पूर्णिया, कटिहार और अररिया—जिन्हें सामूहिक रूप से सीमांचल कहा जाता है—की छह सीटों पर चुनाव लड़ा. इनमें से केवल पार्टी प्रमुख अख्तरुल इमान ही अपनी जमानत बचा सके, और कुल मिलाकर पार्टी को इन सीटों पर सिर्फ 8.04 प्रतिशत वोट मिले.
चार साल बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने केवल किशनगंज निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव लड़ा, जिसमें किशनगंज जिले की चार विधानसभा सीटें और निकटवर्ती पूर्णिया की दो सीटें शामिल थीं. पार्टी केवल कोचाधामन और बहादुरगंज में ही बढ़त बना पाई.
AIMIM ने उसी साल किशनगंज विधानसभा उपचुनाव जीतकर अपनी पहली जीत का स्वाद चखा, लेकिन नौ महीने बाद ही 2020 के विधानसभा चुनावों में वह यह सीट हार गई. तब उसने पांच सीटें जीती थीं, जिनमें से चार किशनगंज लोकसभा क्षेत्र में और एक अररिया में थी.
AIMIM ने उपेंद्र कुशवाहा के नेतृत्व वाले ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट (GDSF) के साथ मिलकर 20 सीटों पर चुनाव लड़ा जिसमें, बहुजन समाज पार्टी (BSP) भी एक प्रमुख सहयोगी थी. पार्टी को इन निर्वाचन क्षेत्रों में कुल 14.28 प्रतिशत वोट मिले लेकिन पांच जीत के अलावा वह केवल एक अन्य सीट पर अपनी जमानत बचा पाई और अपने कथित गढ़ सीमांचल के कई हिस्सों में 10 प्रतिशत से भी कम वोट हासिल कर पाई.
विश्वसनीयता खो दी
सीमांचल सिर्फ किशनगंज और आस-पास के क्षेत्र नहीं है जैसा अक्सर विशेषज्ञ समझते हैं. इस क्षेत्र की 24 विधानसभा सीटों में से 11 पर मुस्लिम विधायक हैं ठीक 2015 की तरह. 2015 और 2020 के बीच बदलाव यह दिखाता है कि मतदाताओं के पास विकल्प मौजूद था. अमौर, बैसी और बहादुरगंज लंबे समय से बदलाव के लिए तैयार थे, और AIMIM वह विकल्प बनकर सामने आई.
कोचाधामन और जोकीहाट जहां मुस्लिम आबादी सबसे अधिक है, वहां मामला थोड़ा अलग था. कोचाधामन में AIMIM का मुख्य प्रतिद्वंद्वी NDA का मुस्लिम उम्मीदवार था. जोकीहाट जो लंबे समय से राष्ट्रीय जनता दल के दिवंगत तस्लीमुद्दीन के परिवार का गढ़ रहा है वहां पार्टी का जुड़ाव कोई मायने नहीं रखता.
2024 का लोकसभा चुनाव AIMIM के लिए अग्निपरीक्षा साबित हुआ. AIMIM के चार विधायक और एक पूर्व विधायक पहले ही आरजेडी में शामिल हो चुके थे, जिससे पार्टी के पास सिर्फ अख्तरुल इमान ही प्रमुख चेहरा रह गए. ओवैसी ने अपने विधायकों पर गद्दारी का आरोप लगाकर सहानुभूति बटोरने की बार-बार कोशिश की, लेकिन इसके बावजूद AIMIM मतदाताओं का भरोसा वापस जीतने में नाकाम रही.
पार्टी 2019 की तरह ही केवल कोचाधामन और बहादुरगंज में बढ़त बना सकी, लेकिन वहां भी उसके वोटों की संख्या घट गई. अपने अमौर विधानसभा क्षेत्र में खुद अख्तरुल इमान को 2020 के मुकाबले लगभग आधे वोट ही मिल पाए.
यह दिखाता है कि AIMIM सीमांचल में भी मुस्लिम समर्थन को लगातार बनाए रखने में विफल रही है—जबकि यही इलाका है जहां बिहार की लगभग 28 प्रतिशत मुस्लिम आबादी रहती है. बाकी 72 प्रतिशत मुसलमानों के बीच, जो सीमांचल से बाहर रहते हैं, AIMIM का लगभग कोई चुनावी असर नहीं है.
इसमें कोई शक नहीं कि बिहार के मुसलमानों को बेहतर नेतृत्व और व्यापक प्रतिनिधित्व की जरूरत है. यही AIMIM की मौजूदगी को प्रासंगिक बनाता है. लेकिन सवाल यह है—क्या AIMIM आरजेडी, कांग्रेस और वामदलों जैसी पार्टियों की तुलना में बेहतर मुस्लिम नेतृत्व देने में सक्षम हो पाई है?
AIMIM के टिकट पर अब तक जीतने वाले छह विधायकों में से तीन पूर्व विधायक हैं. बाकी विधायक AIMIM में शामिल होने से पहले लंबे समय तक RJD या जनता दल (यूनाइटेड) JD(U) से जुड़े रहे हैं.
शुरुआत से ही पार्टी ने जीतने वाली सीटों पर वफादार जमीनी कार्यकर्ताओं को टिकट देने से परहेज किया और कभी-कभी तो आखिरी समय पर दूसरे दलों से आयात किए गए नेताओं को प्राथमिकता दी.
अगर AIMIM सच में मुस्लिम नेतृत्व मजबूत करना चाहती, तो उसे जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं पर ध्यान देना चाहिए था. अगर पार्टी अपने विधायकों को बनाए रखने में कामयाब होती तो आज उसे किसी से गठबंधन की गुहार नहीं लगानी पड़ती. भले ही औपचारिक गठबंधन न होता, महागठबंधन कम से कम किसी अनौपचारिक समझौते पर विचार कर सकता था.
नेताओं को लंबे समय तक अपने साथ न रख पाने की विफलता ने मुसलमानों के बीच AIMIM को लेकर अविश्वास पैदा कर दिया. सिर्फ विधायक ही नहीं, स्थानीय नेता और कार्यकर्ता भी पार्टी छोड़ गए. इतना ही नहीं, सहयोगी उपेंद्र कुशवाहा—जिन्हें ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट (GDSF) का सीएम चेहरा पेश किया गया था—और एक अन्य अहम सहयोगी देवेंद्र प्रसाद यादव भी, गठबंधन के टूटते ही तेजी से NDA खेमे में चले गए. आयातित उम्मीदवार और सुविधानुसार बने गठबंधन एक-दो बार चल सकते हैं, लेकिन बार-बार नहीं.
कुछ लोग कह सकते हैं कि मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी (VIP) की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है. उनकी पार्टी ने 2020 में NDA के हिस्से के रूप में चार सीटें जीती थीं, लेकिन उसके तीन विधायक (एक की मृत्यु हो गई) बाद में बीजेपी में शामिल हो गए. इनमें से कोई भी विधायक उस मल्लाह समुदाय से नहीं था, जिसे सहनी अपना आधार बताते हैं. सहनी खुद 2019 लोकसभा और 2020 विधानसभा चुनाव दोनों हार गए. फिर भी VIP महागठबंधन में शामिल है, जबकि AIMIM नहीं.
कारण साफ है. सहनी, बिल्कुल दिवंगत रामविलास पासवान की तरह, वैचारिक रूप से लचीले हैं. वे NDA और महागठबंधन, दोनों से शर्तों के आधार पर सौदेबाजी करते हैं. AIMIM के पास वह लचीलापन नहीं है. उसका एकमात्र व्यावहारिक विकल्प है—जमीन पर अपनी ताकत साबित करना, न कि गुहार लगाना.
लेकिन लगता है AIMIM ने कोई सबक नहीं सीखा. अपने तथाकथित गद्दारों के खिलाफ गुस्से में डूबी पार्टी ने एक बार फिर समझौता कर लिया है.
2025 के विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी के पहले घोषित उम्मीदवार बहादुरगंज से चार बार के कांग्रेस विधायक तौसिफ आलम हैं. कांग्रेस में अपने दो दशकों के कार्यकाल के दौरान आलम ने अक्सर पार्टी के अपने लोकसभा उम्मीदवारों के खिलाफ काम किया. 2024 के चुनाव अभियान में उन्होंने मल्लिकार्जुन खड़गे की मौजूदगी में खुलेआम कांग्रेस प्रत्याशी की आलोचना की थी और उनके बारे में यह भी रिपोर्ट है कि उन्होंने राज्यसभा उपचुनाव में क्रॉस-वोटिंग की थी. वे AIMIM से आरजेडी में गए विधायकों में से एक—इजहार असफी के दामाद भी हैं. बहादुरगंज में लोग कह रहे हैं कि AIMIM के चारों विधायकों को पार्टी छोड़ने में दो साल भी नहीं लगे, अगर तौसीफ जीत गए तो उन्हें पार्टी छोड़ने में शायद दो दिन भी न लगें.
यह भी ध्यान देने योग्य है कि AIMIM के बिहार प्रमुख ने गठबंधन में केवल छह सीटें मांगी हैं. संभावना है कि ये वही सीटें होंगी जहां AIMIM पहले जीत या मजबूती दिखा चुकी है: किशनगंज, कोचाधामन, बहादुरगंज, अमौर, बैसी और जोकीहाट.
आइए, अब इन सीटों की मौजूदा स्थिति पर नजर डालें.
2025 के विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी के पहला घोषित उम्मीदवार बहादुरगंज से चार बार के कांग्रेस विधायक तौसिफ आलम हैं. कांग्रेस में अपने दो दशकों के दौरान आलम अक्सर पार्टी के लोकसभा उम्मीदवारों के खिलाफ काम करते रहे .2024 के चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने मल्लिकार्जुन खड़गे के सामने कांग्रेस उम्मीदवार की खुलकर आलोचना की और राज्यसभा उपचुनाव में क्रॉस वोटिंग की खबर भी आई थी. वह AIMIM से RJD में गए चार विधायकों में से एक इझहार असफी के दामाद भी हैं. बहादुरगंज में लोग कहते हैं कि चार AIMIM विधायकों ने पार्टी छोड़ने में दो साल से भी कम समय लिया. अगर तौसिफ जीतते हैं तो हो सकता है उन्हें दो दिन से भी कम समय लगे.
यह भी ध्यान देने वाली बात है कि AIMIM के बिहार प्रमुख ने गठबंधन में सिर्फ छह सीटें मांगी हैं. संभावना है कि ये वे सीटें होंगी जहां AIMIM पहले से जीत चुकी है किशनगंज कोचाधामन बहादुरगंज अमौर बैसी और जोकीहाट.
अब आइए इन सीटों की मौजूदा स्थिति पर एक नजर डालते हैं.
मजबूत चेहरों की कमी
किशनगंज, जो सांसद मोहम्मद जावेद का संसदीय क्षेत्र है, कांग्रेस का गढ़ माना जाता है. यहां मौजूदा विधायक इजहारुल हुसैन और पूर्व AIMIM विधायक कमरुल होदा दोनों ही कांग्रेस टिकट के लिए दावेदार हैं. AIMIM के पास इस तिकड़ी को टक्कर देने के लिए कोई मजबूत चेहरा नहीं है.
कोचाधामन में इजहार असफी और पूर्व जेडीयू विधायक मुजाहिद आलम आरजेडी का टिकट चाहते हैं. AIMIM के पास उन्हें चुनौती देने के लिए कोई चेहरा नहीं है.
बैसी में मौजूदा विधायक सैयद रुकनुद्दीन अहमद और पूर्व विधायक अब्दुस सुभान दोनों आरजेडी टिकट के लिए दावेदारी कर रहे हैं. AIMIM ने 2015 का अपना उम्मीदवार फिर से मैदान में उतारा है, जिसे उस वक्त 10 प्रतिशत से भी कम वोट मिले थे.
जोकीहाट में फिर से तस्लीमुद्दीन के बेटों शाहनवाज और सरफराज के बीच मुकाबला होगा. शाहनवाज मौजूदा आरजेडी विधायक हैं और सरफराज अभी किसी पार्टी में नहीं हैं.
अब तक सिर्फ अमौर और बहादुरगंज ही दो सीटें हैं जहां AIMIM के ऐसे चेहरे हैं जो महागठबंधन को नुकसान पहुंचा सकते हैं.
24 सितंबर से शुरू हुए सीमांचल दौरे के दौरान ओवैसी अपने समर्थन आधार को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन देखना होगा कि उनके साथ कितने जाने-पहचाने चेहरे मंच पर होंगे.
विभाजन को रोकना
मुस्लिम वोटों के बंटने का जो तर्क है, वह ऐसा मुद्दा है जिसका कोई अंत ही नहीं है. भले ही महागठबंधन AIMIM को अपने गठबंधन में शामिल कर ले, फिर भी बागी उम्मीदवार अलग-अलग तरीके से चुनाव लड़ेंगे.
पिछले साल गया के बेलागंज में हुए उपचुनाव में RJD को JD(U) से करीब 21,000 वोटों से हार का सामना करना पड़ा था. जन सुराज पार्टी (JSP) के मुस्लिम उम्मीदवार मोहम्मद अमजद को 17,000 वोट मिले, जबकि AIMIM के जमीन अली को सिर्फ 3,500 वोट मिले. इसका मतलब यह बिलकुल नहीं है कि JSP मगध में मुस्लिम वोटों को प्रभावित कर सकती है या महागठबंधन को नुकसान पहुंचा सकती है. ये वोट अमजद के व्यक्तिगत थे, क्योंकि वह तीन बार इस सीट पर दूसरे नंबर पर रह चुके हैं.
इसी तरह कटिहार की प्राणपुर सीट पर 2020 में कांग्रेस के तौकीर आलम को बीजेपी से सिर्फ 3,000 वोटों से हार मिली थी. वहां एक निर्दलीय मुस्लिम उम्मीदवार को 20,000 वोट मिले, जबकि AIMIM के उम्मीदवार को बस 500 वोट मिले.
जैसा तेजस्वी यादव ने हाल ही में एक इंटरव्यू में कहा था, ओवैसी ने गठबंधन के लिए ना तो लालू प्रसाद यादव से और ना ही उनसे फोन पर औपचारिक बात की. क्या इसका मतलब यह है कि AIMIM को यकीन है कि उसे गठबंधन में जगह नहीं मिलेगी?
क्या यह सब बस दिखावा भर तो नहीं है ताकि चुनाव के दौरान AIMIM यह दलील दे सके: हम गठबंधन चाहते थे, लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया. हम मुस्लिम वोट विभाजित नहीं करना चाहते, फिर भी महागठबंधन ने हमारे पास कोई विकल्प नहीं छोड़ा?
(तनज़ील आसिफ़ सीमांचल के एक पत्रकार हैं और बिहार के हाइपर-लोकल न्यूज प्लेटफॉर्म 'मैं मीडिया' के संस्थापक भी हैं. यह एक ऑपीनियन आर्टिकल है जिसमें व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट इसका समर्थन नहीं करता और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)