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अतुल सुभाष सुसाइड केस: भारत में तलाक कानून भी दुरुपयोग से अछूता नहीं

Bengaluru Techie's Suicide: बेंगलुरू में रहने वाले 34 वर्षीय इंजीनियर अतुल अपनी अलग रह रही पत्नी और उसके परिवार के साथ लगातार कानूनी लड़ाई में उलझे थे.

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(चेतावनी: इस लेख में आत्महत्या का जिक्र है. अगर आपके मन में आत्महत्या से जुड़े ख्याल आ रहे हैं या किसी ऐसे व्यक्ति को जानते हैं जो संकट में है, तो कृपया उनसे संपर्क करें. आप स्थानीय आपातकालीन सेवाओं, हेल्पलाइन और मानसिक स्वास्थ्य NGO से यहां संपर्क कर सकते हैं.)

एक वकील के रूप में समाज के अगल-अलग वर्गों के लोगों का प्रतिनिधित्व करते हुए आप औपचारिकताओं से एक निश्चित दूरी बना लेते हैं. यह आवश्यक दूरी, शायद, सिस्टम अव्यवस्था से निपटने में मदद करती है, साथ ही कागजी कार्रवाई के पीछे छिपी मानवीय कहानियों पर ध्यान केंद्रित करने में भी मदद करती है. फिर हम अतुल सुभाष (Atul Subhas) जैसे मामले को देखते हैं, और यह साफ हो जाता है कि हर दिन अदालतों में कितनी जिंदगियां दांव पर लग रहती हैं.

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बेंगलुरू में रहने वाले 34 वर्षीय इंजीनियर अतुल की कथित तौर पर सुसाइड से मौत हो गई. वह एक पिता भी थे. अतुल कई महीनों से अपने बच्चे से नहीं मिले थे. दूसरी तरफ वह अपनी अलग रह रही पत्नी और उसके परिवार के साथ लगातार कानूनी लड़ाई में भी उलझे हुए थे. उनके आत्महत्या के कारण निस्संदेह जटिल और व्यक्तिगत हैं, लेकिन इसके मूल में एक ऐसी व्यवस्था थी जिसने उन्हें हरा दिया.

सुस्त न्यायपालिका, अगल होने के दुख और समस्या का समाधान खोजने में असमर्थता ने उन्हें तोड़ दिया था, ठीक उसी तरह जैसे इसने कई लोगों को तोड़कर रख दिया है, जिन्हें लगता है कि न्याय देने वाली व्यवस्था ने उनका साथ छोड़ दिया है.

तलाक कानून भी दुरुपयोग से अछूता नहीं

भारत में तलाक, गुजारा भत्ता और घरेलू मुद्दों को नियंत्रित करने वाले कानून न्यायसंगत उपाय प्रदान करने और कमजोर पक्षों, विशेष रूप से महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाए गए हैं, जिन्हें ऐतिहासिक रूप से प्रणालीगत भेदभाव और उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है. हालांकि, ये कानून, आवश्यक होते हुए भी, दुरुपयोग से अछूते नहीं हैं.

आलोचकों के एक वर्ग का तर्क है कि कुछ महिलाएं व्यक्तिगत लाभ के लिए कानूनी प्रावधानों का दुरुपयोग करती हैं, जिससे कानूनी प्रणाली में निहित न्याय और निष्पक्षता की मूल भावना कमजोर होती है.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की आत्महत्या संबंधी रिपोर्ट में अक्सर भ्रामक रूप से मौत का एक ही कारण बताया जाता है. लगभग 75% आत्महत्याएं कुछ प्रमुख कारकों से जुड़ी होती हैं.

पारिवारिक समस्याएं और शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों के कारण होने वाली परेशानियां आत्महत्या के सभी रिपोर्ट किए गए कारणों में से आधे से थोड़ा ज्यादा हैं.

शादी और रिश्ते से जुड़े मुद्दे आत्महत्या से होने वाली मौतों का तीसरा सबसे बड़ा कारण है. उल्लेखनीय बात यह है कि यह उन कुछ क्षेत्रों में से एक है जहां आत्महत्या करने वाले पुरुषों और महिलाओं की संख्या लगभग बराबर है.

भारतीय न्याय प्रणाली में शादी, तलाक और भरण-पोषण के मुद्दों को सुलझाने के लिए कई कानून हैं, जो इस प्रकार हैं:

  • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955, जो हिंदुओं में विवाह और तलाक को नियंत्रित करता है और गुजारा भत्ता और भरण-पोषण का प्रावधान करता है

  • विशेष विवाह अधिनियम, 1954 एक धर्मनिरपेक्ष कानून है, जो अंतरधार्मिक विवाह की अनुमति देता है और संबंधित कानूनी उपायों को नियंत्रित करता है

  • घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम (PWDVA), 2005, जो महिलाओं को घरेलू हिंसा से बचाता है और मौद्रिक राहत, निवास का अधिकार और भरण-पोषण प्रदान करता है

  • दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125, जो पत्नियों, बच्चों और खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ माता-पिता को वित्तीय सहायता सुनिश्चित करता है

इन कानूनों का उद्देश्य तलाक या अलगाव के बाद महिलाओं को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करना है, और यह सुनिश्चित करना है कि उन्हें अभाव का सामना न करना पड़े. हालांकि, इन कानूनों को लागू करने और इस्तेमाल से कभी-कभी दुरुपयोग के आरोप भी सामने आए हैं.

कानून का दुरुपयोग कैसे होता है?

तलाक और गुजारा भत्ता के मामलों में महिलाओं द्वारा कानूनों का दुरुपयोग एक विवादास्पद मुद्दा है.

आलोचक निम्नलिखित तरीकों का हवाला देते हैं जिनमें कानूनों का कथित रूप से दुरुपयोग किया जाता है:

  • घरेलू हिंसा के बढ़ा-चढ़ाकर दावे, जहां महिलाएं कथित तौर पर PWDVA या भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498 ए (पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता से संबंधित) के तहत झूठे दावे दर्ज कराती हैं, कथित तौर पर अधिक से अधिक पैसे वसूलने या पति के परिवार को परेशान करने के लिए ऐसा किया जाता है

  • अत्यधिक गुजारा भत्ता की मांग, वित्तीय आवश्यकताओं को बढ़ा-चढ़ाकर बताने या अधिक गुजारा भत्ता या भरण-पोषण पाने के लिए आय के स्रोतों को छिपाने के आरोप

  • कस्टडी में हेरफेर, जहां बच्चों को कथित तौर पर पति से आर्थिक फायदे या भावनात्मक रियायतें प्राप्त करने के लिए एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है

  • मुकदमे को लम्बा खींचना, जिसमें महिलाओं पर वित्तीय सहायता प्राप्त करने या अपने अलग हुए साथियों को परेशान करने के लिए जानबूझकर अदालती कार्यवाही में देरी करने का आरोप लगाया जाता है

  • अस्थायी वित्तीय लाभ प्राप्त करने के लिए हल्के मामले दायर करके अंतरिम भरण-पोषण प्रावधानों का दुरुपयोग

रजनीश बनाम नेहा मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैमिली कोर्ट के सामने दोनों पक्षों को शपथ पत्र के साथ अपने फाइनेंशियल स्टेटमेंट पेश करने के निर्देश दिए थे. इसके बावजूद, इसे सख्ती से लागू नहीं किया जा रहा है, जो कि प्रक्रियागत चूक का एक बड़ा उदाहरण है. दावों के सत्यापन के लिए मजबूत तंत्र और झूठे आरोपों के लिए सजा के अभाव ने फर्जी मामलों को बढ़ावा दिया है.

ज्यूडिशियरी पर बहुत बोझ बना हुआ है, ऐसे में घरेलू हिंसा अधिनियम, भरण-पोषण प्रावधान, और मानसिक क्रूरता के आधार पर तलाक जैसे कानूनों के तहत "एक साथ कई मामले" दायर करने की सामान्य रणनीति बन गई है.

यह प्रथा प्रायः पक्षों को लम्बी कानूनी लड़ाइयों में उलझा देती है, जहां मकसद न्याय मांगने से हटकर अलग कानूनी मंचों के जरिए से दबाव डालने में बदल जाता है. अपने घरों और वैवाहिक जीवन में लिंग आधारित हिंसा के वास्तविक पीड़ितों के लिए अधिकतम वित्तीय लाभ के लिए बनाए गए झूठे मामलों की भूलभुलैया से निपटना कठिन होता जा रहा है, जिससे वे और अधिक हाशिए पर चले जाते हैं और उनके लिए न्याय दुर्लभ हो जाता है.

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समस्या कहां है?

अगर सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अनदेखी के साथ ही एक ही मुद्दे पर हाई कोर्ट और पीठों द्वारा दिए गए परस्पर विरोधी आदेशों को जोड़ा दिया जाए तो ये समस्या और गंभीर हो जाती है.

व्यभिचार (Adultery) का उदाहरण है, विशेष रूप से इसे अपराध मुक्त करने के बाद, एक बेंच यह दावा कर सकती है कि यह भरण-पोषण से इनकार करने का वैध आधार है. वहीं दूसरी बेंच ने इसे साबित करना इतना अव्यावहारिक बना दिया है कि यह प्रभावी रूप से उन आधारों पर इनकार को नकार देता है. इस तरह के विरोधाभासी आदेशों से भ्रम की स्थिति पैदा होती है और क्लाइंट आशा और निराशा के बीच झूलते रहते हैं.

कानूनों का कथित दुरुपयोग कई व्यवस्थागत मुद्दों से उपजा है. आईपीसी की धारा 498ए जैसे व्यापक कानूनी प्रावधान गैर-जमानती और संज्ञेय हैं, जिनके बारे में आलोचकों का तर्क है कि उनके व्यापक दायरे और झूठे आरोपों के खिलाफ सुरक्षा उपायों की कमी के कारण उनका दुरुपयोग होने की संभावना है. विडंबना यह है कि महिलाओं के प्रति सामाजिक पूर्वाग्रह अक्सर कानूनी प्रावधानों के माध्यम से अति-क्षतिपूर्ति को जन्म देता है, जिससे दुरुपयोग की गुंजाइश पैदा होती है. सुस्त न्याय प्रणाली इस मुद्दे को और गंभीर बना देती है, और लम्बी मुकदमेबाजी से एक पक्ष को शोषण का मौका मिल जाता है.

कानूनों के दुरुपयोग के दूरगामी परिणाम होते हैं, जो व्यक्तियों और व्यापक कानूनी और सामाजिक ढांचे को प्रभावित करते हैं. कानूनों के दुरुपयोग से वास्तविक पीड़ितों की विश्वसनीयता कम हो जाती है, जिससे उनके लिए न्याय पाना मुश्किल हो जाता है. बेबुनियाद मामले पहले से ही बोझ से दबी न्यायपालिका पर और बोझ डालते हैं, जिससे वास्तविक मामलों में न्याय मिलने में देरी होती है. दुरुपयोग की धारणाएं न्याय व्यवस्था की निष्पक्षता के प्रति जनता के विश्वास को कमजोर करती हैं.

कानूनों के दुरुपयोग के आरोप लिंग आधारित दुश्मनी को बढ़ावा देते हैं, जिससे लैंगिक समानता के बड़े लक्ष्य से ध्यान भटक जाता है.
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कानून को वास्तविक पीड़ितों की सुरक्षा करनी चाहिए

वास्तविक पीड़ितों के अधिकारों की रक्षा करते हुए दुरुपयोग के मुद्दे को हल करने के लिए एक संतुलित दृष्टिकोण जरूरी है.

झूठे दावे के खिलाफ कानूनी प्रावधान से दुरुपयोग को रोका जा सकता है और इसके जरिए जवाबदेही सुनिश्चित की जा सकती है.

त्वरित सुनवाई और जांच प्रक्रियाओं में सुधार के जरिए वास्तविक मामलों और बेबुनियाद मामलों को अलग किया जा सकता है. शिक्षा और रोजगार के अवसरों के माध्यम से वित्तीय स्वतंत्रता को प्रोत्साहित करने से गुजारा भत्ता और भरण-पोषण पर निर्भरता कम हो सकती है. इसके साथ ही वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र को बढ़ावा देने से विवादों को शांति से सुलझाने और मुकदमेबाजी को कम करने में मदद मिल सकती है.

भारत में महिलाओं द्वारा तलाक और गुजारा भत्ता कानूनों के दुरुपयोग के आरोप लिंग, कानून और न्याय के बीच जटिल अंतर्संबंध को उजागर करते हैं. हाांलिक, कानून की रक्षा के लिए दुरुपयोग के मामलों पर नकेल जरूरी है, लेकिन यह सुनिश्चित करना भी उतना ही जरूरी है कि इस चर्चा से वास्तविक पीड़ितों के अधिकारों का हनन न हो या पितृसत्तात्मक मानदंडों को बढ़ावा न मिले.

अधिकारों और जिम्मेदारियों के बीच संतुलन बनाने वाला एक सूक्ष्म दृष्टिकोण, प्रणालीगत सुधारों के साथ मिलकर यह सुनिश्चित कर सकता है कि कानूनी ढांचा सभी के लिए न्याय और समानता के अपने इच्छित उद्देश्य को प्राप्त कर सके.

(ताहिनी भूषण दिल्ली-एनसीआर स्थित पूर्ण-सेवा कानूनी फर्म तत्विका लीगल में पार्टनर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है, और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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