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बांग्लादेश चुनाव के नतीजे भारत के लिए बहुत अहम, अमेरिका-चीन के पैंतरे खेल बिगाड़ सकते हैं

Bangladesh Election: भारत बांग्लादेश में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सभी पांच स्थायी सदस्यों की तुलना में अधिक प्रभावी है.

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बांग्लादेश में 7 जनवरी को होने वाले आम चुनावों (Bangladesh Election) की उलटी गिनती शुरू हो गई है. खास बात है कि भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका खुले तौर पर प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दलों का समर्थन कर रहे हैं. लगातार चौथे कार्यकाल की उम्मीद कर रही प्रधानमंत्री शेख हसीना की अवामी लीग के पीछे नई दिल्ली ने अपना पूरा जोर लगा दिया है. वहीं, वाशिंगटन बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी-जमात-ए-इस्लामी (बीएनपी-जेईआई) गठबंधन का समर्थन कर रहा है, जो 2009 से सत्ता से दूर है.

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महत्वपूर्ण बात यह है कि वहां की पार्टियों और अपनी ताकत दिखाने वाली महाशक्ति के अलावा, चीन और रूस ने भी अपनी दावेदारी पेश कर दी है. यूरोपीय संघ भी एक प्रमुख प्लेयर है लेकिन दूसरे शक्तियां, जो वोट डाले जाने से एक महीने से भी कम समय पहले अपने पसंदीदा राजनीतिक दल के पक्ष में मुखर हैं, उसके विपरीत यूरोपीय संघ लो प्रोफाइल रख रहा है.

चूंकि, नई दिल्ली की वाशिंगटन, बीजिंग, मॉस्को और ब्रुसेल्स की तुलना में बांग्लादेश में कहीं अधिक बड़ी हिस्सेदारी है, इसलिए अपनी वफादार सहयोगी शेख हसीना को किसी भी तरह से फिर से निर्वाचित कराना भारत के राजनयिक-सह-सुरक्षा के लिहाज से कल की तरह आज भी सबसे बड़ी प्राथमिकता है.

सौभाग्य से, भारत के पास भी अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की क्षमता है क्योंकि यह बिना किसी अतिशयोक्ति के कहा जा सकता है कि भारत बांग्लादेश में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों की तुलना में अधिक प्रभावी है. शेख हसीना ने नई दिल्ली को अपनी प्रतिबद्धता पर संदेह करने का कोई कारण नहीं दिया है; भारत के साथ रहने के लिए कई बार उन्होंने विशेष प्रयास किया है, जिससे वह हमारे लिए जरूरी हो गई हैं.

बांग्लादेश की राजनीति और शासन का प्रभाव भारत पर किसी भी अन्य देश से अधिक

इस बारे में सोचे तो बांग्लादेश सिर्फ हमारे पड़ोस में पाकिस्तान, नेपाल, भूटान या श्रीलंका जैसा कोई दूसरा देश नहीं है, यह उससे कहीं अधिक है.

भौगोलिक दृष्टि से, बांग्लादेश अच्छी तरह से और सही मायने में भारत के "अंदर" अंतर्निहित है. म्यांमार और दक्षिण में बंगाल की खाड़ी के पानी के साथ एक छोटी सीमा को छोड़कर, बांग्लादेश सभी तरफ से पांच भारतीय राज्यों -पश्चिम बंगाल, असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम से घिरा हुआ है. उस अर्थ में, बांग्लादेश, वास्तव में भारत के "अंदर" है और इसलिए पारंपरिक अर्थ में पड़ोसी से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है.

स्वाभाविक रूप से, बांग्लादेश की घरेलू राजनीति और शासन यानी वहां की सरकार दुनिया के किसी भी अन्य देश की तुलना में भारत पर अधिक प्रभाव डालती है और निश्चित रूप से अमेरिका की तुलना में भी बहुत अधिक प्रभाव है, जो बांग्लादेश से दूर है. फिर भी वाशिंगटन का हमारे पड़ोसी को लेकर एक पूर्णतया हस्तक्षेप करने का एजेंडा है. इसने पहले प्रतिबंध लगाए और फिर हसीना शासन पर लगाम लगाने के लिए वीजा पर प्रतिबंध लगा दिया और वो खुले तौर कह रहा है कि वे यह सुनिश्चित करने के लिए हैं कि आगामी चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष हों.

अमेरिकी राजदूत, पीटर हास, ढाका में विपक्ष के स्टार एंकर-सह- पक्षकार बन गए हैं, हालांकि वह इस बात पर जोर देते रहते हैं कि वह किसी विशेष राजनीतिक दल का पक्ष नहीं ले रहे हैं, बल्कि केवल लोकतंत्र और समावेशी चुनावों के पक्षकार हैं.

अमेरिका का महत्वाकांक्षी लक्ष्य हसीना पर पद छोड़ने के लिए दबाव डालना और एक गैर-पक्षपातपूर्ण, कार्यवाहक सरकार के तहत चुनाव कराने का रास्ता साफ करना है. बीएनपी-जेईआई भी यही चाहता है. गुट ने कार्यवाहक सरकार के अधीन न होने तक चुनाव में भाग लेने से इनकार कर दिया है लेकिन यह इस सरल कारण से असंभव है कि चुनावों की निगरानी करने वाले तटस्थ प्रशासन के प्रावधानों को 2011 में एक संवैधानिक संशोधन द्वारा समाप्त कर दिया गया था.

बिना शर्त बातचीत के लिए एएल और बीएनपी-जेईआई को मेज पर लाने के लिए पीटर हास द्वारा सभी प्रत्यक्ष और गुप्त प्रयास निरर्थक साबित हुए हैं.

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एक प्रकार के लोकपाल के रूप में बांग्लादेशी चुनावों को खुले तौर पर नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे अमेरिका के विपरीत, भारत केवल यह रुख अपनाकर हसीना का समर्थन कर रहा है कि चुनाव बांग्लादेश का घरेलू मामला है, जिसे उसके राजनीतिक वर्ग और देश के संस्थानों और संविधान पर छोड़ दिया जाना चाहिए.

नई दिल्ली का इसमें सीधे तौर पर शामिल ने होना, एक स्मार्ट पॉलिसी है, जिसे खुद विदेश सचिव विनय क्वात्रा ने व्यक्त किया है. यह हसीना की अवामी लीग को बिना हस्तक्षेप के मामले को नियंत्रित करने का मौका देती है. यह अनिवार्य रूप से एक कार्यवाहक सरकार को खारिज करती है और चौथे पांच साल के कार्यकाल के लिए पीएम के रूप में उनके पुन: चुनाव की गारंटी के साथ भारत के राष्ट्रीय हित के साथ कदम मिलाने का मौका देती है.

भारत चाहता है कि हसीना को अकेला छोड़ दिया जाए ताकि वह अपनी जीत की पटकथा खुद लिख सकें. क्वात्रा ने यह भी कहा कि भारत बांग्लादेश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया का सम्मान करता है - जिसका अर्थ है कि अमेरिका नहीं करता है.

लेकिन भारत के सामने कॉम्पिटिशन है

नई दिल्ली के रुख को दोहराते हुए चीन भी कह रहा है कि बांग्लादेश को अपने संविधान के अनुसार चुनाव कराने का पूरा अधिकार है. ढाका में चीन के राजदूत याओ वेन द्वारा व्यक्त चीन के रुख ने वास्तव में बीएनपी-जेईआई को परेशान कर दिया है क्योंकि यह कार्यवाहक सरकार के तहत चुनाव कराने की बीएनपी-जेईआई की मांग को महत्वहीन बनाता है.

विपक्षी गुट वेन की इस टिप्पणी से भी स्तब्ध था कि "चुनावों के बाद, हमारा सहयोग जारी रहेगा", जिसका अर्थ था कि हसीना फिर से निर्वाचित होंगी और चीन और बांग्लादेश के बीच सामान्य कामकाज होगा और भारत के विपरीत, बीजिंग ने बांग्लादेश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप के लिए अमेरिका की भी आलोचना की है. इससे यह दिखता है कि चीन की ढाका की सरकार में दिलचस्पी जाहिर हो रही है.

चीन ने अमेरिका से स्पष्ट रूप से कहा है कि वह बांग्लादेश के साथ खिलवाड़ न करे और कई शब्दों में उसने ढाका का आभार जताया है.

भारतीय दृष्टिकोण से, एक और जटिलता है. रूस बांग्लादेश में चीन का समर्थन कर रहा है. मॉस्को ने आम तौर पर वाशिंगटन और विशेष रूप से हास पर संसदीय चुनावों से पहले हसीना पर दबाव बनाने के लिए पूरे बांग्लादेश में सरकार विरोधी प्रदर्शन आयोजित करने के लिए विपक्ष को उकसाने का आरोप लगाया है.

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मॉस्को का बयान उस बात का समर्थन है, जो बीजिंग बांग्लादेश में अमेरिकी हस्तक्षेप के बारे में कहता रहा है. नई दिल्ली इस बात से बहुत खुश नहीं हो सकती कि रूस -एक शक्तिशाली देश जिस पर भारत अपनी कई जरूरतों के लिए निर्भर है, चीन को बांग्लादेश पर अपनी पकड़ मजबूत करने में मदद कर रहा है. भारत के पड़ोस में चीन के लिए कोई भी रूसी समर्थन मास्को द्वारा विश्वासघात के समान है.

इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत बांग्लादेश को लेकर अच्छी स्थिति में है और अंतत: उसे अंतिम सफलता मिलेगी लेकिन ढाका पर लगातार अमेरिकी दबाव से हसीना के चीन के पक्ष में चले जाने का खतरा पैदा हो गया है और जो बांग्लादेश चीन का ऋणी है, वह न तो नई दिल्ली और न ही वाशिंगटन के लिए अच्छा है.

पांच साल तक, भारत और अमेरिका दोनों को उस फल का स्वाद चखना होगा, जो वाशिंगटन अब बांग्लादेश में बो रहा है.

(एसएनएम आब्दी एक प्रतिष्ठित पत्रकार और आउटलुक के पूर्व उप संपादक हैं. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

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