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संडे व्यू: टैक्सपेयर्स को देर से मिली राहत, संविधान के मूल्यांकन की आवश्यकता

पढ़े एमवी राजीव गौडा, आकाश सत्यवली, अजित रानाडे, करन थापर, आदिति फडणवीस और सुरजीत एस भल्ला के विचारों का सार.

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टैक्सपेयर्स को राहत देने में देर हुई

एमवी राजीव गौडा और आकाश सत्यवली ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि मोदी सरकार अर्थव्यवस्था को उसकी क्षमता तक पहुंचाने में विफल रही है. यह बजट इस निराशाजनक पैटर्न को जारी रखता है. वित्तमंत्री चाहती हैं कि हम इनकम टैक्स में छूट पर ध्यान दें. सरकार ने करदाताओं को यह राहत देने में बहुत देरी की है. बीते एक दशक में आर्थिक कुप्रबंधन ने घरेलू बजट पर दबाव डाला है. 2023 में निजी खपत 20 साल के निचले स्तर पर आ गयी जबकि घरेलू बचत 47 साल के निचले स्तर पर थी. क्या इनकम टैक्स में कटौती से निजी खपत बढ़ेगी? शायद ही ऐसा हो क्योंकि कर देने वाला मध्यम वर्ग भारतीयों का एक छोटा हिस्सा है. अगर मकसद निजी खपत को बढ़ावा देना, मांग बढ़ाना और बढ़ती कीमतों से निपटना था तो पेट्रोलियम पर करों और उपकरों में कटौती करना अधिक समझदारी भरा होता जो आम आदमी और किसान दोनों पर बोझ डालते हैं.

एमवी राजीव गौड़ा और आकाश सत्यवली ने आगे लिखा है कि आज इनकम टैक्स का योगदान कॉरपोरेट टैक्सेज से कहीं ज्यादा है. 2019 में कॉरपोरेट्स को भारी कर छूट मिली जिससे सरकारी खजाने को 1.45 लाख करोड़ का नुकसान हुआ. आयकर कटौती के कारण राजस्व में एक लाख करोड़ की कमी का अनुमान है. कॉरपोरेट कर कटौती ने निजी क्षेत्र को निवेश बढ़ाने के लिए प्रेरित नहीं किया है. भारत में निवेश करने के बजाए हजारों धनपति विदेश भाग रहे हैं. यही वजह है कि आर्थिक सर्वेक्षण की सरकार को सलाह है कि वह “रास्ते से हट जाए” और विश्वास की कमी को पाट दे.

हमारे आधे कार्यबल कृषि में कार्यरत हैं. इस बजट में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिससे उनकी आय बढ़े. किसानों की आय दोगुनी करने के सपने को आसानी से भुला दिया गया. बढ़ती मुद्रास्फीति को ध्यान में रखते हुए फसलों के लिए एमएसपी में मामूली वृद्धि की गयी है. पिछले एक दशक में कृषि मजदूरों के बीच वास्तविक मजदूरी में बढ़ोतरी 1 फीसद से कम रही है. कृषि विकास दर गिरकर 1.4 फीसद हो चुकी है और यह 2024-25 में केवल 3.8 फीसद रहने का अनुमान है. मनरेगा में कार्य की बढ़ती मांग ग्रामीण अर्थव्यवस्था में लाभदायक आय के अवसरों की कमी का प्रत्यक्ष परिणाम है.
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निराशाजनक माहौल के बीच सुर्खियों वाला बजट

अजित रानाडे ने न्यू इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि वित्तमंत्री के आठवें बजट की वैश्विक आर्थिक पृष्ठभूमि थी. अमेरिका की संरक्षणवादी नीतियों और चीनी स्टार्ट अप की वजह से शेयर बाजार में गिरावट आयी, यह संभव है. घरेलू स्थिति भी आशाजनक नहीं है. एक दिन पहले पेश किए गये आर्थिक सर्वेक्षण में भी दो वर्षों के लिए लगभग 6.5 प्रतिशत की मामूली वृद्धि का अनुमान लगाया गया है जो पिछले वर्ष के 8.2 फीसद के मुकाबले बहुत कम है. नेट डायरेक्ट फॉरेन इन्वेस्टमेंट शून्य हो गया है. वैश्विक घबराहट के कारण न्यूयॉर्क बॉन्ड बाजार की ओर पूंजी का पलायन हो रहा है जिससे डॉलर की मांग में भारी वृद्धि हो रही है. इससे रुपया गिर गया है. इसे बचाने की कोशिश में रिजर्व बैंक ने बैंकिंग प्रणामली में नकदी की तीव्र कमी में योगदान दिया है. इन सबके अलावा मुद्रास्फीति की स्थिति भी कष्टदायक है और बेरोजगारी उच्च स्तर पर बनी हुई है.

अजित रानाडे लिखते हैं कि कॉरपोरेट लाभ 15 साल के उच्चतम स्तर पर है लेकिन मजदूरी और वेतन स्थिर हैं. निश्चित रूप से यह श्रम बाजार की स्थिति के कारण है न कि नैतिक मुद्दा इसकी वजह है. रोजगार को कैसे पुनर्जीवित किया जाए, मुद्रास्फीति को कैसे नियंत्रित किया जाए, विदेशी पूंजी को कैसे आकर्षित किया जाए और रुपये को कैसे स्थिर रकिया जाए?- ये वे सवाल थे जिनका सामना वित्तमंत्री कर रहे थे. बजट में 51 ट्रिलियन रुपये के व्यय और 35 ट्रिलियन रुपये के राजस्व का प्रस्ताव है. अगले साल खर्च नाममात्र जीडीपी में अपेक्षित वृद्धि से कम होगा. उस हद तक यह यथार्थवादी है और अपव्ययी नहीं है. लगभग 16 ट्रिलियन रुपये का घाटा उधार लेकर पूरा किया जाएगा. मध्यम वर्ग के लिए कर कटौती से सुर्खियां जरूर बनी हैं. फिर भी बजट राजकोषीय विवेक की आवश्यकता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.

संविधान के मूल्यांकन की आवश्यकता

करन थापर ने हिन्दुस्तान में लिखा है कि पिछले हफ्ते जब भारतीय संविधान के लागू होने की 75वीं वर्षगांठ मनायी गयी तो जश्न, गर्व और संतुष्टि का माहौल था. यह देखते हुए एक संविधान की वैश्विक औसत आयु 19 साल है, यह महत्वपूर्ण मील का पत्थर है. अब हमें हमारे संविधान का मूल्यांकन करने की आवश्यकता है. विद्वानों ने संविधान की आलोचना औपनिवेशिक होने के लिए की है. आरएसएस का दावा है कि यह भारतीय लोकाचार पर आधारित नहीं है. तो, यह किस मायने में भारत के लिए अच्छा रहा है? एक उत्तर यह है कि इसने हमें एक ही बार में हमारा लोकतंत्र और सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार दिया. लेकिन क्या सभी भारतीयों को समान रूप से लाभ हुआ है? या आप यह तर्क दे सकते हैं कि मुसलमानों और आदिवासियों और शायद पहले दलितों और महिलाओं को उसका लाभ नहीं मिला?

करन थापर लिखते हैं कि 75 साल में संविधान में 106 बार संशोधन किया गया है. ये संशोधन ताकत बताता है या फिर कमजोरी- यह प्रश्न भी अहम है. अमेरिकी संविधान में 1789 से अब तक केवल 27 बार संशोधन किया गया है. ऐसा कहा जाता है कि संविधान ने विधायिका के मुकाबले कार्यपालिका को अधिक सशक्त बनाया है. एक प्रवृत्ति जो 10वीं अनुसूची और लोकसभा अध्यक्षों के काम करने के तरीके से और भी बढ़ गयी है. सांसद अपने पार्टी नेतृत्व के अधीन हो गये हैं और अध्यक्ष के पास वह अधिकार नहीं है जो उन्हें हाउस ऑफ कॉमन्स में होना चाहिए. इंदिरा गांधी का आपातकाल उदाहरण है. यह संविधान को निलंबित करके या उससे बाहर जाकर नहीं हुआ बल्कि संविधान के अपने तंत्र को लागू करके हुए. निश्चित रूप से इससे कोई कमजोरी या दोष उजागर हुआ है. इसने निश्चित रूप से संवैधानिक नैतिकता की अनुपस्थिति को उजागर किया है.
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दलित-आदिवासियों के लिए बजट के मायने

आदिति फडणवीस ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि बीते कई सालों से दलित और आदिवासी अधिकारों के पक्षधर समूह अपने समुदायों के नजरिए से केंद्रीय बजट का विश्लेषण कर रहे हैं. क्या बजट दलितों और आदिवासियों की विशिष्ट जरूरतों को पूरा करता है? क्या आवंटन में बदलाव की जरूरत है या उनका पूरा उपयोग किया जाता है? क्या योजनाओं के लिए निर्धारित धन उन लोगों तक पहुंच रहा है जिन तक इसे पहुंचना चाहिए? क्या पूंजीगत व्यय को सामाजिक न्याय घटक के रूप में फिर से परिकल्पित किया जा सकता है?

फडणवीस लिखती हैं कि ज्यादातर ‘वास्तविक’ अर्थशास्त्री पूंजीगत व्यय जाति, वर्ग और लिंग तटस्थ हैं. कुछ ही लोग मानते हैं कि पूंजीगत व्यय का एक हिस्सा लिंग विशिष्ट हो सकता है. कम लोग मानते हैं कि यह जाति विशिष्ट हो सकता है. कुछ लोग इस बात से सहमत हैं कि सड़क या पुल को इस तरह से देखा जा सकता है कि लाभ का संतुलन सामाजिक रूप से वंचित समूहों के पक्ष में हो. 2013 में मैनुअल स्कैवेंजिंग पर प्रतिबंध लगाया गया था. शौचालय निर्माण कार्यक्रम 2014 में शुरू हुआ. 2018 में हुए सर्वेक्षण में पाया गया था कि देश भर में 42,303 लोग मैनुअल स्कैवेंजर के रूप में कार्यरत हैं. दलित और आदिवासी समूह समान रूप से शिक्षा को सामाजिक न्याय के साधन के रूप में देखते हैं. प्री और पोस्ट मैट्रिक छात्रवृत्ति और एक लव्य स्कूल योजना समेत कई योजनाएं नजर आती हैं. मगर, पर्याप्त बजट आवंटन का इंतज़ार है. रेल मंत्रालय इन समुदायों के लिए सबसे बड़ा नियोक्ता रहा है. निजीकरण अभिशाप बनकर सामने आया है. रक्षा, सिविल एविएंस जैसे क्षेत्रों में दलित-आदिवासी वर्ग की भागीदारी लगातार कम हो रही है. बजट इन समुदायों के लिए कुछ अलग सोच पेश करने का तरीका हो सकता है.

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मध्यम वर्ग को जरूरत थी बड़ी राहत की

सुरजीत एस भल्ला ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि भारत में नौकरी में बढ़ोतरी को गलत तरीके से समझा गया है. मुख्य रूप से इसलिए क्योंकि यह एक राजनीतिक वैचारिक पैकेज का अभिन्न अंग है. ऐसा इसलिए भी क्योंकि “भारत जो झेल रहा है वह K-आकार की रिकवरी है“ जैसे शब्द जाल और नारों से लगभग हर समय भ्रमित करना आसान है. विश्व बैंक, आईएमएफ और आईएलओ के दस्तावेजों पर गौर करें. 2011 के बाद से भारतीय श्रम बाजार में इतना बदलाव आया है कि अधिकांश नीति निर्माता और विशेषज्ञ इस बड़े बदलाव को पहचान नहीं पाए हैं.

भारत में औपचारिक क्षेत्र की नौकरियों में वृद्धि की बहुत कमी रही है. भारत में सबसे तेज जीडीपी वृद्धि (2004-11) की अवधि में नौकरी की वृद्धि मात्र 10 लाख प्रतिवर्ष थी. 2011 से नौकरी हर साल 1.2 करोड़ से अधिक की वृद्धि हुई है. 2019-20 से 1.6 करोड़ नौकरियां सालाना बढ़ीं.

सुरजीत एस भल्ला आगे लिखते हैं कि औपचारिक नौकरी की सरल परिभाषा है- जिसमें आयकर का भुगतान किया जाता है. 2011-12 में 1.8 करोड़ मतदाता थे और 2022-23 में 6.8 करोड़. 2019-20 से आगे कर भुगतान करने वाले वेतनभोगी नौकरियों में बढ़ोतरी 26 लाख सालाना हो गयी. 9.3 प्रतिशत वार्षिक दर से यह बढ़ोतरी रही. 2011 से नौकरी की वृद्धि में प्रभावशाली तेजी आयी है. 2019 से और भी बेहतर. मध्यम वर्ग के करदाता विशेष रूप से वेतन भोगी कर्मचारी स्थिर रहते हुए भी पीछे रह रहे हैं. 2024-25 में कर व्यय 4.5 लाख रुपये है. 2011-12 में 20 प्रतिशत कर पर यह 1.5 लाख रुपये था. कर व्यय तीन गुना हो गया है जबकि आय दोगुनी हो गयी है. यही कारण है कि मध्यम वर्ग परेशान है. वास्तविक कर पूर्व आय में कोई बढ़ोतरी नहीं होने के संदर्भ में यह बात चुभ सकती है. और बहुत चुभ सकती है. 4 जून के मतदान में लोगों ने यह जता भी दिया था.

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