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संडे व्यू: गणतंत्र के उदय की घोषणा वाली परेड, बजट पूर्व देश की आर्थिक सेहत कैसी?

पढ़ें इस इतवार पवन के वर्मा, पी चिदंबरम, रामचंद्र गुहा, प्रभु चावला और करन थापर के विचारों का सार.

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गणतंत्रयोदय की घोषणा वाली परेड

पवन के वर्मा ने हिन्दुस्तान टाइम्स में सवाल करते हुए लिखा है कि जब 76वीं गणतंत्र दिवस परेड भव्य कर्तव्य पथ से गुजर रहा है तो कितने लोग जानते हैं कि 1950 में यह उत्सव और परेड कहां हुई थी? कुछ ही प्रत्यक्षदर्शी बचे हैं जिनमें लेखक भी हैं. ज्यादातर तब पैदा नहीं हुए थे. 26 जनवरी 1950 को इरविन एम्फीथिएटर नामक एक जर्जर इमारत के मैदान में परेड हुई थी. 1951 में यह नेशनल स्टेडियम और अब मेजर ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम हो चुका है. इंडिया गेट के बगल में स्थित है यह स्टेडियम. 1933 में भावनगर के महाराजा ने उपहार के रूप में इसे बनवाया था. भारत के पूर्व वायसराय लॉर्ड इरविन के नाम पर इरविन एम्फिथिएटर इसका नाम पड़ा. लॉर्ड इरविन ने फरवरी 1931 में नई दिल्ली को भारत की नई ब्रिटिश राजधानी के रूप में उद्घाटन किया था.

पवन के वर्मा लिखते हैं कि गणतंत्र के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को 26 जनवरी को सुबह 10.24 बजे राष्ट्रपति भवन के भव्य दरबार हॉल में भारत के मुख्य न्यायाधीश पतंजलि शास्त्री ने राष्ट्रपति पद की शपथ दिलाई. पदभार ग्रहण करने के बाद डॉ प्रसाद ने हिन्दी और अंग्रेजी में संक्षिप्त भाषण दिया. परेड दोपहर 2.30 बजे शुरू हुई. राष्ट्रपति 35 साल पुरानी पुनर्निर्मित राजकीय गाड़ी में सवार हुए जिसे छह खूबसूरत ऑस्ट्रेलियाई घोड़े खींच रहे थे और राष्ट्रपति के अंगरक्षक उनके साथ थे. इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णो मुख्य अतिथि थे. संयोग से इस साल हमारे गणतंत्र की 75वीं वर्षगांठ पर एक बार फिर इंडोनेशिया के राष्ट्रपति प्रबावो सुबियांटो मुख्य अतिथि हैं. जब राष्ट्रपति का का काफिला इरविन एम्फीथिएटर के मैदान से गुजरा तो लोगों को एक झलक पाने के लिए पेड़ों और इमारतों पर चढ़ना पड़ा. परेड दोपहर 3.45 बजे साप्त हुआ जब सशस्त्र बलों और पुलिस के सामूहिक बैंड ने नए गणराज्य की घोषणा की. आज की भव्य परेड की तुलना में वह परेड मामूली जरूर था मगर सहज और भावनात्मक उत्सव की भावना से कहीं अधिक था.

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बजट पूर्व देश के आर्थिक हालात

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि अगर मौजूदा सरकार के पास सतत और सुसंगत आर्थिक दर्शन होता तो किसी चकित करने वाले पैकेज को छोड़ कर आने वाले बजट की मुख्य विशेषताओं का पूर्वानुमान लगाना संभव होता. मगर दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है. यह अब अतीत के पूंजीवाद से भाई-भतीजावाद, उदारीकरण से व्यापारिकता, प्रतिस्पर्धा से कुलीनतंत्र, रेवड़ी से मुफ्त अनाज और किसान सम्मान से कानूनी रूप से बाध्यकारी एमएसपी का विरोध करने की ओर बढ़ चुका है. अब अर्थव्यवस्था की स्थिति की व्याख्या करने और यह तय करने की जिम्मेदारी नागरिकों पर छोड़ देनी ही समझदारी है कि बजट 2025-26 वर्तमान चुनौतियों का पर्याप्त जवाब है या नहीं.

चिदंबरम लिखते हैं कि देश के विभिन्न हिस्सों में सफर करते हुए निश्चित रूप से समृद्धि के सबूत मिलते हैं. 1950 से 1980 के दशक की तुलना में पिछले तीन दशक में प्रभावशाली वृद्धि और विकास दिखा है क्योंकि उदारीकरण के कारण लाखों लोगों के लिए वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करने और उनमें व्यापार करने के तरीके खोजने के दरवाजे खुल गये थे.

लेखक बताते है कि देश में आर्थिक विकास दर गिर रही है. हम छह से सात फीसद के बीच की विकास दर पर गर्व कर रहे हैं. सबसे तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था होने के बावजूद स्थिति सुखद नहीं है. संयुक्त राज्य अमेरिका 2.7 फीसद और चीन 4.9 फीसद की दर से आगे बढ़ रहे हैं. हालांकि हम भूल जाते हैं कि 2024 में अमेरिका ने अपने जीडीपी में 787 अरब अमेरिकी डॉलर और चीन ने 895 अरब अमेरिकी डॉलर जोड़े हैं. भारत ने महज 256 अरब अमेरिकी डॉलर जोड़े हैं. चीन और भारत के बीच का अंतर बढ़ गया है. विकास दर गिर रही है क्योंकि विकास के मुख्य संचालक गिर रहे हैं : खपत, सार्वजनिक निवेश और निजी निवेश. निजी खपत में गिरावट स्पष्ट है. बहुत अमीर लोगों के छोटे से हिस्से में अभद्र उपभोग से तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था का भ्रम हो रहा है. मध्यवर्ग और गरीब तबके ने अपने उपभोग में कटौती की है.

प्रासंगिक हैं अंबेडकर की चेतावनियां

रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में अंबेडकर को उद्धृत करते हुए अपनी बात शुरू की है, “वास्तव में अगर मैं कहूं तो अगर नये संविधान के रहते कुछ गलत होता है तो इसकी वजह यह नहीं कि संविधान गलत है बल्कि इंसान ही गलत होंगे.” भारतीय संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ. उस युगांतरकारी घटना की 75वीं वर्षगांठ है. सत्ता में बैठे राजनेताओं के लिए यह वर्षगांठ धूमधाम और दिखावे, शेखी बघारने और आत्मसम्मान के प्रदर्शन का अवसर हो सकता है. लेखक ने डॉ बीआर अंबेडकर द्वारा जारी की गयी कुछ चेतावनियों की याद दिलाई है. अंबेडकर ने देशवासियों से “उस सावधानी का पालन करने को कहा जो जॉन स्टुअर्ट मिल ने लोकतंत्र को बनाए रखने में रुचि रखने वाले सभी लोगों को दी है अर्थात अपनी स्वतंत्रता को किसी महान व्यक्ति के चरणों में न सौंपें जो उसे उनकी संस्थाओं को नष्ट करने में सक्षम बनाती है.”

लेखक ने अंबेडकर को आगे उद्धृत किया है, “यह सावधानी भारत के मामले में किसी भी अन्य देश की तुलना में कहीं अधिक आवश्यक है. भक्ति या जिसे नायक-पूजा का मार्ग कहा जा सकता है, राजनीति में एक ऐसी भूमिका निभाती है जो दुनिया के किसी भी देश की राजनीति में नहीं दिखती.” उन्होंने आगे लिखा, “धर्म में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकती है. लेकिन राजनीति में भक्ति या नायक पूजा पतन और अंतत: तानाशाही की ओर ले जाने वाला एक निश्चित मार्ग है.” 1970 के दशक में इंदिरा गांधी के पंथ और आज नरेंद्र मोदी के पंथ के बारे में अंबेडकर की टिप्पणियां दूरदर्शी थीं. इन्होंने अलग-अलग तरीकों से भारतीय लोकतंत्र को अपमानित किया है. अंबेडकर का आग्रह था, “हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र भी बनाना चाहिए.” अंबेडकर ने बताया था कि 26 जनवरी 1950 को हम विरोधाभासों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं. राजनीति मे समानता होगी और सामाजिक और आर्थिक जीवन मे असमानता.”

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डॉलर के लिए भारतीय नेताओं के विदेश दौरे

प्रभु चावला ने न्यू इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि भारतीय राजनीतिक वर्ग के लिए नेटवर्क अब जमापूंजी बन चुका है. ज्यादातर केंद्रीय मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों में डॉलर के पीछे भागने का जुनून है. वाशिंगटन, टोक्यो, सिंगापुर, सियोल, लंदन, पेरिस और बॉन पसंदीदा जगह हैं. हर साल नेता स्विटजरलैंड के बेहद महंगे शहर दावोस से शुरुआत करते हैं. यहां अरबपति विभिन्न राष्ट्रों की नीति तय करने के लिए इकट्ठा होते हैं. विकास के नाम पर अपने-अपने राज्यों के लिए विदेशी धन प्राप्त करने की लालसा भारतीय नेताओं में दिखती है, भले ही उनकी राजनीतिक पहचान अलग-अलग हों. पिछले हफ्ते पांच केंद्रीय मंत्री और तीन मुख्यमंत्री 100 से ज्यादा बाबुओं के साथ वैश्विक दिग्गजों के साथ बातचीत करते देखे गये. सदस्यता शुल्क और अन्य खर्चों के लिए प्रति व्यक्ति लगभग 50 लाख रुपये खर्च होते हैं.

प्रभु चावला लिखते हैं कि 2014 में जब से नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं तब से वे, उनके मंत्री और बीजेपी के मुख्यमंत्री अन्य दलों के बेहद प्रतिस्पर्धी समकक्षों के साथ दुनिया के खजाने का दोहन करते रहे हैं. गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर भी मोदी इस काम मे जुटे थे. देवेंद्र फडणवीस, ए रेवंत रेड्डी, ममता बनर्जी, भूपेंद्र पटेल, योगी आदित्यनाथ, मोहन चरण मांझी, मोहन यादव, एमके स्टालिन, भजन लाल शर्मा, हिमंत बिस्वा सरमा, एन चंद्र बाबू नायडू जैसे नेताओं ने ट्वीट कर पूंजी निवेश का दावा किया है. ज्यादातर विदेशी दौरे बीजेपी शासित राज्यों से रहे हैं जिनका मिशन मोदीप्लोमेसी और मोदीनॉमिक्स को बढ़ावा देना होता है. अनौपचारिक अनुमानों के अनुसार पिछले 10 वर्षों में 50 लाख करोड़ रुपये से अधिक के समझौता ज्ञापनों पर विभिन्न मंत्रियों-मुख्यमंत्रियों ने हस्ताक्षर किए हैं. हकीकत यह है कि ये घोषणाएं कागज पर ज्यादा रही हैं.

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आंग सान सू की का घर 24 अकबर रोड

करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि 24 अकबर रोड को कांग्रेस पार्टी के कार्यालय के तौर पर जाना जाता है. 5 दशक से इसकी यही पहचान रही है. लेकिन, लेखक इसे इससे पहले के दशकों से जानते हैं जब इसे बर्मा हाऊस कहा जाता था और यह बर्मी राजदूत का निवास था. उनका नाम दाऊ खिन की था. वे बर्मा की आजादी के नायक आंग सान की विधवा थीं. उनकी हत्या के बाद उन्होंने पहली बार मंत्री के रूप में काम किया. 1960 में उन्हें भारत में नियुक्त किया गया और वे सात साल तक दिल्ली में रहीं. दाऊ खिन की लेखक के माता-पिता की दोस्त थीं और उनकी बेटी आंग सान सू की लेखक की बहन किरण की करीबी दोस्त थीं. वे लेडी श्री राम कॉलेज में साथ-साथ पढ़ती थीं.

करन थापर लिखते हैं कि दाऊ खिन की लंबी नहीं थीं. वे मोटी थीं. उसने लुंगी पहनी हुई थी. उसके बाल पीछे की ओर बंधे हुए थे और उस पर फूलों से सजी एक छोटी से बन थी. उसके चेहरे पर एक दयालु का भाव था. वह धीरे से बोलती थी. उसके होठों पर मुस्कान हमेशा रहती थी. छह साल की उम्र में लेखक उनसे मिले थे. उन्होंने मां-सा प्यार दिया. लेखक को याद है कि उन्होंने डाइनिंग रूम में बहुत ज्यादा खोवे सुए खाए थे. मेरा पसंदीदा ब्लैक राइस पुडिंग था जिसके लिए बर्मी निवास प्रसिद्ध था. तब लेखक मोटा लड़का थे जिसे सू ‘रोली-पॉली’ कहती थीं. सू ने भारत में सात साल बिताए. पहले कान्वेन्ट में और फिर लेडी श्री राम में. अपनी किशोरावस्था में ही वह राजनीति में शामिल होने के लिए दृढ़ संकल्पित थीं और उन्हें विश्वास था कि वह शीर्ष पर पहुंच जाएंगी. वह 18 साल की रही होंगी जब उन्होंने किरण की एक पेंसिल ड्राइंग बनाई थी जिस पर उन्होंने लिखा था, “किरण थापर जब चाहें बर्मा में प्रवेश करने के लिए स्वतंत्र हैं.”

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