शुक्रवार, 23 जून को पटना में हुई बैठक में 15 से ज्यादा दलों और 30 से ज्यादा राष्ट्रीय नेताओं ने हिस्सा लिया. बैठक में 2024 लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी (BJP) के खिलाफ विपक्षी महागठबंधन में साथ आने के लिए चीजें तय की गईं.
केंद्र सरकार के दिल्ली अध्यादेश को लेकर आम आदमी पार्टी (AAP) और कांग्रेस के बीच विवाद और मायावती की बहुजन समाज पार्टी (BSP), के चंद्रशेखर राव की भारत राष्ट्र समिति (BRS) और वाईएस जगनमोहन रेड्डी की YSR कांग्रेस पार्टी जैसी पार्टियों की गैरमौजूदगी के बावजूद कुल मिलाकर बैठक सफल लग रही है.
बैठक के बाद एक संवाददाता सम्मेलन में नेताओं ने ऐलान किया कि वे अगला आम चुनाव एक गठबंधन के रूप में मिलकर लड़ने का इरादा रखते हैं.
वैसे सीट बंटवारे पर समझौता, दूरगामी चुनावी लेखा-जोखा और साझा न्यूनतम कार्यक्रम से जुड़े ज्यादा कठिन सवाल जुलाई में होने वाली शिमला बैठक के लिए छोड़ दिए गए हैं.
ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है कि चुनाव से पहले सत्ताधारी दल या गठबंधन से मुकाबला करने के लिए महागठबंधन या ‘संयुक्त’ विपक्ष की बातें की जा रही हैं.
1977 में आपातकाल के बाद पूरा विपक्ष एक साथ हुआ था, जब कांग्रेस को हराने के लिए कई छोटी पार्टियों ने जनता पार्टी (Janata Party) में विलय कर लिया था.
1996 में जब प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव का कार्यकाल खत्म हुआ और BJP 161 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी तो, इसने सरकार बनाने के लिए शिव सेना, समता पार्टी और हरियाणा विकास पार्टी के साथ गठबंधन किया, हालांकि सरकार केवल कुछ दिनों चली.
इसके बाद 2003 में तत्कालीन अध्यक्ष सोनिया गांधी की अगुवाई में कांग्रेस ने 2004 के आम चुनाव से पहले एक बड़ा BJP विरोधी गठबंधन बनाया.
2019 के चुनाव में भी बड़े विपक्षी दल उत्तर प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों में एक साथ आए.
तो पिछले चुनावों के नतीजे हमें संयुक्त विपक्ष के 2024 के लोकसभा चुनाव के कामयाब होने की संभावना के बारे में क्या बताते हैं?
पटना और शिमलाः आयोजन स्थल का महत्व
दिलचस्प बात यह है कि पहली दो बैठकों— पटना और शिमला— के लिए जगह का चयन अतीत में विपक्षी दलों के एक साथ आने में सफलता से जुड़ा है.
लोकप्रिय समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण ने बिहार से ही संपूर्ण क्रांति आंदोलन शुरू किया था, जिसके बाद आपातकाल लगा और उसके बाद 1977 में इंदिरा गांधी की बहुमत वाली सरकार की हार हुई.
इसी तरह सोनिया गांधी की अध्यक्षता में 2003 के शिमला सम्मेलन में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) का रास्ता बना. बैठक में कांग्रेस ने गठबंधन की राजनीति पर नरम रुख अपनाया और “धर्मनिरपेक्ष” पार्टियों की एकता का आह्वान किया. चुनाव के बाद बना गठबंधन होने के बावजूद UPA ने कांग्रेस को एक दशक तक सत्ता में बने रहने में मदद की थी.
संसद में किसकी कितनी गिनती?
पटना बैठक में 15 राजनीतिक दलों के नेता शामिल हुए.
इनमें शामिल हैं: जनता दल यूनाइटेड (JDU), कांग्रेस, AAP, राष्ट्रीय जनता दल (RJD), शिव सेना (UBT), राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP), समाजवादी पार्टी, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI), CPI ( मार्क्सवादी), नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (PDP), झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM), CPI (मार्क्सवादी लेनिनवादी), और तृणमूल कांग्रेस (TMC).
इस समय BJP संसद के निचले सदन लोकसभा में, जिसमें कुल 543 सांसद हैं, प्रभावशाली स्थिति में है. सदन में बहुमत का आंकड़ा 272 है.
2019 के आम चुनाव के नतीजों के अनुसार:
BJP के पास अपने 303 सांसद हैं.
BJP के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के 353 सांसद हैं.
कांग्रेस के 52 सांसद हैं, जबकि UPA के कुल 91 सांसद हैं.
पटना बैठक में मौजूद 15 दलों के कुल 136 सांसद हैं.
साल 2019 में नीतीश कुमार की JDU और उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना दोनों NDA का हिस्सा थे. बिहार के मुख्यमंत्री अब विपक्षी गठबंधन की अगुवाई कर रहे हैं. 2022 में शिवसेना में एक बड़े बंटवारे के साथ ठाकरे के नेतृत्व वाला UBT गुट विपक्षी मोर्चे का हिस्सा है, जबकि एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाले दूसरे गुट ने BJP से हाथ मिला लिया है.
संसद के उच्च सदन राज्यसभा में कुल 245 सीटें हैं. इनमें अकेले BJP के पास 93 सीटें हैं, जबकि कांग्रेस के पास 31 सीटें हैं. BJP के नेतृत्व वाले NDA के पास कुल 110 सीटें हैं.
विपक्षी दलों (जो पटना बैठक में शामिल हुए) के राज्यसभा में भेजे गए सांसदों की कुल गिनती भी 93 है.
वोट में हिस्सेदारी की तुलना
2019 के लोकसभा चुनाव में BJP का वोट शेयर 37.36 फीसद था. जबकि सत्ताधारी NDA गठबंधन का वोट 45 फीसदी रहा. हालांकि, समय के साथ कई दल गठबंधन से निकल गये,जिसके बाद, अब एनडीए का वोट शेयर 39.92 प्रतिशत हो गया है.
2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों के मुताबिक पटना में मौजूद 15 विपक्षी दलों का वोट शेयर 37.99 फीसद है.
[नोट: इस वोट शेयर की गणना शिवसेना के दो हिस्सों में बंटने से पहले मिले वोटों के आधार पर की गई थी]
दिलचस्प बात यह है कि विपक्ष भले ही 2014 की तुलना में 2019 में BJP के खिलाफ ज्यादा मजबूती से एकजुट हुआ था, भगवा पार्टी न केवल अपनी सीटें (282 से 303) बढ़ाने में कामयाब रही, बल्कि इसके वोट शेयर (2014 में 31 फीसद के मुकाबले 2019 में 37.36 प्रतिशत) में भी उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी हुई.
(नोट: यहां सिर्फ इन पार्टियों के जनाधार के बारे में जानकारी देने के लिए आंकड़ों को एक साथ रखा गया है. वोट ट्रांसफर हालात पर निर्भर करता है और यह देखते हुए कि कांग्रेस को छोड़कर इनमें से ज्यादातर पार्टियों का आधार केवल एक या दो राज्यों में है, यह इतना आसान मामला नहीं है.)
राज्य-स्तरीय गठबंधन ‘एकता’ की कुंजी
राज्य स्तर पर सीट-बंटवारे का समझौता, जिस पर दलों के इस समूह के शिमला बैठक में फैसला लेने की उम्मीद है, काफी हद तक BJP के खिलाफ विपक्ष की लड़ाई की रूपरेखा तय करेगा.
महाराष्ट्र, बिहार, तमिलनाडु, झारखंड और जम्मू-कश्मीर जैसे राज्यों में विपक्ष पहले से एकजुट है. ये राज्य कुल 148 सांसद लोकसभा में भेजते हैं.
उत्तर प्रदेश में जहां 2019 में SP और BSP ‘महागठबंधन’ में एक साथ थे, वहां BJP, SP, BSP और कांग्रेस के बीच चतुष्कोणीय मुकाबला होने की उम्मीद है. उत्तर प्रदेश लोकसभा में 80 सांसद भेजता है. दूसरे राज्य जहां विपक्षी दलों की दमदार मौजूदगी है, वे हैं पश्चिम बंगाल, जहां TMC का BJP के साथ सीधा मुकाबला है, दिल्ली जहां आम आदमी पार्टी का कांग्रेस के साथ सीधा मुकाबला है, और केरल जहां कांग्रेस का वाम दल के साथ सीधा मुकाबला है.
इस कवायद का हासिल क्या है?
BJP भले ही लोकसभा में अपनी गिनती के मामले में अजेय बनी हुई है, 2019 के वोट शेयर विश्लेषण से पता चलता है कि एकजुट विपक्ष के पास टक्कर देने का मौका है. हालांकि, BJP के खिलाफ विपक्षी मोर्चे की कामयाबी या नाकामयाबी काफी हद तक दो मुख्य कारकों पर निर्भर है:
असरदार क्षेत्रीय गठबंधन और समझदारी से तय किया गया सीट-बंटवारा समझौता: करीब 180 सीटों पर क्षेत्रीय दल BJP के लिए मुख्य चुनौती हैं. दूसरी ओर, कांग्रेस राज्यों में लगभग 230+ सीटों पर BJP के साथ आमने-सामने की लड़ाई में है. पार्टियां इन सीटों का बंटवारा कैसे करती हैं, यह अहम होगा.
एक साझा न्यूनतम कार्यक्रम जो गठबंधन के साझा मकसद या इरादे पर जोर देता हो न कि इसे BJP विरोधी मोर्चे की तरह पेश करता है.
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