श्रद्धा मर्डर केस में आए दिन कुछ न कुछ अपडेट देखने को मिल रहा है. कई ऐसे सवाल भी हैं जिनके जवाब का इंतजार पुलिस और लोगों को भी है. श्रद्धा के लिव इन पार्टनर आफताब पूनावाला से दबे जवाब निकलवाने के लिए कोर्ट ने पुलिस को नार्को टेस्ट (Narco Test) की अनुमति दे दी है. आइए जानते हैं आखिर नार्को टेस्ट क्या है? यह कब, कैसे और क्यों किया जाता है? इसके साथ ही इसके इतिहास और कानूनी अनुमति के बारे में भी जानेंगे?
पहला सवाल : क्या किसी का भी नार्को टेस्ट किया जा सकता है? कोर्ट का इस पर क्या कहना है?
2010 के एक अहम फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने नार्को टेस्ट और ब्रेन मैपिंग को असंवैधानिक करार दिया है. सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि दवा के प्रभाव में अभियुक्त या संदिग्ध अभियुक्त से लिए गए बयान से उसकी निजता के अधिकार का हनन होता है.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट तौर पर कहा था कि "अभियुक्त या फिर संबंधित व्यक्ति की सहमति से ही उसका नार्को एनालिसिस टेस्ट हो सकता है. किसी की इच्छा के खिलाफ न तो नार्को टेस्ट, न ही ब्रेन मैपिंग और न ही पॉलीग्राफ टेस्ट किया जा सकता है."
सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने वर्ष 2000 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा प्रकाशित ‘लाई डिटेक्टर टेस्ट के एडमिनिस्ट्रेशन संबंधी दिशा-निर्देशों’ का सख्ती से पालन करने को कहा था.
कोर्ट का मानना है कि अनुच्छेद 20 (3) के मुताबिक एक अभियुक्त को कभी भी अपने खिलाफ गवाह बनने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए.
बीबीसी की एक रिपोर्ट में सुप्रीम कोर्ट की वकील वृंदा ग्रोवर के हवाले से बताया गया था कि
"नार्को टेस्ट, पॉलीग्राफ टेस्ट का कोई मतलब नहीं है. कोर्ट में यह स्वीकार्य ही नहीं है. यह विवेचना का हिस्सा नहीं हो सकता है, क्योंकि इसे कोर्ट मानता ही नहीं है. कोर्ट में इसकी कोई वैल्यू नहीं है."
दूसरा सवाल : नार्को टेस्ट कब, क्यों और कैसे होता है?
नार्को टेस्ट तब किया जाता है जब जांच एजेंसियों या पुलिस को ऐसा लगता है कि संदिग्ध, आरोपी या दोषी या मामले से संबंधित कोई व्यक्ति सच छिपाने की कोशिश कर रहा है.
नार्को टेस्ट एक तरह की झूठ पकड़ने वाली तकनीक है. नार्को टेस्ट को ट्रुथ सीरम टेस्ट भी कहा जाता है. इस टेस्ट को करने वाली एक एक्सपर्ट टीम होती है, जिसमें फॉरेंसिक एक्सपर्ट, डॉक्टर और मनोवैज्ञानिक शामिल होते हैं. इस टेस्ट में संबंधित व्यक्ति को कुछ दवाएं या इंजेक्शन दिए जाते हैं. आमतौर पर इसके लिए सोडियम पेंटोथोल का इंजेक्शन लगाया जाता है, जिससे वह व्यक्ति आधा बेहोशी की हालत में चला जाता है.
आधा बेहोशी की स्थिति में उस व्यक्ति का दिमाग शून्य हो जाता है. तब डॉक्टर उससे सवाल पूछते हैं. डॉक्टर व्यक्ति की पल्स रेट और ब्लड प्रेशर को भी मॉनिटर करते हैं. इस समय व्यक्ति की हालत ऐसी होती है कि वह झूठ बोलने की स्थिति में नहीं रहता है. ऐसा माना जाता है कि इस स्थिति में वह सवालों का सही-सही जवाब देता है, क्योंकि अर्धबेहोशी की वजह से वह व्यक्ति दिमाग का ज्यादा इस्तेमाल नहीं कर पाता और जानबूझकर झूठ बनाने की स्थिति में नहीं होता है.
टेस्ट के दौरान आरोपी के शरीर के कई पॉइंट्स पर कार्डियो कफ जिसे संवेदनशील इलेक्ट्रोड्स भी कहा जाता है, लगाया जाता है. इससे उस व्यक्ति का ब्लड प्रेशर, सांस या नब्ज की गति, खून के प्रवाह और पसीने की ग्रंथियों में बदलाव को जांचा जा सकता है. इस तकनीक का मकसद ये जांचना होता है कि आरोपी सच बोल रहा है या झूठ या वह वाकई में कुछ नहीं जानता है.
नार्को टेस्ट से पहले संबंधित व्यक्ति की जांच की जाती है. अगर उसे कोई गंभीर बीमारी है, तो इस स्थिति में नार्को टेस्ट नहीं किया जाता. बुजुर्ग, बच्चों और मानसिक रूप से बीमार लोगों का नार्को टेस्ट भी नहीं होता है. इस टेस्ट को करते समय बेहद सावधानी बरतनी होती है. थोड़ी भी लापरवाही हुई, तो व्यक्ति की जान भी जा सकती है. वो कोमा में जा सकता है.
यह तकनीक भले ही वैज्ञानिक प्रयोगों पर आधारित है लेकिन एक्टपर्ट्स का दावा है कि यह टेस्ट शत-प्रतिशत सही नहीं होते.
नार्को टेस्ट को कभी-कभी टॉर्चर करने के सॉफ्ट तरीके या थर्ड डिग्री के रूप में भी देखा जाता है. हाल के दशकों में जांच एजेंसियों ने जांच के दौरान इस टेस्ट के इस्तेमाल करने की अनुमति मांगी है.
तीसरा सवाल : नार्को टेस्ट का इतिहास क्या कहता है?
नार्को टेस्ट को लेकर कहा जाता है कि यह पहली बार 19 वीं सदी में इटैलियन क्रिमिनोलॉजिस्ट सिसेर लॉम्ब्रोसो (Cicer Lombroso) द्वारा किया गया था. तब अपराधी से पूछताछ के दौरान रक्तचाप (बीपी) में बदलाव को मापने के लिए एक मशीन का उपयोग किया था.
इसी प्रकार के उपकरण बाद में वर्ष 1914 में अमेरिकी मनोवैज्ञानिक विलियम मार्स्ट्रन और वर्ष 1921 में कैलिफोर्निया के पुलिस अधिकारी जॉन लार्सन द्वारा भी बनाए गए थे.
एक्सपर्ट्स के अनुसार नार्को शब्द, ग्रीक भाषा के 'नार्के’ शब्द से लिया गया है. जिसका अर्थ बेहोशी अथवा उदासीनता. इसका उपयोग एक क्लीनिकल और मनोचिकित्सा तकनीक का वर्णन करने के लिये किया जाता है. इस प्रकार के परीक्षण की शुरुआत सर्वप्रथम वर्ष 1922 में हुई थी, जब अमेरिका में टेक्सास के एक प्रसूति रोग विशेषज्ञ (Obstetrician) रॉबर्ट हाउस ने दो कैदियों पर टेस्ट के लिए नशीली दवाओं का प्रयोग किया था.
चौथा सवाल : पॉलीग्राफ टेस्ट कैसे होता है?
पॉलिग्राफिक टेस्ट मनोवैज्ञानिक रिस्पांस के आधार पर होता है, ये तब किया जाता है जब ऐसा लगने लगता है कि आरोपी, दोषी या संदिग्ध शख्स झूठ बोल रहा है या उसकी बातें असल तथ्यों से अलग हैं. इस टेस्ट में कोई इंजेक्शन नहीं दिया जाता. ना ही शरीर के साथ कोई उपकरण लगाकर पल्स रेट, रक्त चाप और दूसरी हरकतों को रिकॉर्ड किया जाता है.
भारत में पहला नार्को टेस्ट कब किया गया था?
गोधरा कांड मामले में भारत में पहली बार 2002 में नार्को एनालिसिस का इस्तेमाल किया गया था. इसके बाद 2003 में अब्दुल करीम तेलगी को तेलगी स्टांप पेपर घोटाले में परीक्षण के लिए ले जाया गया था, हालांकि तेलगी के मामले में बहुत सारी जानकारियां जुटाई गई थीं, लेकिन सबूत के तौर पर इसके महत्व को लेकर संदेह जताया गया था. वहीं कुख्यात निठारी कांड के दो मुख्य आरोपियों का गुजरात के गांधीनगर में नार्को टेस्ट हुआ था.
2007 हैदराबाद ब्लास्ट की घटना में, अब्दुल कलीम और इमरान खान का नार्को एनालिसिस टेस्ट किया गया था.
2010 में कुर्ला में नौ साल की बच्ची के साथ बलात्कार और हत्या के आरोपी मोहम्मद अजमेरी शेख का भी नार्को टेस्ट किया गया था.
किन हालिया मामलों में इस टेस्ट की मांग की गई है?
अक्टूबर 2020 में, उत्तर प्रदेश सरकार ने हाथरस गैंगरेप और हत्या की जांच के तहत पीड़ित पक्ष का पॉलीग्राफ और नार्को टेस्ट कराने की मांग की थी लेकिन पीड़ित परिवार की ओर से इसके लिए इनकार कर दिया गया था.
जुलाई 2019 में, सीबीआई CBI की ओर से उस ट्रक के ड्राइवर और क्लीनर का नार्को टेस्ट कराने की मांग की गई थी, जिस ट्रक ने उत्तर प्रदेश में उन्नाव रेप पीड़िता को ले जा रहे वाहन को टक्कर मारी थी.
अगस्त 2019 में, सीबीआई पंजाब नेशनल बैंक (पीएनबी) के एक पूर्व कर्मचारी का पॉलीग्राफ और नार्को एनालिसिस टेस्ट कराना चाहती थी. यह कर्मचारी भगोड़े ज्वैलर्स नीरव मोदी और मेहुल चोकसी से जुड़े 7,000 करोड़ रुपये के कथित धोखाधड़ी मामले में हिरासत में था. लेकिन पीएनबी के मैनेजर गोकुलनाथ शेट्टी ने अपनी सहमति देने से इनकार कर दिया था.
मई 2017 में, इंद्राणी मुखर्जी की ओर से खुद का लाई डिटेक्टर टेस्ट कराने की मांग गई थी, लेकिन सीबीआई ने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि उनके पास पहले से ही उसके खिलाफ पर्याप्त सबूत हैं.
आरुषि हत्याकांड मामले में, आरुषि के माता-पिता डॉ. राजेश तलवार और डॉ. नूपुर तलवार का पॉलीग्राफ टेस्ट कराया गया. उनके कंपाउंडर कृष्णा के नार्को टेस्ट का एक वीडियो मीडिया में लीक भी हो गया था.