1925 में अमेरिकी कार्टूनिस्ट रॉबर्ट बर्कले “बॉब” माइनर (1884–1952) ने एक प्रभावशाली कैरिकेचर बनाया, जिसमें चीन, भारत और अफ्रीका को सोए हुए दिग्गजों के रूप में दिखाया गया था- आकार में विशाल, लेकिन पश्चिमी साम्राज्यवाद की छोटी आकृतियों द्वारा दबाए हुए. जिसका कैप्शन था- “एक दिन ये जागेंगे”, ये बात इस ओर इशारा करता था कि अंततः उनका उदय शक्ति-संतुलन को बदल देगा.
सौ साल बाद भी माइनर की सोच आज भी उतनी ही साफ और असरदार लगती है. 2020 की गलवान घाटी झड़प के बाद ठंडे पड़े रिश्तों को सुधारने की दिशा में चीन और भारत का आगे बढ़ना यह सवाल उठाता है: क्या हम केवल क्षेत्रीय सुलह ही नहीं, बल्कि ग्लोबल साउथ के नेतृत्व में दुनिया की शक्ति संतुलन की नई तस्वीर भी देख रहे हैं?
टकराव से सतर्क संवाद तक
नई दिल्ली में हाल की घोषणाओं में कहा गया कि भारत और चीन फिर से सीधी उड़ानें शुरू करेंगे, सीमा पर तय व्यापार केंद्र खोलेंगे और सीमा विवाद पर नई कार्यसमिति बनाएंगे. यह कदम पांच साल पहले गलवान में हुई झड़प के बाद रिश्तों में सबसे बड़ी नरमी मानी जा रही है. चीन के विदेश मंत्री वांग यी की दो दिवसीय यात्रा सहयोग के वादों के साथ पूरी हुई.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक्स पर कहा कि “भारत और चीन के बीच स्थिर, भरोसेमंद और रचनात्मक रिश्ते क्षेत्रीय ही नहीं, बल्कि वैश्विक शांति और समृद्धि में भी अहम योगदान देंगे.” इस बयान को भारत की रिश्तों को नए सिरे से साधने की तैयारी के रूप में देखा जा रहा है. इसी महीने मोदी शंघाई सहयोग संगठन (SCO) शिखर सम्मेलन के लिए चीन जाने वाले हैं, सात सालों में यह उनका पहला दौरा है, जिससे इस पहल का महत्व और बढ़ गया है.
चाइना एंड ग्लोबलाइजेशन सेंटर (CCG) के संस्थापक और अध्यक्ष वांग हुईयाओ ने इस मौके की अहमियत पर जोर दिया. उन्होंने कहा, "चीन और भारत दोनों की सभ्यताओं का लंबा इतिहास है और दुनिया के सबसे बड़े विकासशील देशों के तौर पर उन्हें सहयोग करना चाहिए. एशिया को फिर से सशक्त बनाने और शांति व समृद्धि को बढ़ावा देने के लिए भारत और चीन मिलकर बहुत कुछ कर सकते हैं."
भारत के पूर्व राजनयिक अनिल वाधवा ने कहा कि हाल के महीनों में भारत-चीन संबंधों में सकारात्मक रुझान दिखा है, जिसे अमेरिका के हालिया दबावों ने और तेज किया है. उनका कहना था कि “चीन के साथ बुनियादी मुद्दे अभी भी मौजूद हैं, लेकिन अब ध्यान इस बात पर केंद्रित हो गया है कि भारतीय मानते हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उनकी सरकार ने भारत के साथ ‘अनुचित और अन्यायपूर्ण’ व्यवहार किया है.” वाधवा ने बताया कि दोनों देशों के बीच हुए समझौते व्यावहारिक मुद्दों पर केंद्रित हैं, जिनमें सीमा चौकियों को फिर से खोलना और उड़ानों की बहाली शामिल है.
भारत-चीन रिश्तों में गर्माहट ऐसे समय में आई है जब ट्रंप की टैरिफ नीतियों ने वैश्विक व्यापार को हिला दिया है. रूस से तेल खरीदने पर भारत पर 50% दंडात्मक टैरिफ लगाने की ट्रंप की घोषणा का एक अनचाहा असर यह भी हो सकता है कि इसने दोनों एशियाई दिग्गजों को और करीब ला दिया है.
वांग हुईयाओ का कहना है, “अमेरिका सहित पश्चिमी देशों द्वारा लगाए गए कड़े प्रतिबंधों और व्यापारिक पाबंदियों के जवाब में चीन ने एकतरफावाद का विरोध किया है. "भारत ने भी इससे प्रेरणा ली है और अपने सबसे बड़े पड़ोसी के साथ तालमेल बैठाने के महत्व को समझा है. चीन और भारत दोनों मानते हैं कि एकतरफा दबाव और धमकाने की राजनीति के खिलाफ उन्हें मिलकर काम करना चाहिए.”
ईस्ट चाइना नॉर्मल यूनिवर्सिटी में राजनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफेसर जोसेफ ग्रेगरी महोनी ने इसे व्यापक भू-राजनीतिक मोड़ के रूप में परिभाषित करते हुए कहा, “भारत ने समझ लिया है कि अमेरिका एक अविश्वसनीय साझेदार है. एशिया में अमेरिकी प्रभुत्व का मोहरा बनना नासमझी होगी. हालांकि यह कहना अभी जल्दबाजी होगी कि चीन, रूस और भारत के बीच कोई त्रिपक्षीय समझौता होगा, लेकिन यह अपने आप में दो साल पहले की तुलना में एक बड़े बदलाव को दर्शाता है." वाधवा ने सहमति जताते हुए कहा कि अमेरिकी दबाव और टैरिफ की धमकियों ने उत्प्रेरक का काम किया है. उन्होंने कहा, “व्यापार पर दबाव और ट्रंप प्रशासन के अधिकारियों के नकारात्मक बयानों ने अमेरिका के प्रति भारत में मोहभंग पैदा किया है और भरोसे को कमजोर किया है. वहीं चीन भी समान दबाव में होने के कारण भारत के साथ आगे आया है और इस प्रक्रिया को तेज किया है.”
यह तालमेल किसी औपचारिक गठबंधन का संकेत नहीं देता, बल्कि उन साझा हितों का मेल है जो दोनों देशों के गर्व से कहे जाने वाले “रणनीतिक स्वायत्तता” में निहित है. न तो नई दिल्ली और न ही बीजिंग बाध्यकारी समझौते चाहते हैं, लेकिन दोनों को समझ है कि पश्चिमी आर्थिक दबाव का सामना करने के लिए संयुक्त रूप से सामने आना जरूरी है.
क्षेत्रीय स्थिरता से ग्लोबल साउथ के उदय तक
वांग यी की यात्रा में व्यावहारिक सहयोग के क्षेत्रों पर भी चर्चा हुई. वांग हुईयाओ ने संभावित साझेदारी के दायरे को रेखांकित करते हुए कहा, “भारत के साथ संबंध बेहद महत्वपूर्ण हैं और यह दिखाता है कि चीन और भारत बुनियादी ढांचे, हरित ऊर्जा परिवर्तन, डिजिटल अर्थव्यवस्था, पर्यावरण, शहरीकरण और ग्रामीण विकास सहित कई क्षेत्रों में सहयोग कर सकते हैं. इसके कई अवसर मौजूद हैं.”
महोनी ने सुझाव दिया कि ये व्यावहारिक कदम एशियाई सुरक्षा के एक नए प्रतिमान को आधार प्रदान कर सकते हैं. उन्होंने कहा, "हम एशियाई सुरक्षा के लिए एक नए प्रतिमान की स्थापना के संदर्भ में एक 'अद्वितीय' क्षण पर पहुंच चुके हैं, जहां शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ), ब्रिक्स, रूस के साथ साझा संबंध और पैक्स अमेरिकाना की समाप्ति जैसे कई कारक संभावित सफलताओं को प्रोत्साहित कर रहे हैं."
चीन में होने वाला आगामी एससीओ शिखर सम्मेलन, जिसमें प्रधानमंत्री मोदी और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन शामिल होंगे, इन बदलावों को परखने का अहम मंच साबित होगा. क्या यह रूस-भारत-चीन त्रिपक्षीय संवाद के पुनर्जीवन का संकेत हो सकता है? क्या एससीओ जैसे मंचों को फिर से सक्रिय कर ग्लोबल साउथ की सामूहिक आवाज को और मजबूत बनाया जा सकता है?
वांग हुईयाओ आशावादी हैं. वे कहते हैं, "अगर चीन और भारत एक ही नजरिए से चीजों को देखें, तो यह बहुत महत्वपूर्ण होगा." वे आगे कहते है, “इससे क्षेत्र में संबंध काफी मजबूत होंगे, स्थिरता और समृद्धि के साथ ही क्षेत्रीय देशों के बीच और एससीओ के ढांचे के भीतर भविष्य में सहयोग को बढ़ावा मिलेगा. भारत और चीन ग्लोबल साउथ के दो सबसे बड़े देश हैं. वे दुनिया में संतुलन कायम करने की बड़ी ताकत बन सकते हैं. अगर भारत और चीन साथ मिलकर काम करें तो यह न सिर्फ क्षेत्र बल्कि पूरी दुनिया में शांति, समृद्धि और स्थिरता लाने में मदद करेगा.”
महोनी ने कहा कि एससीओ और त्रिपक्षीय समीकरण पहले ही असर दिखा रहे हैं. उन्होंने कहा, “अमेरिका-रूस और यूरोपीय संघ-रूस के बीच जो भी हल निकले, रूस का ध्यान अब एशिया पर है. भारत को यह समझ आ गया है कि अमेरिका एक अविश्वसनीय साझेदार है... चीन-रूस संबंधों में यह निर्णायक मोड़ पहले ही आ चुका है."
वाधवा ने व्यापक रणनीतिक परिप्रेक्ष्य पर जोर दिया. उन्होंने कहा, “एससीओ शिखर सम्मेलन एक छोटी सी बात है, लेकिन मुख्य बातचीत चीन और भारतीय नेताओं के बीच द्विपक्षीय शिखर बैठक में होगी. जहां विचारों का महत्वपूर्ण और खुला आदान-प्रदान होगा. दोनों पक्ष अपनी सीमाओं (रेड लाइन) को स्पष्ट करते हुए अपने संबंधों में एक नया संतुलन स्थापित करने को लेकर स्पष्ट हैं.”
ऐतिहासिक संदर्भ और आगे की राह
1925 के माइनर के कार्टून ने एशिया की छिपी हुई संभावनाओं को उजागर किया था- एक विचार जो आज की भू-राजनीति में भी गूंजता है. चीन और भारत का उदय केवल उनकी अपनी महत्वाकांक्षाओं से नहीं, बल्कि पारंपरिक पश्चिमी शक्तियों की अविश्वसनीयता की धारणा से भी आकार ले रहा है. ट्रंप युग के टैरिफ और धमकियों ने भारत की रणनीतिक सोच को तेज किया, जबकि चीन व्यापार और एससीओ जैसे क्षेत्रीय मंचों के जरिए अपने प्रभाव को बढ़ाता रहा है.
वाधवा ने सावधानी बरतने की जरूरत पर भी जोर दिया. उन्होंने कहा कि भारत, चीन और अन्य ग्लोबल साउथ देश भले ही उभरती ताकतें हों, लेकिन उनकी प्रगति शांतिपूर्ण और स्थिर माहौल तथा घरेलू स्थिरता पर निर्भर करती है. “उन्हें आर्थिक विकास के रास्ते में उथल-पुथल से बचना होगा और घरेलू स्तर पर स्थिर और शांतिपूर्ण वातावरण बनाए रखना होगा.”
इन सकारात्मक संकेतों के बावजूद चुनौतियां बनी हुई हैं. सीमा विवाद अभी पूरी तरह सुलझा नहीं है और पाकिस्तान के साथ चीन के घनिष्ठ रिश्ते नई दिल्ली के रुख को पेचीदा बनाते हैं. आर्थिक और क्षेत्रीय मुद्दे भले ही सुधर रहे हों, लेकिन वे अब भी संवेदनशील हैं. इसके बावजूद दिशा स्पष्ट है. भारत और चीन वैश्विक दबावों, आर्थिक जरूरतों और क्षेत्रीय अवसरों के बीच अपने रिश्तों को नए सिरे से साध रहे हैं.
जैसा कि माइनर के कार्टून ने सौ साल पहले इशारा किया था, एशिया के दो दिग्गज जाग रहे हैं. कभी पश्चिमी दबदबे की छाया में दबे चीन और भारत अब जागृत हो रहे हैं- विरोधी नहीं, बल्कि अधिक संतुलित और बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के संभावित निर्माता के रूप में. अब सवाल यह है कि क्या यह जागृति निरंतर सहयोग में तब्दील होगी, एक ऐसे वैश्विक दक्षिण के लिए मंच तैयार करेगी जो रणनीतिक स्वायत्तता से समझौता किए बिना विश्व मंच पर अपनी आवाज बुलंद कर सके.
लेखक, अभिषेक जी भाया, एक वरिष्ठ अंतर्राष्ट्रीय मामलों के टिप्पणीकार और चीन-भारत डायलॉग के भारतीय कंट्रीब्यूटर हैं.
(यह सामग्री बीजिंग स्थित चीन-भारत डायलॉग द्वारा उपलब्ध करवाई गई है.)